Tuesday, September 27, 2016

एक परिंदा ( कविता )


एक परिंदा छज्जे पर
न जाने कब आ बैठा ?
उसे देख मैं प्रफुल्लित होती
और सोचती
पर होते उसके जैसा।
कभी नील गगन उड़ जाती,
कभी फुनगी पर जा बैठती।
पर नहीं मिले हैं मुझको
पर मन तो सदा उड़ान है भरती।
उस परिंदे के पर सजीले
और स्वर है मिश्री बरसाती।
डाल-डाल पर फुदक बाग में,
मेरे मन को सदा लुभाती।
ईश्वर की अदभुत रचना देख,
बिटिया की चाहत है जगती।
थाम कर बाहों में उसको
कोमल स्पर्श से उसे लुभाती।
पर वो परिंदा, भयभीत हो मानव से
भाव मन के समझ उड जाती।
पिंजरे का वो नहीं है प्राणी,
क्षितिज की चाहत है उसकी भी।
पर न काट, हे मानव
पर ही तो होती है
पहचान 'एक परिंदे' की ।

                     -----------------अर्चना सिंह 'जया'

        [    'पर' शब्द का १० बार प्रयोग   ]


           


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