Wednesday, March 1, 2017

सत्ता की चाहत न देखी,हमनें ऐसी [ कविता ]



चुनावी रंग अभी सब पर है छाया
ये कैसी होली खेल रहे हो भाया ?
धैर्य तो रखो जरा, माना है फागुन आया
रंगों की जगह कीचड़ फेंक रहे हो,
यह कैसे अस्तित्व का परिचय दे रहे हो ?
धर्म,जाति,मंदिर मस्जिद का खेल तो खेला
श्मशान को भी बना डाला चुनावी झमेला।
जिस दिन उतरेगा ये बुखार तुम्हारा
छट जायेगा उस पल घना अंधेरा।
न रहेगा बाॅंस, न बजेगी बाॅंसुरी
चुनाव के पश्चात् जब उतरेगी पगड़ी।
बीत गए माघ दिन उन्नतीस है बाकी
बंद हो जाएगी इनकी ताॅंका-झाॅंकी।
चौखट से चैराहे तक ले आए खैरात पेटी
सत्ता की चाहत न देखी, हमनें ऐसी।

                  ...............अर्चना सिंह जया
                           इन्दिरापुरम, गाज़ियाबाद
In today's Rashtriya Sahara paper, page 9.



Saturday, February 25, 2017

फजूल की बातें

दिन-प्रतिदिन नेतागण आरोप -प्रत्यारोप का सिलसिला और भी प्रबल करते जा रहे हैं। अगर गंभीरता से विचार करें तो ये स्वयं के व्यक्तित्व का ही परिचय देते नजर आ रहे हैं। अब वक्त परिणाम का नजदीक आता देख ये बेकाबू हो रहे हैं व अपने दायरे को लाॅंघ रहे हैं। कुरेद-कुरेद कर बेतुके मुद्दे खड़े करने की कोशिश में दिग्भ्रमित हो रहे हैं। अब यू पी चुनाव को ही देखिए, कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर, कभी आरक्षण-निर्दलीय वर्ग के नाम पर और हद तो तब हो गई जब कब्रिस्तान - श्मशान तक को भी नहीं छोड़ा। अरे भाई, मुर्दों बेचारों को तो रहने देते। क्या आप स्वयं को इतने कमजोर समझने लगे कि उनके सहारे की आवश्यकता आन पड़ी। देशवासियों अपने जीवित होने का एहसास कराओ और मुद््दों से भ्रमित करने वालों को आईना दिखाओ। हमें रोजगार, शिक्षा,स्वास्थ्य,सुरक्षा व न्याय व्यवस्था जैसे मुद्दों से संबंधित बात करनी है, फजूल की बातें नेतागण अपनी जेब में ही रखें तो लोकतंत्र के लिए उचित होगा। एक स्वस्थ लोकतंत्र के विषय में विचार करें, अगर इनके रिर्पोट कार्ड की बात करें तो न जाने कितनी जगह लाल स्याही से रेखांकित करने की आवश्यकता होगी जिसे देख भारत माता को लज्जा आएगी।

                                                                                    ..............  अर्चना सिंह जया
In Rashtriya Sahara Paper, page 9.

                                                                                         


Tuesday, February 21, 2017

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर व्यंग्य

                         आखिर किसका विकास...?
मैं वह उत्तर प्रदेश हूॅं भाई। जहाॅं वर्षों से परम्परा कायम है ‘सबका साथ,सबका विकास’ न हमने होने दिया है न होने देंगे। क्यों बाहर के लोग बदलने को तुले हैं जब जनता जनार्दन इसी में खुश हैं। ऐसा मुझे लगता है शायद नाखुश भी हों। पर हमें क्या लेना-देना जन-जन की खुशी से। हम पूर्वजों की परम्परा यूॅं ही नहीं खोने देंगे,सबका यानि परिवार के सदस्यों पिता, बेटी ,बहुओं, बेटों, चाचा, भतीजा सभी का विकास करेंगे। देश से पूर्व शुरुआत घर से ही तो करेंगे,अंग्रेजी में भी तो ऐसी ही कहावत कहते हैं न.....। देश की फिर सोचेंगे जल्दी किस बात की ? पहले लैपटाॅप, कूकर, वाईफाई.....देकर मन तो बदल दें, सत्ता में आकर बिजली, पानी, कारखानों की सोचेंगे। पंजाब, बिहार, तमिलनाडु भी हमारे ही पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। इलाहाबाद से जन्मी इस परम्परा से हाथ मिला मजबूत बनाएॅंगे। एक एक कदम परिवार के हित में उठाएॅंगे। आने वाली पीढ़ी जिसे याद रखे ऐसा उत्तर प्रदेश बनाएॅंगे। भाइ्रयों व बहनो अब तो आप के सहयोग की आशा है कि आप कैसा राज्य बनाएॅंगे ?

                                                                                               अर्चना सिंह जया
In Rashtriya Sahara Paper, page 9.
                                                 
       

Sunday, February 19, 2017

जन-जन की आॅंखों में धूल [ कविता ]


वचनों का मायाजाल क्यों बुन रहे हो ?
जन-जन की आॅंखों में धूल झोंक रहे हो।
स्वयं के हित से ऊपर उठकर,
शहीदों से कुछ सीखते तुम जो
परिवार हित से सर्वप्रथम, वे
राष्ट् हित की बात थे करते।
कभी भी वे नकारात्मकता का
प्रचार-प्रसार नहीं थे करते।
कैसे नेता हो तुम राष्ट् के ?
देश के नागरिक हो सबसे पहले ।
वचनों का मायाजाल क्यों बुन रहे हो ?
जन-जन की आॅंखों में धूल झोंक रहे हो।
गर कार्यकाल का सदुपयोग जो करते
वोट की भीख न यूॅं माॅंगते फिरते।
विपक्ष पर अॅंगुली नित उठाकर
समय व्यर्थ क्यों ? यूॅं कर रहे हो /
जनता को मूर्ख मानने की नासमझी
अव्यावहारिक औ असंगत बातें करके,
गुमराह करने की पूर्ण कोशिश
जाने क्यो नेतागण ऐसा कर रहे हो ?
जन-जन की आॅंखों में धूल झोंक रहे हो।
एहसान हम पर ही कर दिया है तुमने
जाने-अनजाने में ही सही,
जन-जन की सोई चेतना जगाकर।
धन्यवाद है करते, हम तुम्हारा।
जन-गण-मन में संवेदना है जागी
उचित-अनुचित का चयन कर लिया।
सभ्य-असभ्य की पहचान हमें है,
पथ से भटकाने की भूल कर रहे हो,
जन-जन की आॅंखों में क्यों धूल झोंक रहे हो ?

                            ...........अर्चना सिंह जया
  In today's Rashtriya Sahara Paper.                                       

Thursday, February 16, 2017

देश बदलने में अपना योगदान करें [ कविता ]

         

देश के संचालक का हम चुनाव करें
भारतवासियों चलों फिर से मतदान करें,
अधिकारों को यूॅं न बरबाद होने देना
आने वाले कल पर फिर से विचार करें।
          देश बदलने में अपना योगदान करें,
गरीबी, बेरोजगारी, का काम तमाम कर
सर्वशिक्षा का आगे आकर श्रमदान करें। 
जनता जनार्दन का एक स्वर हो सके
दिग्भ्रमित लोगों को नई दिशा प्रदान करें ।
           देश बदलने में अपना योगदान करें ,
भ्रष्टाचार व कुपोषण का सर्वनाश कर
एक से दो, दो से चार हाथों को थाम चलें।
एक मत हो ,एक राग हो राष्टृ के हित में
समानता और परिवर्त्तन लाने का आह्वान करें ।
            देश बदलने में अपना योगदान करें 
आरक्षण के नाम पर वोट की भीख न देना
स्वयं की मेहनत व मनोबल पर गर्व करना।
अपने दायित्वों को समझ कर जो आगे आए
पूर्णबहुमत का समर्थन है उसे ही देना।
             देश बदलने में अपना योगदान करें , 
           उज्ज्वल भविष्य का चलो नव निर्माण करें।
                               ..................अर्चना सिंह जया
Published in today's Rashtriya Sahara Paper.
                                         

Tuesday, February 14, 2017

मतदान से पूर्व करना विचार [ कविता ]


चलो बनाए नई सरकार
ज्ञान का जलाएॅं ,फिर मशाल।
अशिक्षा, गरीबी और भ्रष्टाचार
दूर करने पर जो करे विचार।

स्त्री सुरक्षा व बेरोजगारी
प्राथमिकता अब है हमारी।
जन-जन का हो सके कल्याण
नेता चुने कर उचित मतदान।

सत्तर वर्षों का लगा अनुमान
क्या उचित करते आए मतदान ?
सोचा शत प्रतिशत होगा उद्धार
पर स्वप्न,जन का न हुआ साकार।

जागो उठो,वक्त से पूर्व करो विचार 
व्यर्थ न करना निज अधिकार।
जो हो वचन व कर्म का सच्चा
ऐसा चुनाव हमें करना है इस बार।

वसुधा को जो कुटुंब बना सके
बहुमत से जीते वो सरकार।
गतवर्षों के गतिविधि को देख
मतदान से पूर्व करना विचार।

                          ..................अर्चना सिंह जया
Published in Rashtriya Sahara Paper on 14 February.

Friday, February 10, 2017

चतुर वानर [ बाल कविता ]


चतुर वानर की सुनो कहानी,
वन में मित्रों संग,
करता था मनमानी।
बंदरिया संग घूमा करता,
कच्चे-पक्के फल खाता था।
पेड़-पेड़ पर धूम मचाता,
प्यास लगती तो नदी तक जाता।
पानी में अपना मुख देख वो,
गर्व से खुश हो गुलट्टिया खाता।
तभी मगरमच्छ आया निकट,
देख उसे घबड़ाया वानर।
मगर ने कहा,‘‘न डरो तुम मुझसे
आओ तुमको सैर कराऊॅं,
इस तट से उस तट ले जाऊॅं।
कोई मोल न लूॅंगा तुमसे,
तुम तो हो प्रिय मेरे साॅंचे।’’
वानर को यह कुछ-कुछ मन भाया,
पर बंदरिया ने भर मन समझाया।
सैर करने का मन बनाकर,
झट जा बैठा, मगर के पीठ पर
लगा घूमने सरिता के मध्य पर।
तभी मगर मंद-मंद मुसकाया,
कलेजे को खाने की इच्छा जताया,
‘कल से वो भूखी है भाई
जिससे मैंने ब्याह रचायी
उसकी इच्छा करनी है पूरी
तुम्हारा कलेजा लेना है जरुरी।’
सुन वानर को आया चक्कर,
घनचक्कर से कैसे निकले बचकर ?
अचंभित होकर वो लगा बोलने,
ओह! प्रिय मित्र पहले कहते भाई।
मैं तो कलेजा रख आया वट पर,
चलो वापस फिर उस तट पर।
मैं तुम्हें कलेजा भेंट करुॅंगा,
न कुछ सोचा, न कुछ विचारा
मगर ने झट दिशा ही बदला।
ले आया वानर को तट पर,
और कहा,‘ मित्र करना जरा झटपट।’
वानर को सूझी चतुराई,
झट जा बैठा वट के ऊपर।
दाॅंत दिखाकर मगर को रिझाया,
और कहा,‘अब जाओ भाई
तुम मेरे होते कौन हो ?
तेरा-मेरा क्या रिश्ता भाई ?
वानर ने अपनी जान बचाई,
मगर की न चली कोई चतुराई।     
                      ................... अर्चना सिंह जया