धूप की तपन से
जलती रही मैं भूमि।
तन पर दरारें पड़ती रही,
तड़पती रही स्नेह बॅॅंूद को।
कैसे झूमेगा मयूर-मन ?
बादल आकर चले क्यों जाते?
मन के भाव मेरे,बैरी वो
समझ क्यों नहीं पाते?
मन व्याकुल है,तन है सूखा।
मेरे अंतर्मन को
वे छू क्यों नहीं पाते?
वसुधा को तो प्रिय मेघ
सदा ही थे भाते।
पर यह क्या ?
घन मुझे यूॅं तरसाकर
परदेश को चले हैं जाते।
प्यासा मन, राह तकते रहते
अधीर मन से देखा करते।
नेह कब बरसेगा झरझर ?
धरा पूछती रही प्रतिपल,
‘‘कहो ओ सजन
कब तृप्त होगी भूमि ?
औ’ नाचेगा मयूर मन।’’
भाव हिय में छुपाकर,
मेघ को पुकारती पल-पल।
घन जब छाता अंबर पर,
मन मयूर नृत्य कर उठता
भाव विभोर हो, उस पल।
मन पीहू झूमता रह रहकर,
मेघ देख मन होता आतुर
तन तो भींग गया,पर
मन सूखा ही रहा जर्जर।
मैं भूमि रही प्यासी चारों पहर।
................ अर्चना सिंह ‘जया‘