Friday, November 18, 2016

बचपन ( कविता )


बचपन के वो दिन  थे
पिता का था वो उपवन।
रात की रानी से महकता था,
बाबुल का घर-ऑंगन।
पवन के झोंके से, खुशबू
छू जाती थी तन-मन।
नन्हें फूलों को देख जमीं पर,
खिल उठता था चितवन।
भोर ही में मैं उठकर
फ्राक में चुन उन पुष्पों को,
मॉं के ऑंचल में देती डाल।
फिर धागों में पिरोकर,
बालों में मेरे सजोकर,
अपनी ऑंखें नम कर कहती,
‘‘तेरे जाने के पश्चात्
कौन स्नेह बिखेरेगा,ऑंचल में ?
हमारी खुशियॉ और खुशबू
ले जायेगी अपने संग में।’’
सुनकर मॉं की बातें मैं मुस्काती
फिर इठलाकर दौड़ लगाती।
नासमझी थी, वो कैसी मेरी ?
सच्चाई से अबोध, सखी री
जग से बेगानी हो हॅंस देती,
तितली के पीछे दौड़ती-भागती।
बचपन निकल गया इक पल में
आज पराई हो गई लाडो।
बाबुल का आंगन है छूटा,
बदल गया अब मेरा खॅूंटा।
जिंदगी खेलती अब ऑंख मिचौनी
बदल चुकी है मेरी कहानी।
मॉं का स्नेह है हमें सताता,
वो प्यारा बचपन ही, है भाता।

      -------- अर्चना सिंह 'जया'

Monday, November 14, 2016

तुलिका और मैं.......


'बाल दिवस' की शुभ कामनाएँ।

Saturday, November 12, 2016

काश! जो हम भी बच्चे होते ( कविता )

 

काश! जो हम भी बच्चे होते
 प्यारे-प्यारे सच्चे होते,
 तितली जैसे रंग-बिरंगे
 सुंदर सुनहरे सपने,अपने होते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 आसमॉं में फिर उड़ जाते
 अरमानों के पंख फैलाए
 दामन ,इंद्रधनुष के रंग में रंगते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 रोटी-दाल की न चिंता करते
 टॉफी से ही भूख मिटाते
 रोते इंसानों को हॅंसाते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 हिंसा हम न यहॉं फैलाते
 प्यार, शिष्टाचार का पाठ सिखाते
 देश को अपना स्वर्ग बनाते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 दामन सबका स्नेह से भरते।

                             ------ अर्चना सिंह‘जया’

Friday, November 4, 2016

मातृभूमि ( कविता )

 

आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ वतन, तेरा सदा।
तेरी मिट्टी की खुशबू,
मॉं के ऑंचल में है छुपा।
कई लाल शहीद भी हुए,
फिर भी माताओं ने सपूत दिए।
निर्भय हो राष्ट् के लिए जिए
और शहीद हो वो अमर हुए।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा ।
धैर्य ,ईमानदारी,सत्यता, सहनशीलता
भू भाग से है हमें मिला।
खड़ा हिमालय उत्तर में धैर्यता से
धरा की थामें बाहें सदा।
अटल-अचल रहना समझाता
सहनशीलता वीरों को सिखलाता।
कठिनाई से न होना भयभीत
सत्य की हमेशा  होती है जीत।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा।
हिय विशाल है सागर का
दक्षिण में लहराता तन उसका।
नदियॉं दर्पण-सी बहती कल-कल
समतल भूभाग से वो प्रतिपल।
झरने पर्वत से गिरती चलती
जैसे बालाएॅं ,सखी संग हॅसती।
खेत,वन सुंदर है उपवन
भू के गर्भ में छुपा है कंचन।
प्रशंसा कितनी करु मैं तेरी?
भर आती अब ऑंखें मेरी।
विराट  ह्रदय  है मातृभूमि तेरा
सो गए वो यहॉं, जो प्रिय था मेरा।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि! हरदम हम तेरा ।      
 
                                 ______  अर्चना सिंह‘जया’
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