Friday, February 10, 2017

चतुर वानर [ बाल कविता ]


चतुर वानर की सुनो कहानी,
वन में मित्रों संग,
करता था मनमानी।
बंदरिया संग घूमा करता,
कच्चे-पक्के फल खाता था।
पेड़-पेड़ पर धूम मचाता,
प्यास लगती तो नदी तक जाता।
पानी में अपना मुख देख वो,
गर्व से खुश हो गुलट्टिया खाता।
तभी मगरमच्छ आया निकट,
देख उसे घबड़ाया वानर।
मगर ने कहा,‘‘न डरो तुम मुझसे
आओ तुमको सैर कराऊॅं,
इस तट से उस तट ले जाऊॅं।
कोई मोल न लूॅंगा तुमसे,
तुम तो हो प्रिय मेरे साॅंचे।’’
वानर को यह कुछ-कुछ मन भाया,
पर बंदरिया ने भर मन समझाया।
सैर करने का मन बनाकर,
झट जा बैठा, मगर के पीठ पर
लगा घूमने सरिता के मध्य पर।
तभी मगर मंद-मंद मुसकाया,
कलेजे को खाने की इच्छा जताया,
‘कल से वो भूखी है भाई
जिससे मैंने ब्याह रचायी
उसकी इच्छा करनी है पूरी
तुम्हारा कलेजा लेना है जरुरी।’
सुन वानर को आया चक्कर,
घनचक्कर से कैसे निकले बचकर ?
अचंभित होकर वो लगा बोलने,
ओह! प्रिय मित्र पहले कहते भाई।
मैं तो कलेजा रख आया वट पर,
चलो वापस फिर उस तट पर।
मैं तुम्हें कलेजा भेंट करुॅंगा,
न कुछ सोचा, न कुछ विचारा
मगर ने झट दिशा ही बदला।
ले आया वानर को तट पर,
और कहा,‘ मित्र करना जरा झटपट।’
वानर को सूझी चतुराई,
झट जा बैठा वट के ऊपर।
दाॅंत दिखाकर मगर को रिझाया,
और कहा,‘अब जाओ भाई
तुम मेरे होते कौन हो ?
तेरा-मेरा क्या रिश्ता भाई ?
वानर ने अपनी जान बचाई,
मगर की न चली कोई चतुराई।     
                      ................... अर्चना सिंह जया


Tuesday, February 7, 2017

कछुआ और खरगोश [बाल कविता ]


चपल खरगोश वन में दौड़ता भागता,
कछुए को रह-रह छेड़ा करता।
दोनों खेल खेला करते ,
कभी उत्तर तो कभी दक्षिण भागते।
एक दिन होड़ लग गई दोनों में,
दौड़ प्रतियोगिता ठन गई पल में।
मीलों दूर पीपल को माना गंतव्य,
सूर्य उदय से हुआ खेल प्रारंभ।
कछुआ धीमी गति से बढ़ता,
खरगोश उछल-उछल कर चलता।
खरहे की उत्सुकता उसे तीव्र बनाती,
कछुआ बेचारा धैर्य न खोता।
मंद गति से आगे ही बढ़ता,
पलभर भी विश्राम न करता।
खरहे को सूझी होशियारी,
सोचा विश्राम जरा कर लूॅं भाई।
अभी तो मंजिल दूर कहीं है,
कछुआ की गति अति धीमी है।
वृक्ष तले विश्राम मैं कर लूॅं,
पलभर में ही गंतव्य को पा लॅूं। 
अति विश्वास होती नहीं अच्छी,
खरगोश की मति हुई कुछ कच्ची।
कछुआ को तनिक आराम न भाया,
धीमी गति से ही मंजिल को पाया। 
खरगोश को ठंडी छाॅंव था भाया,
‘आराम हराम होता है’ काक ने समझाया।
स्वर काक के सुनकर जागा,
सरपट वो मंजिल को भागा।
देख कछुए को हुआ अचंभित,
गंतव्य पर पहुॅंचा, बिना विलंब के।
खरगोश का घमंड था टूटा,
कछुए ने घैर्य से रेस था जीता।
अधीर न होना तुम पलभर में,
धैर्य को रखना सदा जीवन में।
                                      अर्चना सिंह जया

published today in http://nanakipitari.blogspot.in

Friday, February 3, 2017

ये हैं नेता कल के


किसे चुने हम अपना नेता?
जो बदल सके है देश,
कोई कंश, कोई शकुनी
कोई बनाए है धृतराष्ट् का वेश।
मत का दंगल देखो है छिड़ा
बेटा भी न रहा बाप का।
स्वार्थ के रंग में डूब गए सब
बदला है देखो रंग लहू का।
विरोधी दलों पर कटुवचनों का
तनिक न थकते, करते प्रहार।
लगता नहीं इसी देश के हैं,
सत्ता के नाम,पी गए संस्कार।
ऊॅंट न जाने किस करवट बैठे?
गठबंधन न जाने कब टूटे?
डाकू जन स्वतंत्र यहाॅं हैं
सुभाष, बोस से नेता कहाॅं हैं?
हाथ जोड,साइकिल को थाम़
नेता हैं अभिनेता से आगे।
सत्ता की चाह में ‘बहरुपिया’बन
निकल पड़े हैं भीख माॅंगने।
लज्जा नहीं आती है इनको
वोट की तुलना बेटी से करते।
नेता वो है खुद को कहलाते
सत्ता की चाह में कीर्ति गान करते।
लोकतंत्र का लाभ उठाकर
बे फिज़ूल की बातें करतें।
देश का विकास ये क्या करेंगे?
जो बन गए ये नेता हैं कल के।
                      .................अर्चना सिंह जया
3 February, Rashtriya Sahara Paper...page-8, published.






Wednesday, February 1, 2017

अपना उल्लू सीधा करते


अपना उल्लू सीधा करते
देश के नेता ही,हमें हैं छलते।
घूम गली-गली नेतागण
करते दिन रात प्रचार जहाॅं।
दिन में भी सपने दिखलाते 
ठग का करते व्यापार वहाॅं।
बेचारी जनता समझ नहीं पाती
किस बात को सच वो समझे ?
किस बात को चाल यहाॅं ?
किस्सा कुर्सी का मन में लिए
नेता बने बहेलिया यहाॅं।
मोबाइल,लैबटाॅप,कूकर का डाल दाना
बुनते मायाजाल जहाॅ-तहाॅं।
जनता की भावनाओं से 
नित करते खिलवाड़ यहाॅं।
मर्म समझ आती नहीं इनको
राह बदलना, वचन तोड़ना
भाषण देकर भ्रमित है करना।
धर्म-जाति के नाम पर
खेला करते हैं सत्ता तंत्र यहाॅं।
सुरक्षा, शिक्षा ,बेरोजगारी
कहाॅं समझते वे अपनी जिम्मेदारी?
रोटी,कपड़ा और मकान बस
इतनी ही चाहत है हमारी मजबूरी।
लुभावने भाषण हमें सुनाकर
दिग्भ्रमित करने की कोशिश करते,
रंगा सियार बन चुनाव दंगल में
अपना उल्लू सीधा करते। 
                 ...................अर्चना सिंह जया
Today's Rashtriya Sahara,page 9. 
www.rashtriyasahara.com

Friday, January 13, 2017

उत्सव, उल्लास है लाया [ कविता ]

 पर्व ,उत्सव है सदा मन को भाता  
 ‘खेती पर्व’ संग उल्लास है लाता।
 कृषकों का मन पुलकित हो गाया,
 ‘‘खेतों में हरियाली आई,
 पीली सरसों देखो लहराई।
 खरीफ फसल पकने को आयी,
 सबके दिलों में है खुशियाॅं छाई ।’’
 नववर्ष का देख हो गया आगमन,
 पंजाब,हरियाणा,केरल,बंगाल,असम।
 पवित्र स्नान कर, देव को नमन
 अग्नि में कर समर्पित,नए अन्न।
 चहुॅंदिश पर्व की हुई हलचल।
 लोहड़ी मना गिद्दा-भांगड़ा कर।
 पैला, बीहू, सरहुल, ओणम, पोंगल
 एक दूसरे के रंग में रंगता चल।
 अभिन्न अंग हैं ये सब जीवन के,
 तिल के लड्ड़ू , चिवड़ा-गुड़ खाकर
 बैसाखी, संक्रांत का पर्व मनाकर।
 पतंगों की डोर ले थाम हाथ में
 बादलों को चल आएॅं छूकर ।
 रीति-रिवाज ,संस्कृति जोड़ कर
 प्रेम, एकता, सद्भावना जगा कर।
 दिलों को दिलों से जोड़ने आया,
 त्योहार अपने संग उल्लास है लाया।    
           
               ------------- अर्चना सिंह‘जया’

Monday, January 2, 2017

नव वर्ष का आगमन ( कविता )

                    
गुजरे कल को कर शीश नमन,
मधुर मुस्कानों से हो नववर्ष का आगमन।
         वसंत के आगमन से पिहु बोल उठा,
         फिर से महकेगा वसुधा और गगन ,
          मन दर्पण-सा खिल उठेगा सबका,
         नूतन पुष्पों व पल्लव से सजेगा चमन।
गुजरे कल को कर शीश नमन,
           चारों तरफ सुगंधित मंद पवन हो,
           झुरमुट लताओं में कलरव हो,
           आँगन में गूँजती किलकारी हो,
           युवकों के मन में विश्वास प्रबल हो।
गुजरे कल को कर शीश नमन,
          रिश्तों में अटूट प्रेम का हो बंधन,
           घरों में पनप उठे महकता उपवन,
           अब समाज में हो जाए नव मंथन,
          वसुंधरा में गूँजे सत्यं, शिवम् ,सुंदरम्।
गुजरे कल को कर शीश नमन,
         नई उम्मीद,नया सवेरा से सजे वतन
         आशाओं को संजोएॅं,निराशा का हो पतन,
         मोमबत्ती  को थामें बढ़े चलें ,क्यों न हम?
         नूतन वर्ष को सुसज्जित कर,दूर करें तम।
  गुजरे कल को कर शीश नमन,
 मधुर मुस्कानों से हो नववर्ष का आगमन।                      

                                   अर्चना सिंह‘जया’