Tuesday, May 24, 2016

धरा की पुकार (कविता)

मुझे बचाओ मैं !               
खतरे में हूँ और आप भी ।
पृृथ्वी रह-रहकर गुहार है लगाती
मैं ही तुम्हारी पालन हार
रक्षा का व्रत लो न करो संहार।
अनगिनत सपने मैं भी हूँ बुनती
हरी मखमली चादर हूँ ओढ़े।
जो स्नेह झरने न फूटते हमसे
तुम अवाक् रह जाते वंश बढ़ता कैसे ?
सहसा स्मरण हो आया मुझे
उन सुनहरे दिनों का जब था।
आँगन हरा-भरा, श्यामल कोमल
चरणों के नीचे सागर लहराता था।
पवन के साथ लहरें गातीं थीं।
बगिया चमन का महकता और
कोयल अमिया पर कूका करती थी।
अब तन-मन हो चला है बंजर
सूखी पलकें, दर्द उर में है दबा।
चीख न सुन पाते तुम मेरी,
शीशे सा मन तार-तार है हुआ
दामन भी न पाक रहने दिया।
जो सोचते तुम मेरे अस्तित्व के
विषय में भूलकर भी कभी
दूषित  न होने देते स्वच्छ आँचल यूँ ही ।
तुम्हारी ही बेटी,बहन हूँ मैं और
अब मॉं बन, सब सहे जा रही  हूँ पीड़ा
भू ,वसुंधरा,वसुधा ,भूमि ,
धरा नाम तुमने ही है दिया
फिर सेवक बन करो तुम सेवा।
रक्षक बन क्यों चीर हरते हो मेरा ?
मरुभूमि फिर न बनने देना तुम
सदा आभारी रहूँगी मैं तुम्हारी।
वसुधा नाम से जानी जाऊँ
घर आँगन सुनहरा बनाकर-
माँ तुम्हारी कहलाऊँ और
जाऊँ तुम पर वारी- वारी
मानवता का वस्त्र धारण जो कर लो ।
शायद तब न चीख सुनाई दे हमारी
मुझे बचाओ ! मुझे बचाओ !
मैं अबला असहाय बेचारी !      
                                                                                                     ---- अर्चना सिंह‘जया’
                           
                                    Published in Sahitya Gunjan Patrika, from Indore.


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