जिंदगी मिलेगी न दोबारा
जिं़दगी जो ईश्वर से हमें वरदान के रुप में मिली है,उसे सॅंवार कर स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए। जीवन को मुस्कुराने व खिलखिलाने दें,यह एक अनमोल भेंट है जिसे व्यर्थ में बर्बाद नहीं करना चाहिए। कुछ अच्छा कर औरों को अच्छा करने को प्रेरित करना चाहिए। जिंदगी में मक़सद का होना आवश्यक है, वरना जीवन जीते-जीते हम मार्ग से भ्रमित भी हो जाते हैं। जीवन को सॅंवारना यानि ऐसे रंग जीवन में घोलो जिसमें दूसरे भी रंग कर प्रसन्न हो जाएॅं। किसी बनावटी वस्तुओं से मत सॅंवारों कि दूसरे वैसे बनने की चाह में गलत राह पर चल पड़ें। नशा के अभिशाप से स्वयं को बचाओ, कहते हैं लत किसी भी चीज़ की बुरी होती है। वर्षों हो गए देश को आज़ाद हुए पर मनुष्य फिर भी खुद को नशा की बेड़ियों में जकड़े हुए है।
आज की युवा पीढ़ी किस आधुनिकता को ओर भाग रही है ?ये तो वो ही जाने ,पर यथार्थ में हमें अपनी सोच में आधुनिकता लाने की आवश्यकता है। स्त्री व पुरुष एक दूसरे का आदर करें, आपसी सहयोग दें। पुरुष के साथ कदम मिला कर चलें न कि खानपान. धूम्रपान, ड्गस आदि का सेवन करने की बराबरी करें। शिक्षा व कार्य में समानता होनी ही चाहिए, जीवन को जीने व आनंद लेने में बराबरी होनी चाहिए। समाज में रहते हुए समाज के दायरों को लॉंघने की भूल युवापीढ़ी को नहीं करनी चाहिए। जुनून अच्छे कार्य करने. अच्छा भोजन करने. परोपकार करने. खुश रहने व खुशियॉं बॉंटने का होना चाहिए न कि उन हानिकारक वस्तुओं का सेवन करने का जिसके सेवन से आप अपनों से तथा खुद से भी दूर हों जाते हैं। जीवन अनमोल है उसे इस प्रकार व्यर्थ में खर्च ना करें। ‘‘जिं़दगी अपने आप में गुलज़ार है, कभी गम है तो कभी खुशियों की फुहार है‘‘यही सोच होनी चाहिए। वरना िंजंदगी बेरंग सी लगने लगेगी।
जिं़दगी को कई रंगों से सॅंवारने का उत्तरदायित्व हमारा ही है। ये हमें ही तय करना है कि खुश रहने के लिए हमें पैसे खर्च करने हैं या बगैर पैसे खर्च किए भी हम हॅंस सकते,गुनगुना सकते हैं। सदा ही छोटी-छोटी बातों पर हॅसना, खुश रहना सीखें, किसी बड़े समय का इंतज़ार न करें। जब ऐसा होगा तब या जब वैसा होगा तब--- हम हर उस पल को ही वैसा बनाने की कोशिश करें जैसा हम चाहते हैं। जिं़दगी आपकी है फिर आप पर निर्भर है न कि समय पर, गिरते हैं घुड़सवार ही मैदाने जं़ग में। गिरने के डर को मन में अगर बैठा लें तो कोई भी बच्चा चलना नहीं सीख पाता, तो जीवन सफ़र में परिस्थितियों से घबड़ा कर हॅंसना या जीना छोड़ देने में कैसी समझदारी है? जीवन में व्यक्ति यदि किसी वस्तु का गुलाम बन जा रहा है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? उसका खुद का जीवन उसकी आत्मा की आवाज़ न सुनकर निर्जीव वस्तुओं का मुॅंहताज़ हो जाता है। नशा जैसे अभिशाप से स्वयं को बचाएॅं, वास्तविकता से भागने का प्रयास न करें।
वर्त्तमान समय में सभी स्वयं को बुद्धिजीवी ही मानते हैं,शायद यही कारण है कि प्रसन्न रहने की परिभाषा ही बदलती जा रही है। धनोपार्जन जिं़दगी चलाने का एक जरिया ही नहीं बल्कि, खुश रहने का एक मार्ग बना लिया है। धन से अगर खुशी मिलती तो इस संसार में कोई दुखी नहीं होता। कोई धन को लेकर दुखी है, तो कोई तन व मन से। सभी अगर खुश हैं तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों आदि में भीड़ नज़र नहीं आती क्योंकि मनुष्य बिना स्वार्थ के ईश्वर को भी याद नहीं करता है। दुःख में ही ईश्वर की याद आती है चाहे वह दुःख मानसिक हो या शारीरिक। मेरा मानना है कि ईश्वर कण-कण में है, हर मनुष्य,पशु-पक्षी आदि में है फिर भी हम भटकते ही रहते हैं। दुःख तकलीफ़ में विचलित हो हम भ्रमित होते ही रहते हैं। मानव प्रवृति बहुत ही विचित्र है वह सुख व दुःख दोनों में ही नशा करने के बहाने ढॅूंढ ही लेता है, आज की युवा पीढ़ी इस ओर बहुत ही तीव्रता से आकर्षित हो रही है। युवक हो या युवती दोनों ही जीवन का आनंद धूॅंए में ही उड़ाना पसंद कर रहे हैं। मदिरा का पान करना जैसे उनकी शान को बढ़ाता है। पर क्या जो सिगरेट या मदिरा जैसी चीज़ का सेवन नहीं करते वो जिं़दगी के सुख चैन से परे हैं? नहीं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल वे जीवन का सही मायने में आनंद उठा रहे हैं,उनकी बुद्धि विवेक सही दिशा में सोच पाने में समर्थ होती है। अपने जीवन के आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं उसे खुशियों के रंग से सवॉंरना है या बेरंग कर नशे के दलदल में ढकेलना है, इसका निर्णय खुद ही लेना है। नशा मुक्त हर एक घर बनाएॅ ंतो राष्ट् अपने आप ही नशा मुक्त हो जाएगा।
हम अपने भावी पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं? हम बड़े ही तो नशा में खुशी ढॅूंढ कर अपने बच्चों को सोचने पर विवश कर रहे हैं कि जीवन का एक रंग ये भी है। फिर नशा मुक्त बिहार,पंजाब या देश की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं? साथ ही कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो स्वयं इसी समाज का एक हिस्सा होने के बावजूद भी स्वयं को नशा से कोसों दूर रखें हुए हैं,तो क्या वे मर्द नहीं या आधुनिक नर व नारी नहीं? बस सारा खेल हमारी सोच का है, नई सोच व आधुनिकता पर विचार करने की आवश्यकता है। आधुनिकता या परिवर्त्तन से हमें अच्छी बातें सीखनी चाहिए,ये परिवर्त्तन ही है कि कल्पना चावला चॉंद पर जाने में सक्षम हो पाई, ये आधुनिकता ही है कि हमारे देश में ‘पैडमैन‘ जैसे व्यक्ति महिलाओं को परेशानियों से मुक्त करने में अपना योगदान दे पाए।
ज़िंदगी में किसी भी प्रकार की न अपेक्षा रखें और न ही किसी की उपेक्षा करें तो देखेंगे कि ज़िंदगी अपने आप में रंगीन है। जीवन के कुछ पलों को उत्सव की तरह मनाएॅं, किसी पर्व विशेष का इंतज़ार न करें। जीवन के उतार-चढ़ाव या दफ़तर व बाहर के उतार चढ़ाव से जीवन को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। हमारी लड़ाई स्वयं से ही होती है अगर खुद को समझाने में सफल हो गए तो समझो कामयाब हो गए। जबकि हकीकत में कुछ और ही है हमें बाहर के लोग व बाहरी बनावटी दुनिया ज्यादा प्रभावित करती है। खुद को हम संभाल पाने में कमज़ोर साबित होते हैं। यथार्थ से परे रह कर वास्तविकता व वर्त्तमान से दूर हो जाते हैं। यही कारण है कि जिं़दगी बोझ सी लगने लगती है और उस हारिल पक्षी की भॉंति पंजे में लकड़ी पकड़कर आकाश में उड़ने का प्रयास करतें हैं यानि स्वयं से ही छल कर बैठते हैं। वास्तविकता से भागने के लिए नशा जैसी वस्तुओं का सहारा लेते हैं। जीवन के सुख से परे होने लगते हैं। जीवन का आनंद धन से नहीं मन से जुड़ा है।
व्यक्ति जब विषम परिस्थितियों में स्वयं को कमज़ोर पाता है तब कहीं वह मदिरा का सहारा लेता है। मगर मेरे विचार से ये एक बहाना मात्र है, अगर इसे सही माने तो शहीदों की पत्नियों को तो हर पल मदिरा में डूबे रहना चाहिए। उन पर जो विषम परिस्थितियों का पहाड़ टूट पड़ता है,वैसा किसी पुरुष पर तो शायद ही कभी। हम इंसान नए-नए बहानों का पिटारा तैयार रखते हैं, जबकि स्कूली बच्चे भी इससे कम बहाने बनाते हैं। गम का पहाड़ टूटा तो मदिरा का सेवन, खुशियों ने दस्तक दी तो भी, अरे भाईयों-बहनों बहाना बनाना भी है तो बच्चे बनने के बहाने खोजो। बचपन को फिर से जीने का प्रयास करो और जीवन का पूर्ण आनंद उठाओ। जीवन में कला, संगीत, खेल, योग आदि को स्थान देकर देखें, आप की आयु स्वस्थ व लंबी हो सकती है। ज़िंदगी खूबसूरत बनाने का प्रयास करें न कि अवास्तविक। गम को फुटबाल समझ कर ज़ोर से मारें, खुशियों को गगन में पतंग के समान उड़ने दें, दूसरों को भी लूटने का अवसर दें। आप एक बुद्धिजीवि प्राणी हो निर्जीव वस्तुओं के गुलाम ना हो जाओ। सिगरेट, गुटका, मदिरा जैसे न जाने कितनी चीजें हैं जिसका मानव गुलाम बनता जा रहा है। ये आधुनिकता नही स्वयं की विवशता है, अपनी कमज़ोरियों को ढ़कने का दूसरा तरीका है। युवावर्ग से निवेदन है कि आधुनिकता को अपनाएॅं किन्तु अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल करते हुए। जवानी में ही ऐसी क्या विवशता है कि आप अपनी ऊर्जा शक्ति को सिगरेट, तम्बाकु ,गुटका जैसी वस्तुओं के नाम पर गिरवी रख दे रहे हो। युवा पीढ़ी दिगभ्रमित ना होवे, बड़े अगर भटक भी गए हैं तो आप उनकी जिंदगी से प्रेरणा लेकर स्वयं को बचाएॅं। ईश द्वारा प्राप्त जिंदगी को उचित अवसर व दिशा दें। आप पर ही घर,परिवार व देश का भविष्य निर्भर है। नशा करना ही है तो नन्हें बच्चों को मुस्कुराने , बड़े बूढ़ों का आशीष पाने, समाज के लिए कुछ कर जाने का नशा करें। जीवन में ऐसे काम करें कि आप के अपने तथा राष्ट् आप पर गर्व करे। किसी शर्मिंदगी के साथ न जीने को विवश हों बल्कि अपने घर,परिवार, सगे संबंधी व मित्रों के साथ स्वस्थ-उचित अवधि व्यतीत करें जिसका प्रभाव आपके स्वास्थ्य को स्वस्थ रखने पर पड़े। बहाने स्वस्थ व निरोग होकर जीने का खोजें, वस्तु के गुलाम बनने का नहीं। नशा से दूर हो, जीवन जीएॅं भरपूर।
कभी उलझती रही तो ंकभी सुलझती रही । बस जिंदगी यूॅं ही गुज़रती रही।
.............. अर्चना सिंह जया
September 2018 published in Samarth Bharat Magazine , page27
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