Sunday, February 19, 2017

जन-जन की आॅंखों में धूल [ कविता ]


वचनों का मायाजाल क्यों बुन रहे हो ?
जन-जन की आॅंखों में धूल झोंक रहे हो।
स्वयं के हित से ऊपर उठकर,
शहीदों से कुछ सीखते तुम जो
परिवार हित से सर्वप्रथम, वे
राष्ट् हित की बात थे करते।
कभी भी वे नकारात्मकता का
प्रचार-प्रसार नहीं थे करते।
कैसे नेता हो तुम राष्ट् के ?
देश के नागरिक हो सबसे पहले ।
वचनों का मायाजाल क्यों बुन रहे हो ?
जन-जन की आॅंखों में धूल झोंक रहे हो।
गर कार्यकाल का सदुपयोग जो करते
वोट की भीख न यूॅं माॅंगते फिरते।
विपक्ष पर अॅंगुली नित उठाकर
समय व्यर्थ क्यों ? यूॅं कर रहे हो /
जनता को मूर्ख मानने की नासमझी
अव्यावहारिक औ असंगत बातें करके,
गुमराह करने की पूर्ण कोशिश
जाने क्यो नेतागण ऐसा कर रहे हो ?
जन-जन की आॅंखों में धूल झोंक रहे हो।
एहसान हम पर ही कर दिया है तुमने
जाने-अनजाने में ही सही,
जन-जन की सोई चेतना जगाकर।
धन्यवाद है करते, हम तुम्हारा।
जन-गण-मन में संवेदना है जागी
उचित-अनुचित का चयन कर लिया।
सभ्य-असभ्य की पहचान हमें है,
पथ से भटकाने की भूल कर रहे हो,
जन-जन की आॅंखों में क्यों धूल झोंक रहे हो ?

                            ...........अर्चना सिंह जया
  In today's Rashtriya Sahara Paper.                                       

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