वक्त आज क्या से क्या
देखो है हो चला।
ओहदे बढ़ते गए और
दिल सिमट सा गया।
मकान छोटे से बड़ा
और भी बड़ा
धीरे धीरे होता गया।
पर घर के सदस्य
न जाने कब कम
होते चले गए।
कमरे दो से चार हुए,
पर अपनोंं के लिए जगह
फिर भी न निकाल पाए।
सिमटते गए रिश्ते
और उलझने बढ़ती गई।
जीवन में रंग न भर पाए
अपने व औरों के कभी।
दीवारों की भी रंगत
फीकी पड़ती गई।
बदल बदल कर
दिवाली पर पुताई करवाई।
फिर भी रिश्तों के रंग
गहरे ना हो फीके पड़ते गए।
ठहाके गूँजते थे कभी,
खामोशियों ने डाला है वहाँ डेरा।
वो घर धीरे धीरे कब
मकानों में तबदील हो गए?
रिश्तों के ताना बाना
शनैः शनैः उधडते ही गए।
लाख जतन कर भी
रिश्तों के खुशबू उड़ से गए।
देखो है हो चला।
ओहदे बढ़ते गए और
दिल सिमट सा गया।
मकान छोटे से बड़ा
और भी बड़ा
धीरे धीरे होता गया।
पर घर के सदस्य
न जाने कब कम
होते चले गए।
कमरे दो से चार हुए,
पर अपनोंं के लिए जगह
फिर भी न निकाल पाए।
सिमटते गए रिश्ते
और उलझने बढ़ती गई।
जीवन में रंग न भर पाए
अपने व औरों के कभी।
दीवारों की भी रंगत
फीकी पड़ती गई।
बदल बदल कर
दिवाली पर पुताई करवाई।
फिर भी रिश्तों के रंग
गहरे ना हो फीके पड़ते गए।
ठहाके गूँजते थे कभी,
खामोशियों ने डाला है वहाँ डेरा।
वो घर धीरे धीरे कब
मकानों में तबदील हो गए?
रिश्तों के ताना बाना
शनैः शनैः उधडते ही गए।
लाख जतन कर भी
रिश्तों के खुशबू उड़ से गए।
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