क्यूँ जीवन सफर में मजदूर,
इतने मजबूर आज हुए।
जिस शहर को आए थे कभी,
वहीं से वे भूखे- बेघर हुए।
मशीनें जहाँ उनकी राह देखती थीं,
चूल्हे से धुआँ उठा करती थींं।
पेट की तृष्णा कम हो जाया करती,
परिवार को दो वक्त की रोटी,
कभी यहाँ मिल जाया करती थी।
फिर कैसी हुई लाचारी,
कोरोना की छाई महामारी।
जिस राज्य ने थामे थे हाथ कभी,
आज मझधार में अकेला छोड़ दिए।
क्यूँ जीवन सफर में मजदूर मजबूर हुए।
पटरी, सड़क चल दिए नंगे पग,
गाँव की ओर आज रुख हैं किए।
तप्ती धूप, रिक्त हाथ, छाले पैरों तले
उम्मीद की गठरी कांधों पर ,
जिंदगी तलाशते अपनों के लिए।
वही शहर, गली, मुहल्ला आज
अजनबी बन गया है जाने कैसे ?
स्वदेश में रहकर भी असहाय,
प्रवासी का जिन्हें नाम दिया।
पल में पराया किया वहाँ,
जहाँ खून को पानी उसने किया ।
जिस राज्य को सर्वस्व सौंपा,
पलभर में वहींं क्यों बेगाना हुआ?
माँ है कि पेट दबाए बैठी,
बच्चों की नम आँखें जैसे हों कहतींं।
'बाबा चार दिन बीत गए हैं सोचो,
भूख से बहना बिलखती है देखो।'
चलो गाँव की ओर चले हम,
पुरखों की जम़ीन से नाता पक्का।
अपनी माटी का घर वह कच्चा,
खेत खलिहान को लौट चलें अब।
पहचान नहीं रही अब अपनी देखो
राशन समाप्त हो चुका है अब तो,
साइकिल,रिक्शा, ठेले पर या पैदल ही चल।
दिल भर आता है दर्द सुनकर यारा,
मजदूर से है गाँव ,शहर,देश हमारा
फिर क्यों मजबूर हुआ है मजदूर बेचारा?
इतने मजबूर आज हुए।
जिस शहर को आए थे कभी,
वहीं से वे भूखे- बेघर हुए।
मशीनें जहाँ उनकी राह देखती थीं,
चूल्हे से धुआँ उठा करती थींं।
पेट की तृष्णा कम हो जाया करती,
परिवार को दो वक्त की रोटी,
कभी यहाँ मिल जाया करती थी।
फिर कैसी हुई लाचारी,
कोरोना की छाई महामारी।
जिस राज्य ने थामे थे हाथ कभी,
आज मझधार में अकेला छोड़ दिए।
क्यूँ जीवन सफर में मजदूर मजबूर हुए।
पटरी, सड़क चल दिए नंगे पग,
गाँव की ओर आज रुख हैं किए।
तप्ती धूप, रिक्त हाथ, छाले पैरों तले
उम्मीद की गठरी कांधों पर ,
जिंदगी तलाशते अपनों के लिए।
वही शहर, गली, मुहल्ला आज
अजनबी बन गया है जाने कैसे ?
स्वदेश में रहकर भी असहाय,
प्रवासी का जिन्हें नाम दिया।
पल में पराया किया वहाँ,
जहाँ खून को पानी उसने किया ।
जिस राज्य को सर्वस्व सौंपा,
पलभर में वहींं क्यों बेगाना हुआ?
माँ है कि पेट दबाए बैठी,
बच्चों की नम आँखें जैसे हों कहतींं।
'बाबा चार दिन बीत गए हैं सोचो,
भूख से बहना बिलखती है देखो।'
चलो गाँव की ओर चले हम,
पुरखों की जम़ीन से नाता पक्का।
अपनी माटी का घर वह कच्चा,
खेत खलिहान को लौट चलें अब।
पहचान नहीं रही अब अपनी देखो
राशन समाप्त हो चुका है अब तो,
साइकिल,रिक्शा, ठेले पर या पैदल ही चल।
दिल भर आता है दर्द सुनकर यारा,
मजदूर से है गाँव ,शहर,देश हमारा
फिर क्यों मजबूर हुआ है मजदूर बेचारा?