Tuesday, August 20, 2024

अंधकार. में अंतर्मन

वेदनाओं के भँवर में घिरता जाता है मन,

गहन अंधकार में खोने लगता अंतर्मन।

क्या करूँगी जन्म लेकर इस समाज में,

कोई देखना ही नहीं चाहता मेरा मन दर्पण। 

चीर हरण कर सहजता से घूमता है आरोपी,

क्या कहें मानवता की नज़रें भी हैं झुकी,

आक्रोश व्यक्त करो युवाजन चीर दो जंघा दुशासन का,

चौराहे पर तार-तार कर दो उसका जीवन।

मोमबत्ती लेकर सड़कों पर चलने से मात्र,

कुछ नहीं बदलेगा इस पुरुष प्रधान समाज में।

जहाँ बेटियों के लिए सारे आदर्श ज्ञान की बातें,

बेटों से क्यों नहीं पूछते कुछ प्रश्न कभी, 

" कहाँ थे इतनी देर तक,

क्या कर रहे थे आधी रात सड़कों पर "।

"बेवजह यारों संग आवारागर्दी क्यों करते हो ?

और हर बात के पीछे मां-बहन की गाली क्यों देते हो ?

गर आधी रात तुम घर पर रहते जो शायद, 

तो असमय नहीं होते गली-मोहल्ले में वारदात।

गर्भ में भी मारी जाती हैं बेटियाँ,

बहू चाहिए, वंश भी फिर बेटियों से इतनी नफ़रत क्यों?

कब तक न्याय की गुहार लगाती रहेगी,

कभी समय पर, कभी कपड़े पर प्रश्न कर

बेटियों को ही दोषी मानकर मुँह फेरते हो क्यों ?

बुरी नज़र, बुरी सोच वाली मानसिकता हो जिनकी 

वो तो नहीं रहम करते, चाहे बिटिया हो तीन वर्ष की।

यानि कोई बेटी, बहन चौखट से बाहर सुरक्षित नहीं।

माँ की कोख शर्मसार हो रही,

कैसे कुपुत्र को जन्म दी वो, घोर वेदना भी सही वो।

खुद से वो करती सवाल बार-बार। 

व्यथित मन मस्तिष्क में कौंध रहे अनगिनत सवाल। 

बेटे में भी बोना होगा संस्कार के बीज, 

ताकि मां की कोख को न सुनना पड़े कोई गाली कभी।

नारी की पूजा होती जिस देश में,

बेटी-बहन भी है धरोहर मातृभूमि की।

अब तो सौगंध खा मां, माटी, मानुष की, कि

ममता-प्रेम-स्नेह अपार धारण करेगा हिय में तू।




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