Monday, September 19, 2016

एक शाम (कविता )


पंछी भी मुख मोड़ चले
अपने नीड़ की ओर।
मैं खड़ी अटेरी पर
थामें  शाम की डोर।
मन व्याकुल हो चला
पी का कहॉं है ठौर ?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।
    पलकें रह-रह राह बुहारती
    कंगन भी करतें हैं शोर।
    कब ऑंखों की प्यास बुझेगी ?
    कब नाचेगा मन मोर ?
    ये एक शाम की बात नहीं
    नित मन होता भाव विभोर।
किस दिगंत आवाज लगाऊॅं ?
सुन ले ना कोई और
मन का पीर मन ही जाने
पिय न समझे,न कोई और
चार पहर है गुजर चुका
कब गूॅंजेगा मधुकर का शोर?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।                  
                       
                                         -------अर्चना सिंह जया    

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