मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है,
फिर भी तुम्हें न जाने क्यूं
अपनी मोहब्बत से इंकार है।
न चाहते हुए भी स्वदेश से हुई दूर ।
जिंदगी दी थी जिन्होंने,
उन्हें ही छोड़ने को हुई मजबूर।
मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।
जिस आत्मनिर्भरता को देख हुए थे अभिभूत
नृत्य कला को छोड़ने को हो गई तैयार।
दफ़न कर दिया अपनी आकांक्षाओं को,
चल दी साथ तुम्हारे, अपने दिल को थाम।
तुम्हारे स्वप्नों में भरने लगी रंग,
खुद के परों को समेटे हुए, हुई तुम्हारे संग।
अब बहुत निभा ली कसमें वादे,
बेटी को जन्म देकर उसकी बनूंगी आभारी।
माना चाहत तुम्हें थी बेटे की,
पर मां बनने की वर्षों से थी चाहत हमारी।
जन्म से पूर्व ही नहीं कर सकती हत्या,
तुम क्या जानो इक औरत की व्यथा।
इक दिवानगी वो थी कभी तुम्हारी,
हाथों में लिए फूल बारिश में भी आते थे।
और इक दिवानगी ये कैसी कि
कांटे चुभा हमें बेबस- बेघर किए।
आज तुम्हारे इस प्रस्ताव से मुझे इंकार है,
मेरी मोहब्बत नहीं है कमज़ोरी।
बस किस्मत से लड़ कर जीतने की,
कुछ आदत सदा रही है पुरानी।
अब मैं नहीं दोहरा पाऊंगी कि
'मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।'
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