Friday, November 18, 2016

बचपन ( कविता )


बचपन के वो दिन  थे
पिता का था वो उपवन।
रात की रानी से महकता था,
बाबुल का घर-ऑंगन।
पवन के झोंके से, खुशबू
छू जाती थी तन-मन।
नन्हें फूलों को देख जमीं पर,
खिल उठता था चितवन।
भोर ही में मैं उठकर
फ्राक में चुन उन पुष्पों को,
मॉं के ऑंचल में देती डाल।
फिर धागों में पिरोकर,
बालों में मेरे सजोकर,
अपनी ऑंखें नम कर कहती,
‘‘तेरे जाने के पश्चात्
कौन स्नेह बिखेरेगा,ऑंचल में ?
हमारी खुशियॉ और खुशबू
ले जायेगी अपने संग में।’’
सुनकर मॉं की बातें मैं मुस्काती
फिर इठलाकर दौड़ लगाती।
नासमझी थी, वो कैसी मेरी ?
सच्चाई से अबोध, सखी री
जग से बेगानी हो हॅंस देती,
तितली के पीछे दौड़ती-भागती।
बचपन निकल गया इक पल में
आज पराई हो गई लाडो।
बाबुल का आंगन है छूटा,
बदल गया अब मेरा खॅूंटा।
जिंदगी खेलती अब ऑंख मिचौनी
बदल चुकी है मेरी कहानी।
मॉं का स्नेह है हमें सताता,
वो प्यारा बचपन ही, है भाता।

      -------- अर्चना सिंह 'जया'

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