मानव होकर मानवता को करते शर्मसार,
हैवानियत दिखती तुम सब की आंखों में,
चेहरे पर मुखौटे पहने घूमते हैं दरिंदे सरेआम।
कब तक छुपकर बैठे बेटी-बहन घरों में,
क्या पढ़े-लिखे नहीं, डाक्टर-इंजीनियर बने नहीं ?
"बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ" स्लोगन है मात्र,
खौफ में रहती ज़िंदगी सदा उसकी।
समय-असमय सड़कों गली-मुहल्लों में,
बहु-बेटियों की आबुरू लूटते हो खुलेआम।
'ये कैसी तृष्णा है बेटे'-पूछती है जननी बार-बार।
अपनी किस मानसिकता का परिचय हो देते ?
क्यों माँ की कोख को कलंकित हो करते?
दुर्गा-सरस्वती समान बेटी-बहन को रौंध,
कैसा यह पुरूषार्थ तुम हो जताते।
कैसी दरिंदगी है चरित्र में तुम्हारे,
बेटों के परवरिश पर उठते हैं कई सवाल खड़े।
मैं अभागिन तेरी आँखों पर जाने कब चढ़ गई,
वो रात काली डराती,खुद की परछाई से भी अब डरती।
खौफ में है जिंदगी हमारी गुहार सुन, हे गिरधारी!
वरना हमें ही बनना होगा शत्रु नाशिनी, दुर्गा या काली।
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