शैशव की नन्ही अभिलाषा
लेती सुंदर पंख पसार,
चाह की न सीमा है फिर भी
न लिया कोई ऋण उधार।
डग मग पग और नन्हें कर से
छूने चले हैं नभ विशाल,
मन की पीड़ा लुप्त होती जब
किलकारी से आँगन होता निहाल।
बचपन की सच्ची राह हुई विलिन,
युवावस्था राह दिखाती,
पेट की तृृष्णा नम पड़ती तो,
मन की अभिलाषा पंख पसारती।
तन- मन विचलित हो जाता
इच्छाएँ न थमने को आती,
ऋण के बोझ तले दबकर भी
मन की क्षुधा न तृृप्त हो पाती।
बाध्य हुए हम गलत दिशा को
फिर अच्छी सोच कहाँ समझ आती,
बचपन की नन्ही भूख दहक कर,
न जाने कब विक्राल अभिलाषा बन जाती।
----------- अर्चना सिंह ‘जया’
अक्टूबर माह के गुंजन पत्रिका में इंदौर से 2015 में प्रकाशित हो चुकी है /
लेती सुंदर पंख पसार,
चाह की न सीमा है फिर भी
न लिया कोई ऋण उधार।
डग मग पग और नन्हें कर से
छूने चले हैं नभ विशाल,
मन की पीड़ा लुप्त होती जब
किलकारी से आँगन होता निहाल।
बचपन की सच्ची राह हुई विलिन,
युवावस्था राह दिखाती,
पेट की तृृष्णा नम पड़ती तो,
मन की अभिलाषा पंख पसारती।
तन- मन विचलित हो जाता
इच्छाएँ न थमने को आती,
ऋण के बोझ तले दबकर भी
मन की क्षुधा न तृृप्त हो पाती।
बाध्य हुए हम गलत दिशा को
फिर अच्छी सोच कहाँ समझ आती,
बचपन की नन्ही भूख दहक कर,
न जाने कब विक्राल अभिलाषा बन जाती।
----------- अर्चना सिंह ‘जया’
अक्टूबर माह के गुंजन पत्रिका में इंदौर से 2015 में प्रकाशित हो चुकी है /
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