Friday, July 1, 2016

और जाऊँ वारि मैं ( कविता )

कुछ सुनहरी यादें हैं
पिता के आँगन की
जिन लम्हों में साथ मुस्कुराते थे।
सुख हो या दुःख हो ,                          
सहजता से सहा करते                                          खुलकर हँसते और हरपल जीते                              कैरम व लूडो से गूँजतीं किलकारियाँ थीं।                  एक दिन नहीं, एक वर्ष  नहीं                      
कई वर्षों  का साथ रहा हमारा।                              हर सुबह पुकार कानों में पड़ती,                           
पाठशाला भेजने की चिंता सदा ही रहती ।    
वो गूँज आज फिर सुनाई दे गई,
हवाओं के साथ मधुर रस घोल गई।
याद बनकर रह गई अब वो घड़ी
स्ंध्या की बेला कई खेलों की याद दिलाती ।
जब घाव दर्द से मैं कराहती, तभी
कोमल स्पर्श से व्यथा कहीं छू हो जाती।
उन सुनहरे पलों की याद है सताती
पिता की छाया हमें है भाती।
आभार प्रकट करना चाहूॅं मैं
जिनकी छत्र छाया ने बनाया हमें।
करती रहती हूॅं विनम्र प्रार्थना ये
आशीष  बनी रहे सदैव जीवन में ।
लक्ष्य पा सकी , हूॅं आज आभारी मैं
शुक्रिया हर सहयोग का और जाऊॅं वारि  मैं।

                                              ------------ अर्चना सिंह ‘जया’
         पूजनीय पिता जी को प्रणाम 

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