Friday, October 9, 2020

मेरा मन १

मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है,

अपने ही अंतर्द्वंद्व से

नित जूझता रहता है।

जाए कहां वह सोचता,

शांति है किस एकांतवास में,

दीवारों पर सिर पीटता है।

कभी बेलगाम-सा हो जाता,

बिन परों के उड़ान है भरता।

मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

आभास तक नहीं है होता,

हो जाता ये हिरण सा चंचल,

भटकता रहता प्रतिपल।

 ईश्वर को कस्तूरी सा वो,

पत्थर, तस्वीरों में खोजता।

पर नादान नासमझ वह,

आत्मावलोकन नहीं करता।


मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

नादान मन खुद से प्रश्न कर,

उलझनों में है लिपटता।

कोमल मन को भाये शांति,

सुख की चाह में है भ्रांति।

विछिप्त होता है मन मेरा,

जाए कहां पर यह बेचारा,

संगदिल है जहां ये सारा।


मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

बेज़ार हो रहें हैं,

दिशाहीन होता मानव।

हिय में प्रेम-दया नहीं,

हिंसक हो रहा वो।

सद् गति की राह छोड़,

क्रोध, नफ़रत, घृणा 

हिंसा काआवरण ओढ़।




Monday, September 28, 2020

तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है

मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है,

फिर भी तुम्हें न जाने क्यूं

अपनी मोहब्बत से इंकार है।

न चाहते हुए भी स्वदेश से हुई दूर । 

जिंदगी दी थी जिन्होंने,

उन्हें ही छोड़ने को हुई मजबूर।

मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।

जिस आत्मनिर्भरता को देख हुए थे अभिभूत

नृत्य कला को छोड़ने को हो गई तैयार।

दफ़न कर दिया अपनी आकांक्षाओं को,

चल दी साथ तुम्हारे, अपने दिल को थाम।

तुम्हारे स्वप्नों में भरने लगी रंग,

खुद के परों को समेटे हुए, हुई तुम्हारे संग।

 अब बहुत निभा ली कसमें वादे,

बेटी को जन्म देकर उसकी बनूंगी आभारी।

माना चाहत तुम्हें थी बेटे की,

पर मां बनने की वर्षों से थी चाहत हमारी।

जन्म से पूर्व ही नहीं कर सकती हत्या,

तुम क्या जानो इक औरत की व्यथा।

इक दिवानगी वो थी कभी तुम्हारी,

हाथों में लिए फूल बारिश में भी आते थे।

और इक दिवानगी ये कैसी कि

कांटे चुभा हमें बेबस- बेघर किए।

आज तुम्हारे इस प्रस्ताव से मुझे इंकार है,

मेरी मोहब्बत नहीं है कमज़ोरी।

बस किस्मत से लड़ कर जीतने की,

कुछ आदत सदा रही है पुरानी।

अब मैं नहीं दोहरा पाऊंगी कि

'मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।'

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Saturday, September 26, 2020

मोबाइल - विषय

 मानव निर्मित यंत्र है ये कैसा,

 जीवन परिवर्तित हुआ कुछ ऐसा।

 स्वतंत्र हुआ करता था जो,

 मनुष्य उसी के आधीन हो गया।

 चारों पहर उसी में है खोए,

जगते सोते मोबाइल की जय होए।

 सारे रिश्ते सिमट गए हैं,

 स्क्रीन पर ही संपर्क रह गए हैं।

वार्तालाप भी वाह्टसअप में समाई,

ख़ामोशी है घर, परिवार में छाई।

शब्द भी सिमट गए अब तो,

भावनाएं भी जकड़ गई देखो।

एक पिंजर सा बना है इर्द-गिर्द गर समझो ,

तन-मन को जकड़ रखा है यह तो।

मोबाइल हुए जैसे-जैसे होशियार ,

मानव संवेदनहीन व निष्ठुर हुए यार।

जरूरत आदत में तब्दील हो गई,

मोबाइल बाबा की जय-जयकार हुई।

इस यंत्र का हमारे जीवन पर है पहरा,

आंखों, मस्तिष्क पर प्रभाव है गहरा।

लत लगी है हर उम्र के लोगों में मानो,

अबोध बालक भी अछूता नहीं है, जानो।

हमें नियंत्रित करने में सफल हो रहा,

बच्चे, जवान, बूढ़े को भ्रमित कर रहा।

माना अच्छाई भी है कई भाई,

वक्त बेवक्त, झटपट है बात कराई।

दूरियां, तन्हाइयां भी है मिटाता,

चेहरे से पहचान व संबंधों को मिलाता।

शिक्षा ग्रहण होता घर बैठे,

क्रिया कलाप भी होता है इससे।

खग सोचता कि विवेकहीन हुआ मानव देखो, 

यंत्र रूपी पिंजर में कैद कर रहा वो खुद को।

मोबाइल के संग सांस का बन गया रिश्ता,

आहिस्ता-आहिस्ता लगाम है कसता।

यंत्र पर आश्रित हो रहा देखो,

नियंत्रित कर रहा है हम सबको।







Friday, September 25, 2020

प्रार्थना

          प्रार्थना

विधा- सायली छंद

✍️🙏✍️🌸

हे

नारायण लक्ष्मीपति

शरण दो हमको,

दया करो

दीनानाथ।



विश्व

पर आई 

विपदा घोर भारी,

नहीं सूझे

राह।



हरो

मानव कष्ट

अंतर्मन तम हमारी,

दूर करो

संताप।


तुम

रक्षक हो 

मानव जाति के

सुनो हमारी

पुकार।



जय

पीताम्बर हरिप्रिया

जगत कृपा निधान,

तुम हो

तारणहार।



हे

विधाता

उबारो हमें अब,

भव सागर

पार।


कर

जोड़ कर

करुं विनती तेरी,

कृपा करो

नाथ।



Thursday, September 10, 2020

किसको जिम्मेदार कहोगे?

कल भी औरों को दोष देते थे,

आज भी दोष मढ़ोगे।

यथार्थ को जो बूझोगे,

किसको जिम्मेदार कहोगे?

क्या वक्त को जिम्मेदार कहोगे?

 प्रतिदिन प्रयास करना है,

 नित आगे ही बढ़ना है।

 भूमि से हैं जुड़े, मेहनत करना है।

 माना वक्त कठिन है सबके लिए

 इससे नहीं डरना है।

अंतर्मन के द्वंद्व से स्वयं ही, 

हमें उभरना है।

जो कभी आत्मचिंतन करोगे,

फिर किसे, कैसे और

किसको जिम्मेदार कहोगे?

मानवता के परीक्षा की है घड़ी

बेरोजगारी,गरीबी और

 प्राकृतिक आपदा संग,

मानव की जंग है छिड़ी।

विजय- पराजय से हो भयभीत

किस पक्ष में खड़े रहोगे?

किसको जिम्मेदार कहोगे?

आज  समय आया है देखो

 खुद के हुनर को संवारने का

 गुजरते इस दौर को,

 इक अवसर में बदलने का।

 मिल कर हाथ बढ़ा तू साथी

दोष-प्रदोष का खेल समाप्त कर,

एक जुट हो अग्रसर होना है,

गंभीरता से इस पर विचार कर।

'कोरोना' ने रचा चक्रव्यूह है ऐसा

शायद यह मानव कुछ समझेगा।

स्वयं से विचार जो करोगे,

फिर किसको जिम्मेदार कहोगे?

क्या वक्त को जिम्मेदार कहोगे?







Friday, August 21, 2020

श्री गणेशाय नमो नमः


गौरी नंदन, जय जग वंदन

श्री गणेशाय नमो नमः।

विघ्नहर्ता, गणपति बप्पा

श्री गणेशाय नमो नमः।

शंकर सुवन, पार्वती नंदन

मात पिता की करके भक्ति

जगत प्रिय वे हुए सदा।

श्री गणेशाय नमो नमः।

मूषकवाहन, जय गजानन

श्री गणेशाय नमो नमः।

हस्तिमुख, हे मोदक प्रिय 

श्री गणेशाय नमो नमः।

सिद्धिविनायक, जय गणनायक

मनोकामना की कर पूर्ति

भक्तजन पर किए कृपा।

 श्री गणेशाय नमो नमः।

जय लंबोदर, हे विघ्नेश्वर

श्री गणेशाय नमो नमः।

एकदंत, जय वक्रतुंड

श्री गणेशाय नमो नमः।

हे गणाधिप, हे महाकाय

श्री गणेशाय नमो नमः।

जय अंबिकेय, जय शूर्पकर्ण 

प्रथम पूज्यनीय हैं, हे देवा

श्री गणेशाय नमो नमः।








Tuesday, August 11, 2020

जय बोलो गोपाल की


जय गोपाला, जय नंदलाला

जयबोलो घनश्याम की।

जय बृजमोहन, जय यशोदा नंदन

जय बोलो राधे श्याम की।

हाथी घोड़ा पालकी, जय बोलो गोपाल की।

जय मधुसूदन, जय देवकी नंदन 

जय बोलो वासुदेवाय की।

जय मन मोहन,जय मुरलीधर

जय बोलो कन्हैयालाल की।

हाथी घोड़ा पालकी, जय बोलो गोपाल की।

जय मुरारी, जय चक्रधारी

जय बोलो जगन्नाथ की।

जय केशव, जय गिरिधारी

जय बोलो वैकुंठनाथ की।

हाथी घोड़ा पालकी, जय बोलो गोपाल की।

जय गोविंदा, जय जगद्गुरु

जय बोलो मनोहर लाल की।

जय सनातन, जय निरंजन

जय बोलो सुदर्शन लाल की।

हाथी घोड़ा पालकी, जय बोलो गोपाल की।





Wednesday, August 5, 2020

श्री राम में रम जाओ

मंगल गीत गाओ री सखि,
राम लला के गीत गाओ री
जय राम,श्री राम में रम जाओ री सखि।
मंगल गीत गाओ री सखि।

सरयू तट पर हुई भीड़ भारी,
धन्य हुई है अवध हमारी,
ईंट ईंट राम की है आभारी
झूम रहे बच्चे, बूढ़े, नर-नारी,
माटी माटी से आवाज आई
बस 'राम नाम है सुखदाई।'

राम लला के गीत गाओ री।
जय राम,श्री राम में रम जाओ री।

भूमि पूजन,पुष्प,तिलक कर
राम, राम की जयकार लगा।
राम नाम ही है सत्य साईं,
रोम रोम में राम समायी,
दो अक्षर में जग रमायी,
परम आनंद इस नाम में भाई।

राम लला के गीत गाओ री।
जय राम,श्री राम में रम जाओ री।

भक्ति रस में डूबी नगरी सारी,
सियाराम की छवि लागे प्यारी।
राम धुनी तन मन में रमाई।
धन्य-धन्य हुए अवध बिहारी।।
धरती अंबर में है गुंजायमान,
तन मन में रम गए सियाराम।

राम लला के गीत गाओ री।
जय राम,श्री राम में रम जाओ री।




वक्त का खेल

कितने मजबूर हो गए हम,
पास होकर भी दूर हो गए हम।
बीत गई होली बस यूं ही,
न चढ़ा रंग प्रेम का सोचो।
दूरियां बढ़ा ली मानव ने,
वक्त ने रचा खेल है देखो।
'कोरोना' ने ज़िद कर ठानी,
इस दफा झुकेगा अहम तुम्हारा।
मानव को नया सबक मिलेगा,
प्रेम, विछोह को शायद समझेगा।
ईद पर्व भी कुछ इस तरह मनाई,
घर पर ही नमाज़ अदा कर,
खीर-पकवान की थाल सजाई।
बंद दीवारों में थोड़ी रौनक आई।
दूजा पर्व आ गया अनोखा,
बहन-भाई का स्नेह बंधन ऐसा,
डोरी,रोली व चंदन के जैसा।
पर इस वर्ष में किसने था सोचा
राखी बेबस पड़ी थाल में,
इंतजार की घड़ी हुई है लंबी।
जाने कब महामारी छटेगी?
एक जुट हो त्योहार करेंगे,
मिलकर हम सब फिर झूमेंगे।
वक्त की मार से जो मानव सीखे,
स्नेह,प्रेम संग से गर रहना सीखें।





Wednesday, July 29, 2020

कविता

✍️😃
उन्नीस बीस का अंतर
इस वर्ष ने अच्छे से समझाया।
छोटे बड़े झटके रह रह
जीवन को महसूस है कराया।
🙏🌸
कुछ नहीं रखा है 'मैं' में
खाली हाथ लौटना है वहां।
सफ़र है जिंदगी, मंजिल नहीं
जी ले इक इक पल यहां।

Tuesday, July 28, 2020

Tum kahan ja rahe ho

https://twitter.com/zorbabooks/status/1287645655645728769?s=20
For this poem, (in 50 words)

तुम कहां जा रहे हो?
✍🏻
कुछ दूर ही चला था,
कि काफ़िर नज़रों ने पूछा।
तुम कहां जा रहे हो?
मुस्करा कर कहा,
तंग हैं गलियां यहां,
सोच भी है कुंठित।
हीन हो रही मानसिकता,
मानव हो गया विक्षिप्त।
बेबस हो जीने से अच्छा,
गंतव्य हो और कहीं।
नई सोच, सफ़र नया
प्रश्न न करना फिर कभी।
      .... अर्चना सिंह जया

Thursday, July 23, 2020

सावन मन भावन

सावन मन भावन है।
बरखा की बूंदों में,
शीतल पवन के झोंंकों में,
बादलों के घेरों में,
कोयल के गीतों में,
सावन मन भावन है।
अमिया के झूलों पे,
नदियों के उफान पे,
खेतों की हरियाली पे,
मेहंदी हथेली पे,
सावन मन भावन है।
सखियों की टोली संग,
धानी चुनरी के संग,
खनकती चूड़ियों संग,
छतरी हमजोली संग,
सावन मन भावन है।


Thursday, July 16, 2020

मुझे यकीन है - कविता

                   कविता
                         मुझे यकीन है

मुझे यकीन है
तुम इक दिन समझोगे।
जब आॅंखें कमज़ोर हो जाएॅंगी,
मन का कोना खाली हो जाएगा,
आॅंगन भी सूना हो कोसेगा,
दीवारों में दरारें दिखेंगी,
मुस्कान मेरी तुम खोजोगे।
मुझे यकीन है
तुम इक दिन समझोगे।
गुजरा वक्त याद आएगा,
तन्हा पहर भी ढल जाएगा,
गुलाबी शाम फिर रुलाएगी,
बस धुॅंधली होंगी यादें पुरानी,
आॅंसुओं से होंगी पलकें गीलीं।
मुझे यकीन है।
तुम इक दिन समझोगे,
पुरानी तस्वीरों में ढूॅंढोगे,
रंगोली के रंगों में खोजोगे,
गलियारों सड़को पर
तन्हाॅं गुम हो भटकोगे।
भीड़ में भी रहोगे अकेला
फिर मेरी मोहब्बत को तरसोगे।
मुझे यकीन है।
 
              ........ अर्चना सिंह जया      

Wednesday, July 15, 2020

सुन री सखी

अंतर्मन के द्वंद्व से
हरदिन लड़ रही हूं री सखी।
का से कहूं पीड़ा मन की
बस इसी उलझन में हूं।
टीस सी उठती रह रह,
हिय छलनी है हो रहा।
अश्रु बन लहु देखो,
आंखों से बह रही री सखी।
रिश्तों के ताने-बाने,
रह गए हैं उलझ कर।
गांठें पड़ रही हैं,
गुजरते लम्हों में अब।
मैं रहूं या ना रहूं मगर
सब रहेगा यूं ही री सखी।
जिंदगी जो सिखा गई,
सिखाया नहीं किसी ने।
प्रयास फिर भी कायम रखी,
उम्मीद कभी छोड़ी नहीं।
मन तो कल भी रिक्त था,
आज भी तन्हां है री सखी।







Tuesday, July 14, 2020

अदृश्य नायक

मैं अदृश्य
मुझे देखा नहीं,
मुझे छुआ नहीं,
नायक बन बैठा मैं।
नायक नहीं खलनायक,
ऐसा कहने लगे हैं हमें।
नामकरण भी कर दिया,
'कोरोना' पुकारने लगे सभी।
खुद का गिरेबान झांका नहीं,
क्यों द्वेष,छल कपट, नफरत
हिय में छुपा रखा है तूने ?
इसे मिटाने और तुम्हें सिखाने,
का लिया संकल्प है मैंने।
बहरूपिया बन आता रहूंगा,
संहार करने को यहां।
बुद्धि हीन देख भावना,
हृदय काठ का है हुआ।
इंसानों व रिश्तों से परहेज़
करते देखा फिर जब,
अदृश्य बन अवतरित हुआ,
सिखाने को नया सबब।
मानव ईश की सुंदर रचना
पर कद्र न तुझ से हुआ।
नारी का तिरस्कार किया,
बहन बेटी का बालात्कार ।
कहां गई इंसानियत तेरी,
धरा बिलखने कराहने लगी ।
भाई-भाई में प्रेम नहीं,
मां का अनादर भी किया।
मैं अदृश्य नायक था तेरा
खलनायक बनने को देखो,
वर्षों बाद विवश मैं हुआ।
बुद्धि विवेक भ्रष्ट हुई तेरी,
विष कब से मैं हूं पी रहा।
अपराधबोध तुझे कराने,
विकराल रूप धारण है किया।
जीवन अनमोल है पर
कभी विचार तक नहीं किया।
आत्मावलोकन करने का
विचार मन में क्यों आया नहीं?
दूरियां बढ़ती ही जा रहीं,
घाव दिलों के यहां भरते नहीं।
जो मैंने एहसास ज़रा कराया,
अदृश्य शक्ति मैं हूं कहीं।
विवश हो बिलख रही दुनिया,
फिर भी अहम छोड़ा नहीं।
टूटने को हुआ तत्पर,
झुकने को अब भी तैयार नहीं।
नायक से खलनायक का,
सफ़र है मंजिल नहीं।



 ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं


Tuesday, June 16, 2020

खुद की खुशी


मायानगरी है ये दुनिया ही
नकाब पहना है सबने यहां।
उम्दा कलाकार हैं हमसभी
सच से चुराकर आंखें देखो,
कृत्रिम जीवनशैली को
समझ बैठे हैं वास्तविक जहां।
यथार्थ से होकर दूर हम,
भटक गई हैं राहें जहां।   
औरों की झूठी तसल्ली के लिए
खुद को गिरवी रखते हैं सभी।
मकान बहुत ही सुन्दर है,
ऐसा सभी कहते हैं यहां।
दीवारों पर लगी पेंटिंग,
रंग बिरंगी टंगी तस्वीरें
खूबसूरती को हैं बढ़ाते।
पर मन एक कोना फिर भी
रह गया खाली कहीं यहां।
इसे सजाएं कैसे, कहो अब
खुशियां, ठहाके,रिश्ते,प्यार
सहज मिलते नहीं बाजारों में।
हां, दर्द को छुपाया मुस्कानों से
तनहाई को सजाया गीतों से,
ऊंचाई को छूने की चाहत ने
साथ छुड़ाया अपनों से।
सौहरत,दौलत, मकान, गाड़ियां
पाकर भी मैं रहा अकेला जहां।
विचित्र है ये दुनिया यारों,
सब पाकर भी कभी कभी
खुश नहीं हो पाता मानव यहां।
तलाश खत्म होती नहीं उसकी
खुद को खो देता है वो यहां।
जिंदगी इक पहेली सी
जाने क्यों हरपल लगती यहां?
खुद की खुशी है जरूरी
न करना खुदकुशी कभी यहां।




Thursday, June 4, 2020

धिक्कार है तेरा

मैं गजानन पूजनीय
क्या गुनाह किया मैंने?
हां, शायद बुद्धिजीवी पर
कर बैठा विश्वास मैंने।
नहीं की थी कल्पना कभी
अमानवीय व्यवहार की।
मेरे जीवन के साथ ही
कर बैठा निर्मम हत्या
मेरे गर्भ में पल रहे,
मासूम नन्हें सुमन की।
क्यों कर्म हीन,भाव हीन
हो गया है मानव?
जानवर हैं हम
पशुता का व्यवहार
दर्शाता है तू क्यों?
कब अपराधबोध हो
समझ सकेगा तू ?
उसके ही दुष्कर्म का
परिणाम है आज
प्राकृतिक, जैविक आपदा।
मानव के संग
पेड़-पौधे ही नहीं
पशु-पक्षी,जीव जंतु भी
धरोहर हैं इस धरा की।
बेजुबान हैं हम पर
हिय में है स्नेह अपार।
क्रूरता कितनी भरी है
तेरे हृदय में बता।
धिक्कार है तेरे
मानवता होने का,
शर्मसार कर दिया
आज फिर इंसानियत का।
वैहशी हो चला है मानव
क्यों अधर्मी है हो रहा?
सोच हो चली कुंठित,
व्यवहार में विष घोल लिया।




Monday, May 18, 2020

क्यूँ मजदूर मजबूर हुए

क्यूँ जीवन सफर में मजदूर,
इतने मजबूर आज हुए।
जिस शहर को आए थे कभी,
वहीं से वे भूखे- बेघर हुए।
मशीनें जहाँ उनकी राह देखती थीं,
चूल्हे से धुआँ उठा करती थींं।
पेट की तृष्णा कम हो जाया करती,
परिवार को दो वक्त की रोटी,
कभी यहाँ मिल जाया करती थी।
फिर कैसी हुई लाचारी,
कोरोना की छाई महामारी।
जिस राज्य ने थामे थे हाथ कभी,
आज मझधार में अकेला छोड़ दिए।
क्यूँ जीवन सफर में मजदूर मजबूर हुए।
पटरी, सड़क चल दिए नंगे पग,
गाँव की ओर आज रुख हैं किए।
तप्ती धूप, रिक्त हाथ, छाले पैरों तले
उम्मीद की गठरी कांधों पर ,
जिंदगी तलाशते अपनों  के लिए।
वही शहर, गली, मुहल्ला आज
अजनबी बन गया है जाने कैसे ?
स्वदेश में रहकर भी असहाय,
प्रवासी का जिन्हें नाम दिया।
पल में पराया किया वहाँ,
जहाँ खून को पानी उसने किया ।
जिस राज्य को सर्वस्व सौंपा,
पलभर में वहींं क्यों बेगाना हुआ?
माँ है कि पेट दबाए बैठी,
बच्चों की नम आँखें जैसे हों कहतींं।
'बाबा चार दिन बीत गए हैं सोचो,
भूख से बहना बिलखती है देखो।'
चलो गाँव की ओर चले हम,
पुरखों की जम़ीन से नाता पक्का।
अपनी माटी का घर वह कच्चा,
खेत खलिहान को लौट चलें अब।
पहचान नहीं रही अब अपनी देखो
राशन समाप्त हो चुका है अब तो,
साइकिल,रिक्शा, ठेले पर या पैदल ही चल।
दिल भर आता है दर्द सुनकर यारा,
मजदूर से है गाँव ,शहर,देश हमारा
फिर क्यों मजबूर हुआ है मजदूर बेचारा?





Wednesday, May 6, 2020

अजीब विडंबना

अजीब विडंबना है देश की
जिंदगी या कोरोना में से
किसका चयन करें इंसान?
इतनी सी बात नहीं समझ रहा,
उल्लंघन कर्तव्यों का कर रहा।
दूध के लिए बच्चे हैं कतार में,
राशन के लिए माता बहनें हैं खड़ी।
विपदा की इस घड़ी में देखो,
पुरुष की आत्मपूर्ति के समक्ष
संवेदनाएँ जैसे धूमिल हुई पड़ी।
अमृत रस है न जाने ये कैसा ?
मद की चाहत हुई है सर्वोपरि।
पलभर का धैर्य नहीं देखो इनको,
स्वहित हो गया परिवार से श्रेष्ठ।
शराब से दूर ये रह नहीं सकते
खो रहा आत्मसंयम वह कैसे ?
चावल,दाल,रोटी की जरुरत
से क्या है यह अधिक जरुरी?
मदिरा पान कर सेहत से खेलना ,
मदहोश हो परिवार की शांति हर लेना।
धन की कमी कहाँ है देखो ?
मन पर संयम खो बैठा है वह तो।
सुख दुःख में मदिरा पान कर
मानवता की सीमा लांघ रहा वो।
एक बूँद की तलब ऐसी भी क्या?
मानसिक संतुलन जैसे खो बैठा।
वीरों की वीरता को देखो,
देशहित कर्म करना कुछ सीखो।
तुम परिवार व समाज हित के
दायित्वों को ही निभा लो।
इंसान हो गर प्रथम तुम
इंसानियत को ही संभालो।
जीवन अपनों के लिए देकर
सद्कर्म का राह अपना लो।
https://www.facebook.com/100002416128739/posts/2943750089048833/?flite=scwspnss&extid=hbuVWjmxFmig0LLp






Thursday, April 30, 2020

A Story

निःशब्द

🙏
जाने -अनजाने में गुनाह कर बैठे हैं शायद,
वरना सज़ा का हकदार यूँ हर कोई न होता।
  💐🙏                   
कल निःशब्द था मैं,आज भी निःशब्द है इंसान
दुःख की इस घड़ी में स्तब्ध खड़ा है हिन्दुस्तान।
🙏☺️

Wednesday, April 29, 2020

सांंसों की गिनती


वक्त के साथ साथ ही,
लम्हों की गिनती कम होने लगी।
मंजिल से पहले ही यहाँ
राह लम्बी, धुंधली सी लगने लगी।
क्या जाने कब धूल,
दिल दर्पण पर गहरे होते गए।
अपने ही चेहरे आइने में
क्यों अपरिचित से लगने लगे?
मन को आशा थी चाहत की,
आँधियों में भी चिराग जलाए रखे।
बहते आँसुओं की दाँसता,
मन के कोने में ही दफ़नाए रखे।
साँसों की डोर से पहले
रिश्तों की डोर कमजोर होने लगी।
जिंदगी से पहले यहां,
सांसों की गिनती कम होने लगी।






Saturday, April 25, 2020

जीतेंगे कल

विश्वास का दीप जलाता चल
आशा के पर से उड़ान भर।
नव सूर्य उदय होगा फिर कल
मन के तम को हराता चल।
जो आज है बन जाएगा कल
कठिन हो या हो चाहे सरल।
वक्त कभी न ठहरा है पलभर
फिर गम न कर यूँ रह रहकर।
धैर्य,प्रेम,परोपकार,विवेक से
हारेगा कोरोना,जीतेंगे हम कल।

Friday, April 10, 2020

कैसा संदेश


लाकडाउन है हर
गाँव-शहर डगर।
ऐसे में प्रातः
सुनाई दे गया,
काक का स्वर
न जाने देता है प्रतिदिन
हमें कैसा संदेश?
किस आगंतुक की
है सूचना दे रहा?
'कोरोना' भय या कोई
खुशी का संकेत।
नित सवेरे सन्नाटे में
पक्षियों का स्वर
स्पष्ट है सुनाई दे रहा।
स्वतंत्र होकर पक्षीवृंद
इक संदेश हैं दे रहे,
झकझोर कर कह रहे।
महसूस कर हे मानव!
स्वर्ण पिंजर का दर्द।
दीवारें हों जैसी भी
ईंट या लोहे की होंं,
या हो कुंठित विचारों की
हृदय की टीस समान
चाहे वो जीव हो कोई भी।





Friday, April 3, 2020

मैं दीप

मैं दीप हूँ,
मैं रोशनी हूँ।
तम को दूर कर,
मन में विश्वास भर।
औरों के जीवन को
प्रकाशित हूँ करती।
मैं दीप हूँ,
मैं रोशनी हूँ।
ना मैं मुश्लिम,ना हिन्दू
मैं आशा को
प्रज्ज्वलित करती।
उल्लास लिए,
जन-जन में
चेतना भरती।
मैं दीप हूँ,
मैं रोशनी हूँ।
जब अंधकार हो
चहुँ ओर घना,
तब प्रकाश का
चादर फैलाकर
दामन में हूँ लेती।
मैं दीप हूँ,
मैं रोशनी हूँ।



Thursday, April 2, 2020

सुप्रभात 🙏


 🙏😊
आओ करें प्रातः सूर्य नमन,
फिर करें कोरोना का दमन।
योग-वंदन कर बढ़ाएँ कदम,
संकल्प, संयम से जीतेंंगे हम।

#सुप्रभात 😊

ना होना मायूस कभी भी,
रुकती नहीं है जिंदगी यहाँ।
कर सको तो करो मोहब्बत,
करो ना कभी नफ़रत यहाँ।
वक्त पर भी कुछ छोड़ा करो
करता है सही फैसला यहाँ।
रिश्तों की डोर गर थाम लो
हरपल गुज़रेगा हँसकर यहाँ।
😊

Saturday, March 28, 2020

दिल से


 😊
ना होना मायूस कभी भी,
रुकती नहीं है जिंदगी यहाँ।
कर सको तो करो मोहब्बत,
करो ना कभी नफ़रत यहाँ।
वक्त पर भी कुछ छोड़ा करो
करता है सही फैसला यहाँ।
रिश्तों की डोर गर थाम लो
हरपल गुज़रेगा हँसकर यहाँ।
😊💐

देश के घर घर में देखो,
परिवार संग उत्सव हो रहे।
योग साधना ,वार्तालाप कर
प्रेम समारोह हैं कर रहे।
छप्पन भोग न सही पर
सात्विक आहार हैं कर रहे ।
स्वास्थ्य आपदा की जंग
मिल जुलकर हैं लड़ रहे।
🙏😊


सन्नाटे पड़े हुए
सड़कों की तस्वीर देख,
खौफ़ सी मन में उठ रही।
किसकी नज़र लग गई,
मानव जाति को।
पक्षी भी छुप गए,
किलकारी भी नहीं।
पुरानी तस्वीरें ही दे रहीं,
थोड़ी सी राहत
इस दिले नादान को।





Monday, March 23, 2020

कोरोना

रास्ते आज तन्हाँ हो गए
बिन राहगीर व मंजिल के।
क्या ख़बर थी कि
वक्त ऐसा भी आएगा।
हम बुद्धिजीवियों को,
कोरोना ही समझा पाएगा।
खामोश हर सड़क, फुटपाथ
गली ,मुहल्ला व शहर
इक पल में अकेला हो जाएगा।
आज इन्साँ को, इन्साँ का
कद्र समझ में शायद आएगा।
एकांत में रहकर ज़रा सोचना
अब ज़िदगी की अपनी दास्ताँँ।
              .......अर्चना सिंह जया

Wednesday, March 18, 2020

सदकर्म ही जीवन

पानी का कोई रंग नहीं,
पवन का कोई धर्म नहीं।
भूख की कोई मज़हब नहीं,
रोटी की कोई जाति नहीं।
सूर्य की किरणों से सीखो,
चाँद की चाँदनी को देखो।
राह दर्शाती जन-जन को,
रौशन करती जनमन को।
ढाई आखर प्रेम-कर्म ही,
है मानवता का धर्म यही।
नदी की सरलता तो देखो,
सागर की गहराई को समझो
नित सीखो आगे बढ़ना ।
जीवन सार्थक बनाकर,
चल सदकर्म के राह पर।
सदाचार व परोपकार से
प्राप्त जीवन को थन्य बना।

विचार अभिव्यक्ति

😊💐
फिक्र न कर हार जीत की
बस जुटकर प्रयास कर।
अपना भी दिन आएगा ,
बस उस पर विश्वास कर।
💐
उम्र गुजर रही है चाहत लिए हुए,
ढ़लता सूरज देख आस हुई मंद।
नफ़रत के लिए वक्त कहाँ अब?
जीवन सफ़र में कुछ तो रंग भर।
🎈😊

तेरे घर व रिश्तों को अपना समझ लिया।
पर इकपल में मुझे, पराया यूँ कर दिया?

🎉🎈

परिवार का साथ न छोड़ना यूँ कभी,
खुशियाँ है रहती इनके साये में यहीं।
वरना साया कब, साथ छोड़ जाएगा,
इसकी भी खबर न लगेगी  कभी तुम्हें।

Monday, March 9, 2020

गुलाल संग

 गुलाल संग

आओ चलो
फागुन का आनंद लें।
इस होली फिर
जीवन में रंग भरें।.
संग गुलाल के
रंग प्रेम का,
रंग खुशियों का,
अपनी झोली में भर लें।
तन मन में
रंग गीत का,
रंग मीत का,
फाग गाकर झूम लें।
गुलाल मल दे
बैर भूलकर,
बिन पानी के भी
चल हो लेंं गीले,
स्नेह रस जो गर पी लेंं।
रंगों का यह पर्व,
सदा लुभाता है हमें।
लाल,हरा, गुलाबी या
पीला हो गुलाल,
रंग भेद है दूर कर
प्रेम रंग से होते निहाल।
लाल,हरी,पीली,
नीली है हो - ली,
धरा फिर इस होली।
गुलाल संग आ,
चल खेलें होली।

            ......अर्चना सिंह जया

Sunday, March 8, 2020

नारी तू सशक्त है 💐

नारी तू सशक्त है [ कविता ]

             
नारी तू सशक्त है।
बताने की न तो आवश्यकता है
न विचार विमर्श की है गुंजाइश।
निर्बल तो वह स्वयं है,
जो तेरे सबल होने से है भयभीत।
नारी तू सशक्त है
धर्म-अधर्म की क्या कहें?
स्त्री धर्म की बातें ज्ञानी हैं बताते
पुरुष धर्म की चर्चा कहीं,
होती नहीं कभी अभिव्यक्त है।
नारी तू सशक्त है।
देवी को पूजते घरों में,
पर उपेक्षित होती रही फिर भी।
मान प्रतिष्ठा है धरोहर तेरी,
अस्तित्व को मिटाती औरों के लिए
नारी तू सशक्त है /
तू ही शारदा ,तू लक्ष्मी,तू ही काली
धरा पर तुझ-सी नहीं कामिनी।
तेरे से ही सृष्टि होती पूर्ण यहाॅं,
भू तो गर्व करता रहेगा सदा।
नारी तू सशक्त रही
और तू सशक्त है सदा।
      ...... अर्चना सिंह जया
Happy Womens Day💐😊

Saturday, February 1, 2020

रिश्तों के खुशबू

वक्त आज क्या से क्या
देखो है हो चला।
ओहदे बढ़ते गए और
दिल सिमट सा गया।
मकान छोटे से बड़ा
और भी बड़ा
धीरे धीरे होता गया।
पर घर के सदस्य
न जाने कब कम
 होते चले गए।
कमरे दो से चार हुए,
पर अपनोंं के लिए जगह
फिर भी न निकाल पाए।
 सिमटते गए रिश्ते
और उलझने बढ़ती गई।
जीवन में रंग न भर पाए
अपने व औरों के कभी।
दीवारों की भी रंगत
फीकी पड़ती गई।
बदल बदल कर
 दिवाली पर पुताई करवाई।
फिर भी रिश्तों के रंग
गहरे ना हो फीके पड़ते गए।
ठहाके गूँजते थे कभी,
खामोशियों ने डाला है वहाँ डेरा।
वो घर धीरे धीरे कब
मकानों में तबदील हो गए?
रिश्तों के ताना बाना
शनैः शनैः उधडते ही गए।
लाख जतन कर भी
रिश्तों के खुशबू उड़ से गए।





Thursday, January 30, 2020

जय माँ शारदा प्रार्थना

जय माॅं शारदा! [प्रार्थना]


जय माॅं शारदा।
हे माॅं! वागेश्वरी
विद्या-बुद्धि दायनी
चरणों में अर्पित पुष्प नमन।
कर जोड करते वंदना हम।
हे माॅं! वीणापाणी
जय माॅं शारदा।
मुख पर तेज ज्ञान का
सद्भावना की करे हम याचना।
अज्ञानता दूर की है प्रार्थना।
हे माॅं! महाश्वेता
जय माॅं शारदा।
पद्मासना विराजती
शत्-शत् करते उपासना।
प्रातः सदैव करते आराधना।
हे माॅं! हंसवाहिनी,
जय माॅं शारदा!
ज्ञान ज्योति के प्रसार से,
सुगम पथ हमारा करना।
आशीष की कृपा कर देना।
बसंत पंचमी के पावन पर्व पर,
हे माॅं! सरस्वती आशीष देकर,
दामन खुशियों से भर देना।
                   ............ अर्चना सिंह जया

Sunday, January 26, 2020

हमारा देश

जल,थल,नभ में देखो
आज तिरंगा है, लहराया।
भाईचारे व विभिन्नता में
फिर से है, एकता दर्शाया।
भिन्न-भिन्न हैं रंग जहाँ 
भिन्न-भिन्न यहाँ हैं बोलियाँ।
शहीदों के समक्ष सदा
नत मस्तक होता है जहाँ।
वो देश है हिन्दुस्तान 
जिस पर रहता नाज़ सदा।
गगन धरा भी गुनगुना उठी
जय हिंंद, जय हिंद का गानकर।
आओ देश का सम्मान करें
संविधान, तिरंगा का मान रख।
उदार मन है धरती का
अंबर सा हृदय है जिसका।
आन,बान व शान 
है हमारे देश के गणतंत्र का।

Monday, January 13, 2020

उत्सव,उल्लास है लाया कविता

उत्सव, उल्लास है लाया [ कविता ]

 पर्व ,उत्सव है सदा मन को भाता
 ‘खेती पर्व’ संग उल्लास है लाता।
 कृषकों का मन पुलकित हो गाया,
 ‘‘खेतों में हरियाली आई,
 पीली सरसों देखो लहराई।
 खरीफ फसल पकने को आयी,
 सबके दिलों में है खुशियाॅं छाई ।’’
 नववर्ष का देख हो गया आगमन,
 पंजाब,हरियाणा,केरल,बंगाल,असम।
 पवित्र स्नान कर, देव को नमन
 अग्नि में कर समर्पित,नए अन्न।
 चहुॅंदिश पर्व की हुई हलचल।
 लोहड़ी मना गिद्दा-भांगड़ा कर।
 पैला, बीहू, सरहुल, ओणम, पोंगल
 एक दूसरे के रंग में रंगता चल।
 अभिन्न अंग हैं ये सब जीवन के,
 तिल के लड्ड़ू , चिवड़ा-गुड़ खाकर
 बैसाखी, संक्रांत का पर्व मनाकर।
 पतंगों की डोर ले थाम हाथ में
 बादलों को चल आएॅं छूकर ।
 रीति-रिवाज ,संस्कृति जोड़ कर
 प्रेम, एकता, सद्भावना जगा कर।
 दिलों को दिलों से जोड़ने आया,
 त्योहार अपने संग उल्लास है लाया।  
         
               ------------- अर्चना सिंह‘जया’

Saturday, January 11, 2020

10 JAN विश्व हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ।

                 हिंदी हैं हम

देवनागरी लिपि है हम सब का अभिमान,
हिन्दी भाषी का आगे बढ़कर करो सम्मान। 
बंद दीवारों में ही न करना इस पर विचार,
घर द्वार से बाहर भी कायम करने दो अधिकार।

कोकिला-सी मधुर है, मिश्री-सी हिन्दी बोली,
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सबकी हमजोली।
भिन्नता में भी है, यह एकता दर्शाती,
लाखों करोंड़ों भारतीय दिलों में है,जगह बनाती। 

दोहा, कविता, कहानी, उपन्यास, छंद,
हिन्दी भाषी कर लो अपनी आवाज बुलंद। 
स्वर-व्यंजन की सुंदर यह वर्णशाला,
सुर संगम-सी मनोरम होती वर्णमाला। 

निराला, दिनकर, गुप्त, पंत, सुमन,
जिनसे महका है, हिन्दी का शोभित चमन। 
आओ तुम करो समर्पित अपना तन मन, 
सींचो बगिया, चहक उठे हिन्दी से अपना वतन। 

                                                                                                             ----- अर्चना सिंह जया
                                          [ 12 सितम्बर 2009 राष्ट्रीय सहारा ‘जेन-एक्स’ में प्रकाशित ]

Wednesday, January 1, 2020

नव वर्ष का स्वागत

क्या छोड़ चलें,
क्या साथ ले चलें
गत वर्ष से कुछ
मीठी यादें समेंट चलें।
प्रेम,स्नेह,मुस्कान की
 थाल सजाकर ,
नव वर्ष आगंतुक का
 चल स्वागत करें ।
नव संकल्प लें औ
 कुविचार त्याग चलें
रिश्तों के संग सुनहरे
 सपने पिरो चलें ।
निराशा को आशा में
तबदील कर चलें।
जीवन गुलिस्ताँ
पुषपों से महका चलें।