"पश्चाताप" कहानी प्रकाशित हो चुकी है।😊 https://www.ekalpana.net/post/archanasinghmarch2021story
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना जिसे सराहा गया।
सागर ऊर्मि की तरह मानव हृदय में भी कई भाव उभरते हैं जिसे शब्दों में पिरोने की छोटी -सी कोशिश है। मेरी ‘भावांजलि ’ मे एकत्रित रचनाएॅं दोनों हाथों से आप सभी को समर्पित है। आशा करती हूॅं कि मेरा ये प्रयास आप के अंतर्मन को छू पाने में सफल होगा।
"पश्चाताप" कहानी प्रकाशित हो चुकी है।😊 https://www.ekalpana.net/post/archanasinghmarch2021story
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना जिसे सराहा गया।
किसान की रैली क्यों शर्मसार कर गई ,
हिंसा को बढ़ावा देकर तलवार हाथ में थाम,
लोकतंत्र की आड़ में ऐतिहासिक कहानी लिख गई।
लाल किले के दामन पर कर तांडव नृत्य,
किसान ने क्यों थामा अराजकता का हाथ,
"अहिंसा परमो धर्म" जिस देश की है शान,
किसी भी समस्या का हिंसा नहीं है समाधान।
किसानों ने शर्त से मुकरने का इतिहास रच दिया।
किस भेष में छुपे हुए उपद्रवी तमाम,
खुद को कहते हैं वे किसान।
जनता की सम्पत्ति को तहस-नहस करना,
देश में अशांति का वातावरण बना दिया।
क्या किसानों का यह शोभनीय है व्यवहार?
जमकर हंगामा,बवाल मचा कर खड़ा किया सवाल।
शोभनीय दिवस में अशोभनीय व्यवहार मानव का,
किसान अपने व्यक्तित्व को यूं तार तार कर रहे ,
हरियाली का प्रसार करने वाले, क्यों हथियार थाम रहे ?
तिरंगे को सलाम न कर, अपमान किले का कर दिया।
राष्ट्र का हित करने वाले, हित का मार्ग त्याग दिया।
धैर्य का ध्वज छोड़ क्यों अहित का चादर ओढ़ लिया ?
"जय जवान,जय किसान" स्वर गूंजते थे जहां,
नारे के स्वर से करने लगे शंखनाद यहां ।
नारेबाजी,दंगे,फसाद हल नहीं किसी सोच का,
आपसी सहयोग, विचार है जवाब नई राह का।
क्यों हो रहे भ्रमित लोग स्वच्छ व कोमल हिय वाले,
अन्नदाता हो तुम चहेते जो देश प्रेम गीत दोहराते।
----- अर्चना सिंह जया
दहेज रूपी 'सुरसा' देखो मुख खोले है बैठा,
न लज्जा,न ग्लानि, न हृदय में है कोमलता।
दान-उपहार शोभा थी, त्रेता युग में जिसकी
नैतिकता-पवित्रता मानव ने ही धूमिल की।
गांव,शहर,देश,समाज की है ये ज्वलंत प्रथा
बुद्धिजीवी ना जाने कब समझेगा गंभीरता?
नित अखबारों में पढ़ने को मिलती है नई कथा,
माता-पिता के लिए बन चुकी है गंभीर व्यथा।
जहां अमानवीय सा हो, वर पक्ष बने हैं लोभी,
वहां बहू रूपी बेटियां, दहेज की बलि हैं चढ़तीं।
राष्ट्र और समाज की हो रही है यहां घोर क्षति,
बचाओ लाज मानवता की, बहू को समझो बेटी।
वक्त के साथ अन्य कुप्रथाएं हुईं हैं कुछ धूमिल,
पर समाज में भ्रूणहत्या के, हैं अब भी कातिल।
बेटी-बेटे किसी का मोल लगाना है घोर अपराध,
दहेज प्रथा भी है कुप्रथा, है सामाजिक अभिशाप।
वो 'शब्द' ही तो है।
दिलों के ज़ख्मों पर मरहम लगा दे,
या नमक मसलकर ताजा कर दे।
वो 'शब्द' ही तो है।
सरगम में पिरोकर मन के तार छेड़ दें,
भावों को व्यक्त कर अधूरे बोल पूरे कर दे।
वो 'शब्द' ही तो है।
कभी उलझनों में उलझा रुला दिया करता,
कभी सुलझा कर लबों पर मुस्कान सजा दे।
वो 'शब्द' ही तो है।
भावों को स्याही से कभी सजाया ख़तों में,
और कभी पन्नों पर हिय के भाव को उकेरा।
वो 'शब्द' ही तो है।
कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक में शामिल,
वर्णों से सुसज्जित सदा ही व्यक्त कर देता है।
वो 'शब्द' ही तो है।
गीत में, संगीत में, उपासना में, प्रार्थना में
नाम में, व्यवहार में, आचरण में जो बोले जाए।
वो 'शब्द' ही तो है।
शांति का संदेश गुंजायमान हो स्वर में,
या आंदोलन का आक्रोश हो स्वर में।
वो 'शब्द' ही तो है।
मेरा मन,
व्यथित होकर रोता है,
अपने ही अंतर्द्वंद्व से
नित जूझता रहता है।
जाए कहां वह सोचता,
शांति है किस एकांतवास में,
दीवारों पर सिर पीटता है।
कभी बेलगाम-सा हो जाता,
बिन परों के उड़ान है भरता।
मेरा मन,
व्यथित होकर रोता है।
आभास तक नहीं है होता,
हो जाता ये हिरण सा चंचल,
भटकता रहता प्रतिपल।
ईश्वर को कस्तूरी सा वो,
पत्थर, तस्वीरों में खोजता।
पर नादान नासमझ वह,
आत्मावलोकन नहीं करता।
मेरा मन,
व्यथित होकर रोता है।
नादान मन खुद से प्रश्न कर,
उलझनों में है लिपटता।
कोमल मन को भाये शांति,
सुख की चाह में है भ्रांति।
विछिप्त होता है मन मेरा,
जाए कहां पर यह बेचारा,
संगदिल है जहां ये सारा।
मेरा मन,
व्यथित होकर रोता है।
बेज़ार हो रहें हैं,
दिशाहीन होता मानव।
हिय में प्रेम-दया नहीं,
हिंसक हो रहा वो।
सद् गति की राह छोड़,
क्रोध, नफ़रत, घृणा
हिंसा काआवरण ओढ़।
मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है,
फिर भी तुम्हें न जाने क्यूं
अपनी मोहब्बत से इंकार है।
न चाहते हुए भी स्वदेश से हुई दूर ।
जिंदगी दी थी जिन्होंने,
उन्हें ही छोड़ने को हुई मजबूर।
मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।
जिस आत्मनिर्भरता को देख हुए थे अभिभूत
नृत्य कला को छोड़ने को हो गई तैयार।
दफ़न कर दिया अपनी आकांक्षाओं को,
चल दी साथ तुम्हारे, अपने दिल को थाम।
तुम्हारे स्वप्नों में भरने लगी रंग,
खुद के परों को समेटे हुए, हुई तुम्हारे संग।
अब बहुत निभा ली कसमें वादे,
बेटी को जन्म देकर उसकी बनूंगी आभारी।
माना चाहत तुम्हें थी बेटे की,
पर मां बनने की वर्षों से थी चाहत हमारी।
जन्म से पूर्व ही नहीं कर सकती हत्या,
तुम क्या जानो इक औरत की व्यथा।
इक दिवानगी वो थी कभी तुम्हारी,
हाथों में लिए फूल बारिश में भी आते थे।
और इक दिवानगी ये कैसी कि
कांटे चुभा हमें बेबस- बेघर किए।
आज तुम्हारे इस प्रस्ताव से मुझे इंकार है,
मेरी मोहब्बत नहीं है कमज़ोरी।
बस किस्मत से लड़ कर जीतने की,
कुछ आदत सदा रही है पुरानी।
अब मैं नहीं दोहरा पाऊंगी कि
'मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।'
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