आज सुबह से उठकर मेरा मन कुछ अनमना -सा हो रहा था। जैसे-तैसे कर मैंने पति के लिए नाश्ता बनाकर डिब्बे में रख दिया। पति के ऑफिस चले जाने के पश्चात् मैंने अपनी सखी के घर पर फोन किया ,‘हेलो! कामवाली आई है क्या ?’ नम्रता ने कहा ,‘ हॉं, बस अभी ही आई है। कुछ उदास लग रही है।’ ‘अच्छा ! चलो उससे कहना कि मेरा काम जरा पहले कर दे।’ मैंने ऐसा कहते हुए फोन रख दिया । नहा धोकर पहले नाश्ता करने बैठ गई। नाश्ता कर दवा ली और चाय पीने की तलब़ होने लगी कि तभी कॉलबेल बजी।
दरवाजे को खोला तो देखा कि अम्मा सामने खड़ी थी। मैंने कहा,‘अम्मा , चाय पीने की इच्छा हो रही है जरा बना दो ना ,अपने लिए भी बना लेना।’ इतना कह कर मैं बिस्तर पर लेट गई। मैं अब आ गई हॅूं न तुम परेशान ना हो ,दीदी । फिर अम्मा चाय बनाने चल दी। अम्मा ने कहा,‘ आजके आमर बूढ़ा शोरिर टा भालो नेई। सेई जोन्ने मोन टा एकटू भालो नेई।’ दीदी तुम्हारे संग बात कर ही मेरा मन हल्का होता है, तुम ही हो जो मेरी बात समझती हो । हॉं, रेणू का ये कहना बिल्कुल सही था , उसकी बंगाली भाषा मुझे ही समझ आती थी। वो कह रही थी कि उसके बूढ़े की तबीयत ठीक नहीं है। मैंने कहा कि चिंता मत कर सब ठीक हो जाएगा। चाय और रोटी लेकर यहीं पंखे के नीचे आ जा।
अम्मा की उम्र साठ वर्ष के आस-पास की थी ,बेटे बहु वाली थी। उसकी शादी दस वर्ष की थी तब हुई थी। तीन बच्चे भी हुए किन्तु जब उसका तीसरा बेटा हुआ तो पति ने दूसरी शादी कर ली और शराब पीने की लत भी उसी समय से तीव्र हो गई। कोई भी उसे रोक पाने में असमर्थ था । पुरुष को तो गलती करने की जैसे पूर्ण स्वतंत्रता है,अगर स्त्री करे तो संस्कार हीन कहलाएगी। दूसरी शादी से भी उसके दो बच्चे हुए। समय गुजरता गया ,बच्चे सभी बड़े होते गए। बच्चों की भी शादी वगैरह हो गई। उम्र के साथ बूढ़ा कमज़ोर और बीमार रहने लगा। ऐसी स्थिति में अम्मा ने ही उसे संभाला उसकी देख रेख की, दवा-दारु का भी प्रबंध किया। न जाने अम्मा को ही इतनी चिंता क्यों रहती है और दूसरी पत्नी भी तो है। अम्मा तो जी जान से उसकी देखरेख करती। एक दिन अम्मा बीमार अवस्था में ही काम पर आ गई ।
मैंने गुस्से में कहा,‘ अम्मा तुम्हें आज आने की क्या जरुरत थी।’
दीदी पैसे जमा करने हैं पति का इलाज़ करवाना है।
मैंने कहा, ‘बूढ़ा के बेटा बहु भी तो हैं और उसकी दूसरी पत्नी भी। अम्मा तू ही इतनी चिंता क्यों करती है?’
‘मैं अपना धर्म निभा रही हूॅं दीदी ईश्वर को मुॅंह भी तो दिखाना है।’
मैंने कहा,‘अच्छा धर्म का ख्याल बूढ़े को उस वक्त क्यों नहीं आया जब तुम्हारे रहते उसने दूसरी शादी की?’
‘जाने दो दीदी मैं अपना धर्म निभा रही हूॅं। मेरा पत्नी धर्म ये ही है।’
‘मैं नहीं मानती रेणू तू बहुत ही भोली है। ये रेणू धर्म है,सभी पर लागू नहीं होता।’ मैंने जरा क्रोध में कहा। चल अब चपाती संग चाय पी कर फिर काम करना। ‘पुरुष प्रधान समाज में रहने का अर्थ ये नहीं होता रेणू ,ईश्वर की दृष्टि में सभी एक हैं वो है मानव धर्म ।’ मैं ऐसा कहते हुए उसके हाथ पर दवा रख दी। सारे दिन रेणू के विषय में ही सोचती रही । आखिर क्यों पत्नी धर्म की दुहाई दी जाती है ,पति धर्म की नहीं ?
- --------- अर्चना सिंह ‘जया’
दरवाजे को खोला तो देखा कि अम्मा सामने खड़ी थी। मैंने कहा,‘अम्मा , चाय पीने की इच्छा हो रही है जरा बना दो ना ,अपने लिए भी बना लेना।’ इतना कह कर मैं बिस्तर पर लेट गई। मैं अब आ गई हॅूं न तुम परेशान ना हो ,दीदी । फिर अम्मा चाय बनाने चल दी। अम्मा ने कहा,‘ आजके आमर बूढ़ा शोरिर टा भालो नेई। सेई जोन्ने मोन टा एकटू भालो नेई।’ दीदी तुम्हारे संग बात कर ही मेरा मन हल्का होता है, तुम ही हो जो मेरी बात समझती हो । हॉं, रेणू का ये कहना बिल्कुल सही था , उसकी बंगाली भाषा मुझे ही समझ आती थी। वो कह रही थी कि उसके बूढ़े की तबीयत ठीक नहीं है। मैंने कहा कि चिंता मत कर सब ठीक हो जाएगा। चाय और रोटी लेकर यहीं पंखे के नीचे आ जा।
अम्मा की उम्र साठ वर्ष के आस-पास की थी ,बेटे बहु वाली थी। उसकी शादी दस वर्ष की थी तब हुई थी। तीन बच्चे भी हुए किन्तु जब उसका तीसरा बेटा हुआ तो पति ने दूसरी शादी कर ली और शराब पीने की लत भी उसी समय से तीव्र हो गई। कोई भी उसे रोक पाने में असमर्थ था । पुरुष को तो गलती करने की जैसे पूर्ण स्वतंत्रता है,अगर स्त्री करे तो संस्कार हीन कहलाएगी। दूसरी शादी से भी उसके दो बच्चे हुए। समय गुजरता गया ,बच्चे सभी बड़े होते गए। बच्चों की भी शादी वगैरह हो गई। उम्र के साथ बूढ़ा कमज़ोर और बीमार रहने लगा। ऐसी स्थिति में अम्मा ने ही उसे संभाला उसकी देख रेख की, दवा-दारु का भी प्रबंध किया। न जाने अम्मा को ही इतनी चिंता क्यों रहती है और दूसरी पत्नी भी तो है। अम्मा तो जी जान से उसकी देखरेख करती। एक दिन अम्मा बीमार अवस्था में ही काम पर आ गई ।
मैंने गुस्से में कहा,‘ अम्मा तुम्हें आज आने की क्या जरुरत थी।’
दीदी पैसे जमा करने हैं पति का इलाज़ करवाना है।
मैंने कहा, ‘बूढ़ा के बेटा बहु भी तो हैं और उसकी दूसरी पत्नी भी। अम्मा तू ही इतनी चिंता क्यों करती है?’
‘मैं अपना धर्म निभा रही हूॅं दीदी ईश्वर को मुॅंह भी तो दिखाना है।’
मैंने कहा,‘अच्छा धर्म का ख्याल बूढ़े को उस वक्त क्यों नहीं आया जब तुम्हारे रहते उसने दूसरी शादी की?’
‘जाने दो दीदी मैं अपना धर्म निभा रही हूॅं। मेरा पत्नी धर्म ये ही है।’
‘मैं नहीं मानती रेणू तू बहुत ही भोली है। ये रेणू धर्म है,सभी पर लागू नहीं होता।’ मैंने जरा क्रोध में कहा। चल अब चपाती संग चाय पी कर फिर काम करना। ‘पुरुष प्रधान समाज में रहने का अर्थ ये नहीं होता रेणू ,ईश्वर की दृष्टि में सभी एक हैं वो है मानव धर्म ।’ मैं ऐसा कहते हुए उसके हाथ पर दवा रख दी। सारे दिन रेणू के विषय में ही सोचती रही । आखिर क्यों पत्नी धर्म की दुहाई दी जाती है ,पति धर्म की नहीं ?
- --------- अर्चना सिंह ‘जया’