Tuesday, June 21, 2016

योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर (कविता)

 योग को शामिल कर जीवन में
 स्वस्थ शरीर की कामना कर।
 जीने की कला छुपी है इसमें,
 चित प्रसन्न होता है योग कर। 
 घर ,पाठशाला या दफ्तर हो चाहे
 योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
      शिशु, युवा या वृद्ध हो चाहे
      योग ज्ञान दो, हर गॉंव-शहर।
      तन-मन को स्वस्थ रखकर
      बुद्धिविवेक है विस्तृत करना।
      इंद्रियों को बलिष्ठ बनाने को
      योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
विज्ञान के ही मार्ग पर चलकर
योग-साधना अब हमें है करना।
आन्तरिक शक्ति को विकसित करता,
योग की सीढ़ी जो संयम से चढ़ता।
ईश्वर का मार्ग आएगा नज़र,जो
योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
     दर्शन, नियम, धर्म से श्रेष्ठ  
     योग रहा सदा हमारे देश।
     आठों अंग जो अपना लो इसके
     सदा रहो स्वस्थ योग के बल पे।
     जोड़ समाधि का समन्वय कर
     योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।

                                                                                               अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर
                                                                                                    - अर्चना सिंह 'जया' 

Saturday, June 18, 2016

वर्षा ( कविता )

  वर्षा  तू कितनी भोली है,
  नहीं जानती कब आना है
  और तुझे कब जाना है?
  बादल तेरे संग मँडराता
  हवा तुम्हें बहा ले जाती।
  जहाँ चाहता रुक है जाता
  और तुम्हें है फिर बरसाता।
  धरती से तू दूर हो गई,
  मानव से क्यों रूठ गई ?
  अदभुत  तेरा रूप सुहाना
  बारिश में भींग-भींग कर गाना।
  कहाँ गया वह तेरा रिश्ता ?
  बच्चों के संग धूम मचाना।
  रौद्र रूप तुम दिखला कर
  दुनिया को अचंभित कर देती।
  कभी रुला देती मानव को,
  बूँद-बूँद को भी तरसा है देती।
  भू पर गिर जीवन देती तू
  सभी प्राणी का चित हर लेती।
  फिक्र औरों का तू करती।
  वर्षा  तू कितनी भोली है।          

                                                                                                             ---अर्चना सिंह‘जया

Saturday, June 11, 2016

नन्ही अभिलाषा ( कविता )

शैशव की नन्ही अभिलाषा
लेती सुंदर पंख पसार,
चाह की न सीमा है फिर भी
न लिया कोई ऋण उधार।
डग मग पग और नन्हें कर से
छूने चले हैं नभ विशाल,
मन की पीड़ा लुप्त होती जब
किलकारी से आँगन होता निहाल।
बचपन की सच्ची राह हुई विलिन,
युवावस्था राह दिखाती,
पेट की तृृष्णा नम पड़ती तो,
मन की अभिलाषा पंख पसारती।
तन- मन विचलित हो जाता
इच्छाएँ न थमने को आती,
ऋण के बोझ तले दबकर भी
मन की क्षुधा न तृृप्त हो पाती।
बाध्य हुए हम गलत दिशा को
फिर अच्छी सोच कहाँ समझ आती,
बचपन की नन्ही भूख दहक कर,
न जाने कब विक्राल अभिलाषा  बन जाती।
                                                                                                                                                                                                                                        ----------- अर्चना सिंह ‘जया’
                अक्टूबर  माह के  गुंजन पत्रिका में  इंदौर से 2015 में  प्रकाशित  हो चुकी है  /

Thursday, June 9, 2016

वक्त को पहचान ( कविता )


  वक्त को पहचान कर
 लकीरों को मुट्ठी में ले थाम।
 लम्हा- लम्हा सरक गया तो
 फिर न कुछ हाथ आयेगा।
 बिखरे हुए पन्नों के समान
 लम्हा भी निकल जायेगा।
 विशाल वृृक्ष भी था मैं कभी
 शाख से पत्ते गिर गए सारे।
 रह गया मैं पत्र विहीन बेकार,
 राहगीर भी अब नहीं रुकते,
 नहीं लेता कोई मेरे तले विश्राम।      
                           
                                                                                                            ---अर्चना सिंह ‘जया’




Friday, June 3, 2016

बेटी की पीड़ा (कविता)


  साँस अभी थमी नहीं ,रात अभी ढली नहीं
  पथभ्रष्ट हो रहे सभी ,माँ चल दूर कहीं।
  नन्ही परी पुकारती ,घर संसार वो सँवारती
  फिर क्यों हमीं से ,जीवन की भीख माँगती?

  देवता से भी अधिक, देवियाँ पूजी जाती जहाँ,
  क्यों बेटियाँ? जन्म से पहले ही,विदा होती वहाँ।
  अपराधिन हूँ मैं नहीं, बेटी हूँ  मैं माँ तुम्हारी ,
  बताओ माँ! धरती पर,मेरा आना क्यों हुआ भारी?

  पुत्र ही क्यों है हर सम्मान का अधिकारी?
  पुत्री भी नाम रौशन कर सकती है तुम्हारी।
  गर मैं नहीं तोे भूमि, रह जायेगी वंशों से खाली,
  बेटी हूँ मैं ,मुझसे ही सजती है जीवन की क्यारी।

  नया सूर्योदय का है इंतजार,जब बेटी का हो सम्मान
  धरा भी माँ कहलाने का सर्वस्व कर सकेगी अभिमान।
  आने वाली पीढ़ी में,रह न जाए वसुधा हमसे खाली
  बेटी को बचाओ! वरना अभागिन रहेगी माँ हमारी।
                                   
                                                                                           -----अर्चना सिंह ‘जया’
           
राष्ट्रीय  सहारा में 13 अक्टूबर 2013 को छपी , जो दिल्ली, वाराणसी, पटना...आदि से प्रकाशित होती है।

मैं युवा हूॅं (कविता)

   
     मैं वो युवा हूॅं ,
     आरोप लगा है जो हम पर
     पथभ्रष्ट और गैर जिम्मेदार का,
     अब मिटाना है और बदलना है सोच सबका।
     मैं वो युवा हूँ,
     नई सोच नई कल्पना का है अभिमान
    ‘संघर्ष ही जीवन है’ ,यह है हमारा गान।
     मैं वो युवा हूँ,
     नई दिशा, नया मार्ग है अब हमारा
     नव तकनीक,नव मशाल,नव परिवर्तन का है नारा।  
     मैं वो युवा हूँ,
     कल था जिससे आज भी है और कल है हमारा
     ज्ञान के दीप से,प्रज्ज्वलित करना है जग सारा।
     मैं वो युवा हूँ,
     स्वच्छता, स्वास्थ्य व पर्यावरण के रक्षक बनेंगे,
     लिया है संकल्प यह, पीछे न अब हम हटेंगे।
     मैं वो युवा हूँ,
     सभी के साथ चलकर सामंजस्य बनाना है,
     युवा हैं हम और युवा का फर्ज निभाना है।
                             
                                                                                                      ----- अर्चना सिंह 'जया '

Wednesday, June 1, 2016

मानवता की रक्षा (कविता)


समाज के दुःशासनों से,
मानवता की रक्षा करनी है।
चलो मिलकर आवाज उठाए,
अब और नहीं पीड़ा सहनी है।
             पूरब से उदय होने दे सूर्य को,
             न बदल तू अब अपनी दिशा।
            लगता प्रलय होने को है फिर,
             जो पश्चिम का हमने रुख लिया।
नन्ही कलियों को क्यों मसलता,
कोमल पुष्पों ने क्या दोष किया?
जो तू इंसा है तो फिर क्यो?
इन्सानियत को कैसे दफना दिया?
            शिक्षित कर जन-जन में चेतना,
            जो बढ़ जाए मानवता की उम्र।
            आज के युवा , तू रक्षा क़र
            भविष्य देश का तुझ पर निर्भर।  
                                 
                                                                                                    ----- अर्चना सिंह जया