Sunday, July 10, 2016

सोच को दो नई दिशा

.                                                              
             
              बेटी के लिए ही क्यों ? बेटों के लिए हमारी सोच बदलने की आवश्यकता है।

          शाम का वक्त मैं और मेरी सहेली ठंढी हवा का आनंद ले रहे थे कि तभी सामने पार्क के झूले पर झूलती 12 वर्षीय बच्ची पर नजर पड़ी, जिसकी माँ तीव्र गति से उसकी ओर आई और दो थप्पड़ जड़ते हुए पूछा- 'इतनी देर हो गई है अभी तक खेल रही हो।'  बेटी ने रोते हुए प्रश्न किया, भईया भी तो खेल रहा है उसे तो नहीं डाँटती। विशाल ,कोमल हृदय वाली माँ ने उसे चुप की फट््कार लगाते हुए कहा ,'भईया से अपनी तुलना कर रही है।' माँ की  आवाज़  तीव्र  हुई --' राघव बेटा, एक घंटे में घर आ जाना पापा ने कहा है/' ये कहते हुए बिटिया को खींचती हुई ले गई।
                 समाज का वह शिक्षित वर्ग जिसने अपनी मानसिकता पर कभी प्रश्न नहीं किया। क्या हम स्वयं को शिक्षित कहने वाले लोग अपनी सोच में परिवर्त्तन ला पाएँ हैं? बालिकाओं पर हो रहे अत्याचार देश के लिए प्रश्नसूचक है। पुत्र या पुत्री दोनों ही समाज के अंग हैं,ऐसे में पुत्रों को स्वच्छंदता से विचरण करने की सोच को बढ़ावा देना उचित नहीं है। हमारे ही घर की बेटियाँ घर के बाहर सुबह हो या शाम असुरक्षित क्यों महसूस कर रहीं हैं? बेटों को देर रात तक बाहर रहने की आजादी किसने दी है? उन्हें भी समय से अवगत कराया जाए और असमय बाहर रहने की अनुमति न दी जाए। तब शायद हमारे ही घरों की बेटियों को डरने की जरुरत न पड़े। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से डरे यह तो  बुद्धिजीवी  कहलाने वाले मानव के लिए शर्म की बात है।  प्रकृति  के सभी कार्य नियम से हो रहे हैं फिर हम उन्हीं पशु पक्षियों से कुछ क्यों नहीं सीख रहे हैं?
                 आधुनिकता को अपनाएँ किन्तु अपने घरों के बेटों को समय-असमय, उचित-अनुचित, कुविचार- सुविचार के बीच के अंतर को समझाएँ। सुपुत्रों को शेर बनाने वालों वही शेर हमें ही हानि न पहुँचाए, इस पर विचार अवश्य करें। मुझे,आपको ,हमसब को अपनी सोच को नई दिशा देने पर विचार करने की अवश्यकता है।
               
                                                                                              ---अर्चना सिंह ‘जया’ 

No comments:

Post a Comment

Comment here