Thursday, December 8, 2016

बेबस लाठी ( कहानी )

                                             
                       
समाज एक व्यक्ति से नहीं बनता बल्कि परिवार, दोस्त व समुदाय से मिलते हुए समाज का निर्माण होता है। समाज में रिश्तों का रुप भी बदलता रहता है। आज के परिवेश में रिश्तों के बीच सॉंसें घुॅंटती नजर आ रही हैं। हमारे ताऊ जी जो कभी बोकारो के स्टेट बैंक में हुआ करते थे, उन्हीं के मित्र मिश्रा जी थे। दोनों में धनिष्ठ मित्रता थी, एक ही शहर ,मुहल्ले में रहा करते थे। किसी समय दोनों ही सरकारी नौकरी में कार्यरत थे, मिश्रा जी सरकारी स्कूल में थे इस कारण कभी कभार उनका तबादला भी हुआ करता था। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए ,उन्होंने परिवार एक जगह रखने का निर्णय लिया। इस तरह बच्चों की पढ़ाई में कोई रुकावट नहीें आई।
          ताऊ जी ने जिस सोसाइटी में थोड़े सस्ते में घर लिया था उसी में मिश्रा जी ने भी लेने के विषय में सोचा, ताकि दोनों मित्र एक साथ बुढ़ापे की जिंदगी साथ में बिता सके। उन दिनों घर की कीमत एक दो लाख की थी किंतु अभी उन पर कई जिम्मेदारियों का दायित्व था। मिश्रा जी तीन भाई थे,माता-पिता इलाहाबाद के एक गॉंव में रहते थे। माता जी का स्वर्गवास हुए आठ साल हो रहे थे, पिता जी अब मिश्रा जी के साथ ही रहते थे। मिश्रा जी के दो भाई गॉव पर ही रहकर खेतीबाड़ी संभाला करते थे। सबसे बड़े भाई जरा अस्वस्थ रहते थे,उन्होंने शादी नहीं की थी। मिश्रा जी के बडे़ भाई समय-असमय अनाज व सरसों तेल उन्हें भेजवा दिया करते थे । इस तरह मिश्रा जी को मदद मिल जाया करती थी। यहॉं संस्कार का प्रभाव स्पष्ट नज़र आता था, भाईयों का आपसी ताल मेल सही था। आज की पीढ़ी मदद करने से पूर्व सोचती है कि मैं ही क्यूॅं ?
      मिश्रा जी की दो बेटियॉं और एक बेटा था, तीनों की पढ़ाई ,बाबू जी की दवादारु व पत्नी की जरुरतों का ध्यान रखते हुए जीवकोपार्जन हो रहा था। तनख्वाह ठीक-ठीक थी किन्तु मिश्रा जी बेटियों की शिक्षा में किसी भी प्रकार से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। उनकी दृष्टि में बेटियों को शिक्षित करना यानि एक अच्छे परिवार व स्वस्थ समाज का निर्माण करना था, वहीं उनकी स्वयं की पत्नी आठवीं पढ़ी हुई थी । मिश्रा जी जिस जमाने के थे उस जमाने में बेटा पिता की बातों को नकार नहीं सकता था, विवाह की इच्छा उसकी है या नहीें, उसकी सोच क्या है? ये सारी बातें कोई मायने नहीं रखती थीं। इस प्रकार मिश्रा जी की शादी ,बस हो गई।
         मुझे बुजुर्गांे को आदर देने का ये तरीका आज तक समझ नहीं आया। क्यों हम अपने ही माता-पिता से मन की बात नहीं कर सकते, उनसे नहीं कहेंगे तो क्या पड़ोसी से दिल की बात करेंगे ? विवाह जैसे बंधन के लिए बच्चों से राय लेना व उनकी सहमति होनी जरुरी क्यों नहीं समझते   थे ? मिश्रा जी पूरी जिंदगी आर्थिक जोड़ तोड़ में ही लगे रहे। पिताजी बीमार चल रहे थे, अचानक ही वे बहुत बीमार हो गए। लीवर कार्य करना बंद कर दिया और ब्लड प्रेशर अत्यधिक कम हो गया। अस्पताल में आई सी यू में भर्ती भी हुए किन्तु वे अगली सुबह भी नहीं देख पाए।
         बाबू जी के देहांत के पश्चात् वे स्वयं को कमजोर महसूस करने लगे। कई कार्यों में उनसे सलाह भी लिया करते थे। बड़ी बिटिया की शादी  की बात जो चल रही थी । एक वर्ष के पश्चात् बड़ी बेटी की शादी कर दी। दामाद कलकत्ता में ही, बैंक में कार्य करता था और परिवार भी शिक्षित व छोटा था। एक बहन थी जिसकी शादी हो चुकी थी, बस बुजुर्ग माता पिता ही थे जो साथ में रहते थे। मिश्रा जी को अच्छी शादी मिल गई थी। उनकी छोटी बेटी भी शादी योग्य हो ही रही थी किंतु बच्चों की पढ़ाई व घर खर्च चलाना एक चुनौती पूर्ण जिम्मेदारी थी।
मिश्रा जी का बेटा, सिर्फ बेटा न कहो, लाडला बेटा तो ज्यादा सही होगा। दो बेटियों के बाद का जो था। बहनों ने भी सिर चढ़ा रखा था। मॉं भी बेटा बेटा करते नहीें थकती थी। समाज में बेटे को बुढ़ापे की लाठी जो माना जाता है। मिश्रा जी तो अपने माता-पिता के लिए अंधे की लाठी साबित हुए, इसी के लिए हम रिश्तों के पौधें को सींचते रहते हैं ताकि एक दिन फल रुपी सुख व छॉंव रुपी सहारा प्राप्त हो। बेटा अखिलेश अभी पढ़ ही रहा था पर उसकी रुचि पढ़ने में नहीं थी। मिश्रा जी सोचा करते थे कि अगर बेटे का ग्रेजुएट हो जाए तो सिफारिश करके किसी भी तरह नौकरी लगवा देंगे। अंततः बेटे ने ग्रेजुएशन कर ही लिया और नौकरी भी आरंभ कर दी। मिश्रा जी कुछ प्रसन्न रहने लगे कि बेटे ने भी कमाना आरंभ कर ही दियां। इसी बीच छोटी बिटिया की शादी की भी बात की शुरुआत हो गई। तीन महीने के बाद का दिन निर्धारित हुआ। छोटी बिटिया की शादी के दौरान बेटे अखिलेश की शादी की भी बातचीत का सिलसिला आरंभ हो गया किंतु मिश्रा जी ने एक-डेढ़ साल का समय मांगा और इस तरह उन्हें भी सॉंस लेने की फुर्सत मिली। इसी के साथ बेटे को डिस्टेंट लर्निंग के कोर्स में दाखिला करवा दिया।
     अब घर कुछ खाली-खाली सा लगने लगा था। पत्नी की भी तबीयत कुछ गड़बड़ रहने लगी थी। एक मॉं से बेटियों का खालीपन सहा नहीं जा रहा था, जैसे घर की रौनक ही चली गई थी। सूनापन काटने को आ रहा था। मिश्रा जी के रीटायरमेंट का समय नजदीक आता जा रहा था तभी उन्होंने घर खरीदने का निर्णय ले ही डाला। ताऊ जी से कह कर तीन कमरे का मकान ले लिया। ताऊ जी के एक मित्र का मकान था उसे पैसे की जरुरत आ पड़ी तो उसने चालू भाव में ही मिश्रा जी को घर बेच डाला। अब वो पल आ ही गया जब मिश्रा जी को अपनी नौकरी को हमेशा के लिए बॉय कहना था। समय जरा दुःखद था पर ये तो सभी के जीवन में आता है। इज्जत के साथ अपने कार्य से मुक्त हुए ये तो गर्व की बात है-ऐसा कह पत्नी ने हौसला बढ़ाया, साथ ही अब मुझे ज्यादा समय भी दे पायेंगे।  इस प्रकार मिश्रा जी अपनी पत्नी व बेटे के साथ अपने मकान में रहने लगे। कुछ ही सालों के पश्चात् बेटे ने अपनी नौकरी भी बदल ली और वह रॉंची चला गया। ताऊ जी और मिश्रा जी एक साथ समय व्यतीत करने लगे।
       मित्रों की राय मानकर बेटे की शादी का निर्णय ले ही डाला। बेटे की शादी आखिरकार तय हो ही गई। लड़की एम ए की हुई थी, अपने घर पर दूसरे स्थान पर थी। उसका एक बड़ा भाई व एक छोटी बहन भी थी। बहु के आने से कुछ दिन घर की चहल पहल बनी हुई थी। मिश्रा जी ने बेटे की शादी का खर्च ही मांगा और दहेज के नाम पर कुछ नहीं । दरअसल मिश्रा जी आर्थिक रुप से बहुत मजबूत नहीं थे। समाज में नाम,मान, प्रतिष्ठा ही उन्होंने कमाई थी। उन्होंने सोचा कि अब समय के साथ साथ बेटे को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो ही जायेगा। मुझसे कुछ तो सीखा ही होगा । बहु छह महीने मिश्रा जी के घर पर साथ में रही फिर बेटे के साथ रॉंची चली गई। वहॉं बेटे को भी अकेले रहने में व खाने पीने की तकलीफ थी , इस बात को मिश्रा जी भली-भॉंति समझ रहे थे।      
         वक्त का पहिया तेजी से घूम रहा था। साल गुजरते जा रहे थे, बेटा बहु अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए, दो बच्चे भी हुए। आकाश व अमन, होली पर व गर्मी की छुट्टी पर दादा-दादी के यहॉं घूमने आते थे। बचपन से ही दोनों शरारती थे। दादी ,अस्वस्थ रहने के बावजूद भी दोनों की खाने पीने की चिंता करती थी। अपने हाथों बेसन के लड्डू व खीर बनाकर खिलाया करती थी। मिश्रा जी बेटे को समझाते कि नौकरी चाकरी पर ध्यान देना अब बच्चों की जिम्मेदारी भी है,आज कल नौकरी मुश्किल से मिलती है। जब उनके जाने का समय आता तो दादा-दादी उदास हो जाते थे। पर समय का चक्र घूम रहा था। वे दोनों फिर से अकेले हो गए, बेटा-बहु बच्चों के साथ वापस चले गए।
            मिश्रा जी पत्नी के साथ सुख-दुख मिलकर बॉंट रहे थे। समय-असमय मिश्रा जी भी खाना बना दिया करते थे। अपने प्रिय मित्र ताऊ जी के साथ सुबह टहलने जाते थे, शाम को कभी कभी साथ में चाय भी पी लिया करते थे। ताऊ जी की दो बेटियॉं ही थीं दोनों ही अपने अपने ससुराल में व्यस्त थीं। ताई जी और ताऊ जी अकेले ही जीवन काट रहे थे, उनके मन में कभी कभी बेटे की कमी खलती थी। ईश्वर ने एक बेटा दिया तो था पर छह महीने में ही भगवान ने अपने पास बुला लिया। बस, इस बात की ही तकलीफ उन दोनों को थी। वरना वे सुखी थे। बुढ़ापे की लाठी की कमी का ये समाज एहसास कराता रहता है।
          एक सुबह अचानक , दरवाजे पर अखिलेश अपने परिवार के साथ आ खड़ा हुआ ये देख मिश्रा जी जरा अचंभित हुए क्योंकि कोई पूर्व सूचना नहीं थी। खैर, बच्चों से घर में रौनक हो गई बहु व बेटे से घर भरा सा लगने लगा। दोनों लोगों की तन्हाई दूर हुई। अब सुबह शाम कोलाहल सा रहने लगा। एक सुबह चाय पीते समय मिश्रा जी ने बेटे से पूछा- और कितने दिन के लिए आए हो? कब तक की छुट्टी है? ये सुन बेटे ने कहा, अभी लम्बी छुट्टी है, मैंने नौकरी छोड़ दी है। यहीं अब नौकरी देखता हॅूं। ये सुन मिश्रा जी के पैरों तले जैसे जमींन ही खिसक गई। उन्होंने पूछा, ‘ऐसी क्या बात हो गई ?तुम्हें बच्चों का भी ध्यान नहीं आया। ’ बेटे ने कहा,-बस जरा बॉस के साथ झड़प हो गई और कुछ नहीं। आज कल तंग ज्यादा कर रहे थे ।’
            ‘उतार चढ़ाव तो जीवन में आते रहते हैं उससे डर कर भागना नहीं चाहिए,’ -मिश्रा जी ने समझाया। एक पोता छठी कक्षा में और एक आठवीं में था, अब उनके दाखिले की चिंता हो गई। साथ ही अखिलेश अपनी नौकरी के चक्कर में भी यहॉं वहॉं जाने लगा। पैसे की जरुरत और परेशानियों के कारण बेटे बहु में लड़ाई भी हो जाती। मिश्रा जी ने जैसे तैसे कर बच्चों का दाखिला तो करवा दिया किंतु बात यहीं आ कर नहीं रुकती थी। बेटे की नौकरी की चिंता सबसे बड़ी थी। दो महीने के पश्चात् बेटे की नौकरी लगी, वो भी घर से बीस किलोमीटर दूर। खैर ,ईश्वर की इच्छा। मिश्रा जी तो हर बात पर तैयार थे किन्तु फिर भी घर में बहु और सास में भी अनबन रहने लगी। सब्जी भाजी, दूध व राशन तक लाने की जिम्मेदारी भी इस उम्र में मिश्रा जी निभा रहे थे।
            उनका सुखद जीवन अब दुखदाई होने लगा। आए दिन घर में मनमुटाव होने लगे। मिश्राइन जी अब और अस्वस्थ रहने लगीं, कुछ दिमागी बीमारी होती जा रही थी। बहु की जुबान में तेजी आने लगी। दोनों पोते भी बतमीज होते जा रहे थे। बेटे को सारी बातें नज़र तो आ रहीं थी लेकिन वो अपनी कमी को छुपाने की कोशिश में अपनी जिम्मेदारी से मुॅंह मोड़ रहा था। दिन प्रतिदिन घर का कलह बढ़ता ही जा रहा था। नौबत यहॉं तक आ गई कि बहु ने सास-ससुर का खाना बनाना ही बंद कर दिया। बेटा नई नौकरी को लेकर व्यस्त रहने लगा,दो तीन दिनों के लिए उसे बाहर भी जाना पड़ता। गुस्से में कभी कभार मॉं और पिता जी को कहता कि मैं आप लोगों की समस्या को ही सुलझाता रहा तो नौकरी क्या खाक करुॅंगा ? अब अपने ही घर में मिश्रा जी मुॅंहताज होते जा रहे थे। जबकि घर मिश्रा जी का, रासन पानी भी मिश्रा जी का ही इसके बावजूद भी जब बहु नाश्ता बना कर हटती तब मिश्रा जी नाश्ता बनाते , अपने और पत्नी के लिए। दोनों वक्त के खाने का भी यही हाल था। इस तरह घर में रहना भी दुभर होता जा रहा था। रिश्तों में घुटन महसूस होने लगी थी।
            ताऊ जी मिश्रा जी के हालात को देखते हुए सोचने पर विवश हो जाते कि अच्छा ही हुआ जो ईश्वर ने बेटा नहीं दिया,ये दिन देखने से तो बच गया। मिश्रा जी का दुःख तो मेरे दुःख से भी बड़ा है। अखिलेश को घर की परिस्थितियों को समझ कर उसका समाधान खोजना चाहिए। अपनी पत्नी से बात कर उसे समझाना चाहिए। पर ऐसा कुछ भी नहीं था। एक ही घर में एक ही छत के नीचे अजनबियों की तरह रहना क्या होता है ?ये कोई मिश्रा जी से पूछे। अपने ही बेटा-बहु अब पराये से लगने लगे। अखिलेश से कई उम्मीदें जुड़ी हुई थीं, पर उसे बिखरते देर न लगी। बेबस लाठी-सा वह प्र्रतीत हो रहा था। मेरा ये मानना है कि विवाह के बाद बेटे का दायित्व बढ़ जाता है कि मॉं पत्नी, पिता पुत्र के बीच के रिश्तों को होशियारी से संभाले व उचित निर्णय ले।
           अखिलेश की आर्थिक स्थिति सही नहीं थी वह पूर्ण रुप से सक्षम नहीं था। अपने पिता से समय-असमय मदद भी लिया करता था। पत्नी इस कारण उस पर भी अपना क्रोध निकाला करती थी,घर पर दबदबा बना रहे इसलिए उल्टी सीधी हरकतें भी करती थी। घर की शांति भंग हो चुकी थी, बेटा मॉं बाप के पक्ष में कहे या पत्नी के पक्ष में कहे निर्णय लेने में वो असक्षम था। मिश्रा जी की भी उम्र बढ़ती जा रही थी वो खुद को संभालते हुए अपनी अस्वस्थ पत्नी की भी सेवासुश्रा कर रहे थे। डॉक्टर के अनुसार पत्नी के दिमाग में जाल-सा बन बया था। इस अशांत माहौल में बेटियॉं भी आने को तैयार नहीं होती थीं क्योंकि वो घर अब पिता का कम भाई का ज्यादा लगता था।
             एक सुबह अचानक ही मिश्रा जी की पत्नी का निधन हो गया। बेटियों को भी सूचित किया गया। बेटी-दामाद व अन्य रिश्तेदार आए, अड़ोसी-पड़ोसी भी एकत्रित हो गए ताकि अंतिम दर्शन कर सकें। लेकिन ये क्या ,मिश्रा जी की बहु अंतिम दर्शन को भी बाहर नहीं आई। रिश्तों को समझने वाले और उसकी कद्र करने वाले मिश्रा जी आज कितने शर्मिंदे थे। बेटा अखि भी बेबस सा खड़ा रो रहा था,ऐसी परिस्थिति में वो क्या करे और क्या न करे ? ताऊ जी मिश्रा जी को ढ़ांढ़स बंधा रहे थे,सब राम की लीला है । हम सबको अब उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। बेटियॉं फूट-फूटकर रो रहीं थी। पर वक्त किसके लिए रुका है ?इस तरह दिन गुजरते गए, तेरह दिन के पश्चात् रिश्तेदार सभी चले गए।
            मिश्रा जी अब स्वयं को बहुत अकेला महसूस करने लगे, ताऊ जी के साथ सुबह और शाम कुछ समय बिताने लगे। सुबह उन्हीं के साथ दूध लाने व सब्जी लाने जाते थे। जब पत्नी स्वस्थ हुआ करती थी तब दोनांे ही जाया करते थे, अब तो ये सब एक स्वप्न जैसा हो गया था। इधर ताऊ जी घर में ही गिर पड़े,ये सुन दोनों बेटियॉं आ पहुॅंची। मिश्रा जी मेडिकल की दुकान से दवा ले आए। तभी मिश्रा जी ने ताऊ जी से पूछा लोग कैसे कहते हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है,फिर मेरी लाठी इतनी कमजोर व बेबस क्यों है ? देखो ये तुम्हारी बेटियॉं नहीं बेटे हैं। हॉं,सही कहा तुमने -ऐसा कहते ही ताऊ जी की ऑंखें भर आईं और फिर ताऊ जी का हाथ पकड़ते हुए मिश्रा जी ने कहा,‘ बेटे की चाहत और फिर उससे जुड़ी उम्मीदें ही हमें दुर्बल बनाती हैं।’ ये बात आज समझ आई है।

                                                                    ...........अर्चना सिंह‘जया’

Sunday, December 4, 2016

हृदय की गुहार ( कविता )

 

 कहीं बारिश में डूबा शहर
 तो कहीं है गर्मी का कहर।
 अब तो मौसम भी है अजनबी
 इंसा हो रहा भयभीत हर घड़ी।
 न जाने कब पड़ने लगे सूखा
 बाढ़ का कहर भी सबने देखा।
 अमृत के लिए बिलखता शहर
 मानव संघर्ष करता हर पहर।
 कहीं तो है रोटी की ज़द्दो ज़हद
 तो कहीं दो गज़ जमीन की तड़प।
 कुदरत से उलझने का है परिणाम
 हो सके तो धरा की बाहें थाम।
 स्नेह कर से दो वृक्ष लगाकर
 मृत्यु से पूर्व सृष्टि का ऋण उतार चल।
 क्या लाया व क्या ले कर जाएगा ?
 पर इंसा को ये कौन समझाएगा ?
 काठ की सैया पर ही सोकर
 तू कर पायेगा भवसागर पार।
 हे मानव ! सुन सके तो सुन
 हिय से निकली प्रकृति की गुहार।

                           ---------- अर्चना सिंह जया

Friday, November 18, 2016

बचपन ( कविता )


बचपन के वो दिन  थे
पिता का था वो उपवन।
रात की रानी से महकता था,
बाबुल का घर-ऑंगन।
पवन के झोंके से, खुशबू
छू जाती थी तन-मन।
नन्हें फूलों को देख जमीं पर,
खिल उठता था चितवन।
भोर ही में मैं उठकर
फ्राक में चुन उन पुष्पों को,
मॉं के ऑंचल में देती डाल।
फिर धागों में पिरोकर,
बालों में मेरे सजोकर,
अपनी ऑंखें नम कर कहती,
‘‘तेरे जाने के पश्चात्
कौन स्नेह बिखेरेगा,ऑंचल में ?
हमारी खुशियॉ और खुशबू
ले जायेगी अपने संग में।’’
सुनकर मॉं की बातें मैं मुस्काती
फिर इठलाकर दौड़ लगाती।
नासमझी थी, वो कैसी मेरी ?
सच्चाई से अबोध, सखी री
जग से बेगानी हो हॅंस देती,
तितली के पीछे दौड़ती-भागती।
बचपन निकल गया इक पल में
आज पराई हो गई लाडो।
बाबुल का आंगन है छूटा,
बदल गया अब मेरा खॅूंटा।
जिंदगी खेलती अब ऑंख मिचौनी
बदल चुकी है मेरी कहानी।
मॉं का स्नेह है हमें सताता,
वो प्यारा बचपन ही, है भाता।

      -------- अर्चना सिंह 'जया'

Monday, November 14, 2016

तुलिका और मैं.......


'बाल दिवस' की शुभ कामनाएँ।

Saturday, November 12, 2016

काश! जो हम भी बच्चे होते ( कविता )

 

काश! जो हम भी बच्चे होते
 प्यारे-प्यारे सच्चे होते,
 तितली जैसे रंग-बिरंगे
 सुंदर सुनहरे सपने,अपने होते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 आसमॉं में फिर उड़ जाते
 अरमानों के पंख फैलाए
 दामन ,इंद्रधनुष के रंग में रंगते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 रोटी-दाल की न चिंता करते
 टॉफी से ही भूख मिटाते
 रोते इंसानों को हॅंसाते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 हिंसा हम न यहॉं फैलाते
 प्यार, शिष्टाचार का पाठ सिखाते
 देश को अपना स्वर्ग बनाते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 दामन सबका स्नेह से भरते।

                             ------ अर्चना सिंह‘जया’

Friday, November 4, 2016

मातृभूमि ( कविता )

 

आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ वतन, तेरा सदा।
तेरी मिट्टी की खुशबू,
मॉं के ऑंचल में है छुपा।
कई लाल शहीद भी हुए,
फिर भी माताओं ने सपूत दिए।
निर्भय हो राष्ट् के लिए जिए
और शहीद हो वो अमर हुए।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा ।
धैर्य ,ईमानदारी,सत्यता, सहनशीलता
भू भाग से है हमें मिला।
खड़ा हिमालय उत्तर में धैर्यता से
धरा की थामें बाहें सदा।
अटल-अचल रहना समझाता
सहनशीलता वीरों को सिखलाता।
कठिनाई से न होना भयभीत
सत्य की हमेशा  होती है जीत।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा।
हिय विशाल है सागर का
दक्षिण में लहराता तन उसका।
नदियॉं दर्पण-सी बहती कल-कल
समतल भूभाग से वो प्रतिपल।
झरने पर्वत से गिरती चलती
जैसे बालाएॅं ,सखी संग हॅसती।
खेत,वन सुंदर है उपवन
भू के गर्भ में छुपा है कंचन।
प्रशंसा कितनी करु मैं तेरी?
भर आती अब ऑंखें मेरी।
विराट  ह्रदय  है मातृभूमि तेरा
सो गए वो यहॉं, जो प्रिय था मेरा।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि! हरदम हम तेरा ।      
 
                                 ______  अर्चना सिंह‘जया’
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Tuesday, October 25, 2016

एक लड़की ( कविता )


सड़क पर रुकी थी,गाड़ी अभी
दौड़ती-भागती एक लड़की, आई तभी
आवाज़ लगाती,‘‘बाबूजी बाबूजी
भूख लगी है जोरों की,
हूॅं भूखी मैं कल की।’’
शायद!अनाथ वो जान पड़ती थी,
भाई-बहन की दुहाई वो देती थी।
दया भावना लगी थी जगने
थैले से निकाल बिस्कुट,केले दिए हाथ में।
लपक कर थामी दोनों हाथों से
फिर सरपट भाग गई, सड़को पे।
मेरी नज़र लगी, झट खोजने उसे
किधर गई और आई किधर से ?
मन के तार छेड़ कर चल दी,
विचलित मन से हॅूं सोचती यही।
मेरी ही उम्र की थी वो लड़की,
मैं सुख के साये में पली बढ़ी
भाग्य की थी,शायद वो कुछ बुरी।
अपने स्वप्न को ताले लगाकर,
बचपन को चौराहे पर लाकर।
पेट की तृष्णा से वो थी जूझती,
दुनिया के ताने मौन ही सहती।
संघर्षपूर्ण जीवन देखकर उसका
ऑंखों में पानी भर आया।
न जाने कोई ईश्वर की माया,
हमने जो पाया बहुत है पाया।
आज मन कुछ इस तरह
खुद को है समझाया।
                         ............... अर्चना सिंह जया

Tuesday, October 18, 2016

मेरा अभिनंदन तुम्हें ( कविता )

   
स्नेह पुष्प है नमन तुम्हें,
हे मातृभूमि ! मेरा अभिनंदन तुम्हें।
माटी कहती कहानी तेरी
कोख से जनमें सपूत कई,
शहीद वीरों को करुॅं भेंट सुमन।
जो अपनी सॉंसें देकर,
वादियों को गले लगाकर,
भूमि को सेज बनाकर,
पावन किए हमारा वतन।
स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,
मॉं के अश्रु से भिंगा गगन
पथराई ऑंखें राह निहारती
पत्नी ,बच्चों का जो पूछो मन।
आस न रही बाकी कोई,
कहॉं गए जाने सजन ?
बिटिया का टूट गया है मन
पिता के साथ देखती थी स्वप्न।
बिखरा है उसका मन दर्पण
ये पीड़ा सहे कैसे आजीवन ?
स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,
पर उस मॉं का हिय
कितना है, विशाल
दूसरे पुत्र को फिर से
वतन को सौंप, हुई निहाल।
एक नहीं सौ पुत्र भी जो होते
सीमा पर हम उसे भेजते।
राष्ट् प्रेम की वो दीवानी
किसी की बेटी, किसी की रानी।
ऐ मॉं ! स्नेह पुष्प है नमन तुम्हें।
हे मातृभूमि ! मेरा अभिनंदन तुम्हें।
                     
                                      ............... अर्चना सिंह जया

Saturday, October 8, 2016

अधिकार ( कहानी )


   
 स्त्री व पुरुष ईश्वर की संरचना है फिर उनके अधिकारों में भी समानता होनी चाहिए। स्त्री के अधिकारों को पुरुष वर्ग क्यों निर्धारित करता है ? क्या स्त्री स्वयं के अधिकारों के दायित्वों को समझ पाने में असमर्थ है ऐसा नहीं है। उसे समाज ने कमजोर समझने की भूल की है। वह संस्कारों की चुन्नी ओढ़े पुरुष की तथा दो परिवारों की मान-मर्यादा को बनाए रखने की पूर्ण कोशिश करती है। सहनशील है कमजोर नहीं।
        आज मैं स्त्री के अस्तित्व को समझने की कोशिश कर रही थी हमारी बुआ जी सुलझी हुई,समझदार, पढ़ी लिखी व कर्मठ महिला थी। उन्होंने अपने मायके में बहुत ही खुशहाल जीवन व्यतीत किया था । मायके में संयुक्त परिवार में रहने के कारण उनके व्यवहार में कई लोगों के अच्छे गुणों का समावेश था। सभी लोग उनसे अपना काम करवा ही लिया करते थे। गुजरते वक्त के साथ समय का पता ही नहीं चला बुआ कब विवाह योग्य भी हो गईं ?वो मेरी अच्छी दोस्त भी थीं। उनका विवाह एक अच्छे परिवार में हो गया। फुफा जी एक प्राइवेट कम्पनी में कार्यरत थे। जैसा कि सभी लड़कियों को मायके में ही सिखा दिया जाता है कि तुम्हारे कुशल व्यवहार से सास-ससुर ,जेठ-जेठानी ,देवर सभी तुम्हारे अपने हो सकते हैं।
       मेरे मन में कई प्रश्न हिचकोले खा रहे थे, क्यों लड़कियों को ही ज्ञान से भरी बातें सिखाई जाती हैं ? क्या लड़के को सिर्फ स्वयं के परिवार का ही दायित्व समझना चाहिए ? किन्तु जवाब नहीं मिल रहा था। अगर लड़की के कोई भाई न हो तो ऐसे में मायके की जिम्मेदारी किसकी होगी ? यहॉं क्या लड़की अपने अधिकारों को याद दिलाती है ?पति जिन अधिकारों के साथ पत्नी से उसके फर्ज को याद कराता ही रहता है।
        बुआ जी अपने नये जीवन में प्रवेश कर चुकी थीं। उन्हे लगा कि अगर वह ससुराल को जितनी जल्दी अपना समझकर खुशहाल बनाएॅंगी उनके लिए अच्छा रहेगा और फुफा जी के दिल में भी जगह बना लेंगी । किन्तु फुफाजी के दिल में कोई और ही बसी थी। ये अलग बात है कि फुफा जी की शादी उससे नहीं हो पाई, क्योंकि उस वक्त फुफा जी सक्षम नहीं थे और लड़की के पिता दो वर्ष तक रुकने को तैयार नहीं थे। बुआ जी का स्वभाव परिवार के सभी सदस्यों को प्रभावित कर गई सिवाय फुफा जी के। फुफा जी को लगा कि अगर उन्होंने भी प्यार,सम्मान देना आरंभ कर दिया तो लड़की सिर चढ़ जायेगी। एक इत्तफ़ाक ये भी हो गया कि फुफा जी के कुछ मित्रों के साथ चाचा जी का व्यवहार शादी के रश्मों के दौरान उचित नहीं था। ये सुनकर बुआ जी भी अपने तरीके से बात की तह तक जाने का प्रयास की तो ज्ञात हुआ कि मित्रों में से एक मित्र ने शराब पी रखी थी। बुआ जी का ये मानना था कि शादी जैसे बड़े कार्यक्रमों में अगर कुछ ऊॅच नीच हो भी जाती है तो उसे नज़र अंदाज़ कर देना चाहिए। पर कई बार ऐसा नहीं होता, यहॉं फुफा जी ने भी बात की गॉंठ बॉंध ली थी।
      किसी भी रिश्ते की शुरुआत प्यार से होनी चाहिए किन्तु बुआ फुफा जी के रिश्ते की शुरुआत हल्की नोंक-झोंक से हुई। दोनों ने ही रिश्तों की डोर को थामें रखा, इस तरह समय गुजरता गया। बुआ जी के दो बच्चे हुए,पहले लड़की फिर लड़का। बुआ जी की बेटी अब ससुराल जा चुकी है बेटा इंजीनियरिंग कर नौकरी कर रहा है। बुआ की बेटी के जन्म पर फुफा जी का चेहरा जरा उतर गया था। बुआ बताती थीं कि गर्भ की जॉच करवाई गई थी जो कि अपराध है डॉक्टर ने उसी समय ‘लड़की है’ बता दिया था। मुझे ये सब उचित नहीं लग रहा था, मगर मैं चुप रहने में ही भलाई समझी। अधिकार समझ वो कभी अपनी बात नहीं कह पाई। अगर तबियत जरा खराब भी हो जाए तो फुफा जी मॉं से कह कर डॉक्टर को दिखवा देते । बिटिया राशि का जन्म हुआ ,फुफा जी ने झूठी खुशी जा़हिर करते हुए मिठाई वितरण का कार्यक्रम कर दिया। समय गुजरता गया, तीन वर्ष पश्चात् बुआ ने बेटे को जन्म दिया। फुफा जी के खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा, बुआ तो इस बार भी उतनी ही खुश थी। खुश क्यों न हो, दोबारा मॉं बनने का सौभाग्य जो प्राप्त हुआ था। मॉं के लिए बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं होता, उसे दर्द व परेशानियों का सामना तो उतना ही करना पड़ता है।
       बुआ को लगा शायद अब उन्हें प्यार व सम्मान अवश्य मिलेगा। बुआ परिवार की लाडली तो बन गई पर जिसके लिए इस घर में आई थी उसी के प्यार के स्पर्श की लालसा आज भी बनी हुई थी। फुफा के क्रोध की भागीदार बनी, अगर बुआ कभी पूछ देती कि आप को सिर्फ गुस्सा करना ही आता है क्या ? तो बात घुमाकर कह देते थे कि जिससे प्यार होता है उसी पर गुस्सा भी किया जाता है और वह बेवकूफ चुप हो जाती।
       बुआ जी की बातें सुन कर मैं सोच में पड़ जाती थी कि आखिर पुरुष चाहता क्या है ? उसकी पत्नी सबकुछ भूलकर उसी के परिवार को सवॉंरने में अपने अस्तित्व को न्योछावर कर देती, फिर भी वह सम्मान की अधिकारी नहीं होती क्यों ? आरम्भ के कुछ महीनों में उसे मायके की याद सताती भी है। पर जैसे-जैसे वक्त गुजरता जाता है उसे पति का ऑंगन ही भाने लगता है। पति के प्यार पर उसका पूर्ण अधिकार है वो समझे या नहीं। पति शायद अपने प्यार की तलाश बाहर भी कर सकता है किन्तु पत्नी प्यार की पूर्ति कहीं बाहर से नहीं कर सकती।
          बुआ जी घर परिवार के किसी भी सदस्य के जन्मदिन पर पकवान व उपहार का इंतज़ाम अवश्य कर लेती। मायके से मिले हुए पैसे बचा-बचा कर, उपहार देते हुए प्यार को व्यक्त करती। उसके जन्मदिन पर फुफा जी से बीस रुपए की चीज भी नहीं दी जाती,उनका कहना है कि भावनाओं से पेट नहीं भरता । मैं भी ये मानती हूॅं कि उपहार का अपना मोल है उसे कीमत से नहीं तौला जा सकता। फुफा जी का कहना था कि कमाकर घर चलाने में अगर मेरा सहयोग देती तो अच्छा होता। इन बातों से दिल दुखता था, मगर बुआ परिस्थितियों के साथ समझौता कर चुकी थी।
        बुआ बताया करती थीं कि एक बार रविवार का दिन था बुआ ने मजा़क में बिस्तर पर पड़े हुए चादर को समेटने को कह दिया तभी फुफा जी ने चादर हाथ से उठाया फिर छोड़ दिया और कहा कि मैं कर दूॅंगा तो तुम क्या करोगी ? एक बार इसी प्रकार दूसरी बार चाय पीने का मन होने लगा तो बुआ जी से बोले और बुआ जी ने मज़ाक में कह दिया कि कभी खुद भी बना लिया करो व मुझे भी दे दिया करो। बस फिर क्या था ,फुफाजी का मन उखड़ गया और गुस्से में रसोईघर में घुसे और चाय बनाने लगे । बुआ जी से कहा कि मेरे हाथ पैर सही हैं मैं बना लूॅगा। बुआ जी ने कहा, ‘क्या मुझे मज़ाक करने का भी हक़ नहीं है?’ ‘किस वक्त मज़ाक करना चाहिए ये भी देखा करो।’फुफा जी ने आवाज़ ऊॅंची करते हुए कहा।
       दूघ में भी उफ़ान आता है, सरिता का भी बॉध टूट जाता है फिर एक जीती जागती स्त्री से कैसे उसके सब्र का इम्तिहान लिया जाता है। आखिर उसके भी सब्र का बॉंध टूटने को विवश होता होगा।  सच, पुरुष प्रधान समाज में स्त्री स्वयं की इच्छा के अनुसार काम कर ले तो जिद्दी समझी जाती है। बुआ जी की सहनशीलता अब जवाब देने लगी थी किन्तु तब भी स्वभाव में विनम्रता बरकरार थी।
           बुआ उम्र के साथ-साथ अस्वस्थ भी रहने लगी ‘हाई बी पी’ ‘शुगर ’तथा ‘हार्ट ’की समस्या भी हो गई । बेटे से कभी-कभी मन की बात कर लेती थीं, वह भी सॉफ्ट वेयर कम्पनी में काम करता था। अब उसके विवाह की बातें भी घर पर होने लगी। मॉं ने बेटे से पूछा, ‘तुम्हें कैसी लड़की चाहिए?’ बेटा हॅंस पड़ता, ‘और कहता जो तुम सब का ध्यान रखे।’ लेकिन बेटा मुझे एक बात बताओ ,‘उसका ध्यान कौन रखेगा ? वो सभी को प्यार देगी  किन्तु उसके प्यार की पूर्ति कौन करेगा ? बेटे ने तपाक् से जवाब दिया ‘मैं’ और कौन ? शायद बेटे के ज़हम में पिता की छवि स्पष्ट थी। बुआ की ऑंखें भर आईं। बेटे ने फिर से मॉं की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा,‘ मॉ!ं उसकी चिंता करने के लिए मैं काफी हूॅं।’
             बुआ का मन का कोना आज भी खाली था। मन में उठती कसक रह रहकर कर कचोटती थी। वहॉं आज भी काले मेघ का इंतजार था, जो अपने साथ प्यार की बारिश ला सके। अगले ही दिन अचानक बुआ जी की तबीयत खराब हाने लगी , अस्पताल में भरती करवाया गया। फूफा जी भी घबरा गए किन्तु अपनी परेशानी प्रकट नहीं होने दिए। पच्चपन वर्ष की उम्र में अब उसी का सहारा था, मॉं-पिता जी तो पहले ही गुज़र गए थे। हार्ट अटैक एक बार पहले भी आ चुका था। डॉक्टर ने सभी को बुलवा लेने को कह दिया। स्थिति कुछ-कुछ सुधरने लगी , तो डॉक्टर ने आई सी यू से केबिन में सिफ्ट कर दिया।                                         शाम के वक्त सभी बुआ से मिलने आएॅं, बेटा बाएॅं हाथ व फुफा दाईं ओर बैठ गए।  तभी फिर से तबीयत बिगड़ी बुआ ने बेटे के हाथ को छोड़ा नहीं और कहा,ः‘‘ मेरे शरीर का दान अस्पताल में दे देना, जाते-जाते कुछ तो अच्छा काम कर दूॅ। साथ ही मुखाग्नि का अघिकार मैं पति को नहीं देना चाहती । बेटा, तुम मुझे गलत मत समझना।’’ फुफा जी के तो पैरों तले जैसे जमींन ही निकल गई ,अवाक् से बस देखते ही रह गए, और बुआ जी के प्राण पखेरु कब बिना इजा़जत के ही उड़ गए। आज मन का क्रोध चूर-चूर हो गया। अपने अधिकार से वंचित होते हुए उन्हें जिस तकलीफ से गुजरना पड़ रहा था उसे व्यक्त कर पाने में असमर्थ थे। बेटे से गले लग फूट-फूटकर रोने लगे। पुरुष सब गवॉं कर ही क्यों सचेत होता है? बुआ के मन की दबी हुई कसक शायद आज शब्द बनकर निकले थे।              
         
                                                                                  --------------- अर्चना सिंह‘जया’
सर्वप्रथम ये कहानी www.ekalpana.net पर प्रकाशितहो चुकी है।

Thursday, October 6, 2016

धरती हिली आसमान फटा ( कविता )



धरती हिली,आसमान फटा
अजीब सा एहसास हुआ।
प्राकृतिक विपदाओं को देख,
मानव  हृदय यूॅं कॉंप उठा।
नभ का हिय छलनी हुआ,
धरा का तन तार-तार किया।
शिशु, युवा से वृद्ध हुए, तब भी
स्वयं की भूल का आभास कहाँ ?
न सोचा था कल का हमने,
जब वृक्षों का नाश किया।
पय को तुच्छ समझ कर हमने,
भविष्य के लिए कहॉं विचार किया?
भू के गर्भ का न मान रखा,
मॉं -बहनों का अपमान किया।
सहन का बॉंध अब टूट पड़ा,
शैलाब ने सारा नाश किया।
तन-मन का दर्द भेद गया,
अश्रु की धार नभ से फूटा।
धरती हिली आसमान फटा
तब भी भूल का न आभास हुआ।  

                     .......अर्चना सिंह‘जया’


Sunday, October 2, 2016

हाड़ मॉंस का इंसान ( कविता )



 हाड़ मॉंस का था वो इंसान,
रौशन जिसके कर्म से है जहान।
प्रतिभा-निष्ठा कर देश के नाम
सुदृढ़ राष्ट् बनाने का था अभिमान।
भारत रत्नका मिला जिसे सम्मान
गूंजे जिसके स्वर कानों में
घर, मुहल्ले गली तमाम।
नारों से जागृत होता इंसान
जय जवान, जय किसान।
हाड़ मॉंस का था वो इंसान,
घड़ी, धोती, लाठी थी जिसकी पहचान
समय के पाबंद रहे सदा ही
लिया किए सदैव प्रभु का नाम।
प्रातः से सायं तक तत्पर रहे
लेते थे कोई विश्राम।
आजादी दिलवाई हमको
सत्य-अहिंसा की बाहें थाम।
हाड़ मॉंस का था वो इंसान।
मॉ के लाल थे दोनों सपूत
उन महापुरुषों का कर सम्मान।
सादा जीवन, उच्च विचार
स्वपन उनके चलो करें साकार।
हलधर बन धरती को गले लगाएॅ,
स्वदेशी बन खादी अपनाएॅ।
राष्ट्पिताको दो यूॅ सम्मान,
दो अक्टूबर को ही नहीं मा़त्र
आजीवन तक करो यह मंत्र जाप।
चलो मन में लाएॅ एक विचार
सत्यमेव जयतेसे गूजे संसार।
बापू-शास्त्री ने देकर योगदान,
मॉं के सपूतों ने रखा, देश का मान। 
हाड़ मॉंस के थे वे दोनों इंसान
रौशन कर गए ,देश का नाम।
       
                                ---  अर्चना सिंहजया

 लाल बहादुर शास्त्री जी व गाँधी जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि

Saturday, October 1, 2016

वे वीर (कविता )


कर्मभूमि को धर्म मानकर
जीवन देश के नाम किए।
हिन्दू नहीं, मुस्लिम नहीं
भारतीय होने का अभिमान किए।
      ऋतु हो चाहे जो कोई भी
      चाहे हो कोई पर्व-त्योहार
      राष्ट् ध्वज थाम हाथों में
      लहू देश के नाम किए।
रिश्तों की चौखट लॉंघ चले
प्रेयसी का दिल तोड़ चले।
घर-ऑंगन का स्नेह मन में
यादों की झोली लिए चले।
      मॉं के पकवान की खुशबू को
      भू की मिट्टी में खोज लिए।
      धूप-छॉंव का आभास कहॉं ?
       व्योम के शामियाने तले
पुत्र, पति,पिता वे किसी के
स्नेह,प्रेम,प्यार के सदके
शीश नमन वतन के लिए
सॉंसें मातृभूमि के नाम किए।
       राष्ट् सेवा का संकल्प वे,
       ऑंखों में साकार किए
       वे वीर कैसे थे ? जिन्होंने
       उम्र देश के नाम किए   
      भारतीय  होने का अभिमान किए।

                                             ------- अर्चना सिंहजया’        
             
            उन  शहीदों   को भावपूर्ण  श्रद्धांजलि ,जो बिना स्वार्थ के ही अपनी साँसे  देश के नाम किए /  


Tuesday, September 27, 2016

एक परिंदा ( कविता )


एक परिंदा छज्जे पर
न जाने कब आ बैठा ?
उसे देख मैं प्रफुल्लित होती
और सोचती
पर होते उसके जैसा।
कभी नील गगन उड़ जाती,
कभी फुनगी पर जा बैठती।
पर नहीं मिले हैं मुझको
पर मन तो सदा उड़ान है भरती।
उस परिंदे के पर सजीले
और स्वर है मिश्री बरसाती।
डाल-डाल पर फुदक बाग में,
मेरे मन को सदा लुभाती।
ईश्वर की अदभुत रचना देख,
बिटिया की चाहत है जगती।
थाम कर बाहों में उसको
कोमल स्पर्श से उसे लुभाती।
पर वो परिंदा, भयभीत हो मानव से
भाव मन के समझ उड जाती।
पिंजरे का वो नहीं है प्राणी,
क्षितिज की चाहत है उसकी भी।
पर न काट, हे मानव
पर ही तो होती है
पहचान 'एक परिंदे' की ।

                     -----------------अर्चना सिंह 'जया'

        [    'पर' शब्द का १० बार प्रयोग   ]


           


Sunday, September 25, 2016

मंगला ( कहानी )

   

मंगल यानि जीवन में सब शुभ ही शुभ। फिर तो मंगला के जीवन में सब मंगल ही मंगल होना चाहिए पर जीवन की कठिन परिस्थितियों से जूझती मंगला जीवन के एक ऐसे पड़ाव पर खड़ी थी जहॉं उसे अपने स्त्रीत्व होने पर गर्व की बजाए अफसोस हो रहा था। हो भी क्यों नहीं ? समाज जैसे पुरुषों के ताने बाने से ही बुना गया हो जहॉं स्त्री की भावनाओं का कोई महत्व ही नहीं था।
     यह बात स्कूल के दिनों की है जब मैं चौथी कक्षा में थी ,मेरी सहेली मंगला एक दिन गुमसुम अकेली बैठी थी तभी मैंने उसके करीब जाकर टिफिन की डिब्बी बढ़ाते हुए पूछा ,‘‘क्यों आज तुम टिफिन नहीं लाई हो?’’ उसने रुवासे स्वर में कहा, ‘नहीं । भाभी मुझसे नाराज हो गईं और टिफिन नहीं दीं।’ मेरे दिमाग में प्रश्न दौड़ने लगे और मैंने पूछा,  ‘ क्यों मॉं .........’। अभी प्रश्न पूर्ण भी नहीं हुए थे कि मंगला रो पड़ी और कही, ‘ मॉं नहीं है।’ बस इतना सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक गई। मैं मॉ के बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। बस, स्कूल में एक मुलाकात और मित्रता का आरंभ हो गया। दोनों प्रतिदिन स्कूल में साथ-साथ ही समय व्यतीत किया करते  उसके चेहरे पर मासूमियत तो थी पर माथे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट नज़र आतीं थीं। घर पर भाभी की डॉंट फटकार ,पिता के पास धन का अभाव और छोटे दो भाईयों की जिम्मेदारी भी मंगला के हिस्से ही आ गई थी। छुट्टी के दिन भाभी के काम में हाथ बॅटाना ,भाईयों के कपड़े धोना आदि जैसे मंगला के समय सारणी में था।
         हमारे घर का माहौल मंगला के घर के बिल्कुल ही विपरीत था। हम तीन बहनें ही थीं। हमें शिक्षा प्राप्त करने में किसी भी प्रकार की पाबंदी नहीं थी, मॉं का सहयोग बराबर ही मिलता रहा। मॉं सदा से ही हमें शिक्षा के महत्त्व को समझाया करती थीं ,स्वावलंबी बनने को प्रेरित किया करती थीं। पिताजी भी बदलते समय के साथ अपने विचारों में भी परिवर्त्तन लाते थे। मंगला की शादी बारहवीं पास होकर ही हो गई थी जबकि मेरी एम ए ,बी एड के बाद हुई थी। शादी के बाद भी मैंने पी एच डी पूरी की। मेरी शादी एक सुशिक्षित परिवार में हुई।
मंगला शादी के पश्चात्् कानपुर चली गई थी। उसका पति इंटर कॉलेज का मास्टर हुआ करता था, शादी के पॉंच वर्ष में ही दो बेटे हो गए थे। मैंने उसे पत्र लिखकर बधाई भी दी,‘‘ अब तो बड़े मजे हो रहे होंगे, ईश्वर ने तुम्हें छोटा और सुखी परिवार दिया है।’’ कई वर्ष बीत गए किन्तु पत्र का जवाब नहीं आया। धीरे-धीरे महीने, साल बीतते चले गए मैं भी अपने परिवार की जिम्मेदारियों में व्यस्त होती चली गई। जीवन के उधेड़ बुन में वक्त का पता ही नहीं चला। मेरी बेटी भी बड़ी हो गई ,उसने एम बी ए बैंगलोर के कॉलेज में दाखिला ले लिया था। मैं जिस स्कूल में पढ़ाती थी उसमें गर्मी की छुट्टियॉं आरंभ हो चुकी थीं तो मैंने मायके जाने का निर्णय लिया। जिस ट्ेन से मैं जमशेदपुर जा रही थी उसी में मंगला भी अपने बड़े बेटे के साथ सफर कर रही थी। एक दूसरे को देखकर हमारे खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा ,मंगला के ऑंखों से ऑंसू छलक पड़े। मैं समझ बैठी कि खुशी के ऑंसू हैं पर ये मेरी भूल थी। घंटों हम दोनों ने बातें की।
           आज मैं कई बातों को समझ पाने में असमर्थ थी। सच ईश्वर किसी की परीक्षा जीवन के अंतिम पड़ाव तक लेता रहता है। ईश्वर पर आस्था की डोर कमजोर पड़ रही थी। मंगला के जीवन पर जैसे शनीचर देवता का प्रभाव हो। पुरुष प्रधान समाज में तो मेरे विचार से पुरुषों का ही दायित्व  होना चाहिए कि वह बहन,बेटी, बीवी व मॉं की जिम्मेदारी उठाए। वह स्त्री के अस्तित्व का मान रखे। आखिर समाज की प्रथा क्या है? कई घरों में अगर स्त्री बेटी को जन्म देती है तो यातनाएॅं सहती है, सुंदर व्यवहारिक कुशल नहीं है तो शादी में मुश्किलें आतीं हैं। किन्तु मंगला तो शिक्षित,कुशल और दो बेटों की मॉं थी फिर क्यों पति के प्यार से वंचित थी?
            अब स्टेशन पर उतर कर हम दोनों ऑटो में बैठ कर अपने अपने घर की ओर चल पड़े। मंगला को लेने उसके जेठ आये थे। मंगला के पति तीन भाई , ये तीसरे नम्बर पर थी। मंगला के बड़े बेटे को कुछ दिमागी समस्या थी वो उसे ही दिखाने रॉंची अक्सर आया करती थी। मैं अपने घर पहुॅंचकर मॉं को मंगला के विषय में बताई। मॉं ने कहा, ‘बेचारी मंगला और उसका नसीब।’ मॉ ने कहा,‘ समय भी लाचार व बेबस होता है उसे किसी के दुःख या सुख से कोई मतलब नहीं होता। उसे पल-पल गुजरना ही पड़ता है वो ठहरना जैसे जानता ही नहीं।’ मॉं की बातें सुनकर मैंने कहा,‘अच्छा ही है न मॉं वरना दुःख के पल थम जाए तो क्या हो?’ ‘ पर बेटा,ये क्या? मंगला के जीवन से दुःख के पल क्यों नहीं गुजर जाते हैं ? हॉं, ये प्रश्न सोचने वाली जरुर थी।
              अगली सुबह हम मेज पर साथ बैठे नाश्ता कर रहे थे पिताजी सब्जी लेने बाजार जा चुके थे। मॉं ने खीर मेरी तरफ बढ़ाया, मैं मॉं की हाथों के खीर की दिवानी थी। उसी पल मैं कुछ सोचने लगी कि मंगला ने कभी शायद ऐसे स्नेह का आनंद ही नहीं जाना होगा।
तभी मॉं ने पूछा,‘क्या बात है? किस सोच में डूब गई ?’
बस मंगला को याद कर खा रही हूॅं। मॉं ,‘क्या मैं उसे किसी दिन खाने पर बुला लूॅं?’
बेशक, जब तुम चाहो बुला लो,माँ ने कहा /
मॉं से ज्ञात हुआ कि मंगला का पति इतिहास का लेक्चरर है। वह कभी भी अपने परिवार को पटना ले ही नहीं गया, मंगला हमेशा अपने जेठ,जठानी,उनके बच्चे और सास के साथ  शहर से  बीस किलोमीटर दूर , गॉंव पर रही। पति समय असमय अपने परिवार से मिलने आ जाया करता था। शायद तनख्वाह की समस्या रही होगी, पर कुछ लोग कहते हैं कि पति का कुछ चक्कर है। दस पंद्रह वर्षों में उसने न कॉलेज बदला और न शहर ही । न ही परिवार को साथ में रखने की इच्छा ही कभी व्यक्त की।  ईश्वर ही जाने क्या सच्चाई थी? मंगला ने उस परिवार को वंश तो दिया पर वंश देने वाली का कोई कद्र ही नहीं था। उसने अपनी जिंदगी से समझौता ही कर लिया था, दोनों बच्चे ही अब उसकी प्राथमिकता थे । उन्हें शिक्षित करने में जुट गई।  
आज मैं समझने में असमर्थ हो रही थी कि आखिर समाज में स्त्रियॉ ही समझौते का पात्र क्यों बनती हैं ?मान-मर्यादा का बोझ उसे ही क्यों ढ़ोना पड़ता है? तभी फोन की घंटी बजी,
‘हेलो’ मैंने कहा।                            
 उधर से महेश की आवाज- ‘ और सुमन तुम ठीक से पहुॅंच गई न, घर पर तुम्हारे पापा मम्मी कैसे हैं ?’
‘हॉं, यहॉं सभी लोग ठीक हैं। अपना ध्यान रखना।’ मैंने कहा।
‘पापा और मम्मी का ‘चेकअप’ करवा देना। वे हमारी जिम्मेदारी हैं पैसे की जरुरत हो तो कहना। चलो बॉय।                        
              महेश , मॉ का दामाद वह बिल्कुल बेटे की ही तरह है। महेश का मानना है कि मेरे माता पिता को बेटे की कमी न महसूस हो। सच मेरे किसी अच्छे कर्म के फल होंगे जो मैंने महेश जैसा पति पाया। मॉं ने पूछा, ‘किससे बातें हो रही हैं?’ मैंने मॉं को गले लगाते हुए कहा, ‘हूॅंमम, तुम्हारे बेटे से। जो बात-बात पर तुम लोगों की खैरियत जानना चाहता है।’ तभी पिताजी ने आवाज लगाई, ‘मेरा बेटा जो ठहरा। लो थैला पकड़ो, सुमन तुम्हारे लिए गरम-गरम जलेबियॉं भी लाया हॅूं ।’ मायके का सुख क्या होता है कोई मुझसे पूछे। मंगला के नसीब में न तो मायके का और न ही ससुराल का सुख था।
               मंगला के जेठ का घर सड़क जहॉ खतम होती थी उसी के चौराहे के पास में था।  तीन दिन के बाद मैंने अपनी कामवाली से मंगला को खबर भेजवाया कि शाम को पास के पार्क में मिलते हैं । शुक्रवार की शाम पॉंच तीस के आस पास हम पार्क में मिले । मंगला की ऑंखें सूजी हुई लग रही थीं, हम दोनों ने बातें करनी शुरु की। मूॅगफली खाते-खाते हम दोनों ने पुरानी यादें ताज़ा की। मैंने उसके पति की चर्चा की तो वो जैसे उदास हो गई। कहने लगी ,‘बस कुछ और पूछ ले । इस रिश्ते में हम क्यों बंधे हैं ? ये हमें भी नहीं पता।
बस मुझे बच्चों की चिंता ही सताती है। उन्हें अपने बच्चों की भी परवाह नहीं रहती । ’
‘उन्हें कोई समझाता क्यों नहीं ? घर में जो उनसे बड़े हैं उन्हें समझाना चाहिए।
‘हमारे रिश्ते में भावुकता का कोई स्थान ही नहीं है। मैं उस परिवार की बहु तो हूॅं पर पत्नी होने का गर्व नहीं महसूस होता है।’                          
 ‘मगर तुम उस परिवार से क्यों जुड़ी ? क्योंकि तुम्हारी शादी उस परिवार के लड़के से हुई है न। ’ मेरा ये कहना ही था कि तभी उसने कहा-
‘चलो छोड़ो, अब आदत सी हो गई है। ज्यादा सोचती हूॅं तो बीमार हो जाती हॅूं।’
‘जीवनभर सिर्फ दूसरों के करने का ठेका ले रखा है क्या? तुम्हारा कोई अस्तित्व है या नहीं। मंगला ,तुम्हारे इसी आदत से मुझे गुस्सा आता है। सभी तुम्हारी अच्छाई का फायदा उठाते हैं।’
  ‘ओह हो! चल रहने दे अब। मुझे सोमवार को रॉंची में डॉक्टर से मिलना है। प्रार्थना कर की मेरा बेटा जल्दी ही स्वस्थ हो जाए।’ मंगला इतना कहते हुए मुझसे लिपट गई और उसकी ऑंखें भर आई। रुवासे स्वर में ही घर वापस जाने की अनुमति ले ली। मेरा गला जैसे भर आया, मैं भी उसे रोक नहीं पाई। हॉं, पैसे की अगर जरुरत हो तो कहना । उसका छोटा बेटा अस्वस्थ रहता था ,कुछ मंद था /       
मंगला में उदारता ,मृदुभाषी, मेहनती,परोपकारी आदि जैसे सभी गुण मौजूद थे किंतु लोगों को नज़र क्यों नहीं आता था ? मैं उससे मिलकर बेचैन हो गई थी, उसके दर्द  ने ईश्वर की आस्था को भी हिला दिया। आखिर उसके जीवन में सवेरा कब होगा ? मंगलवार की सुबह थी गौरैये की चहचहाहट के साथ सूर्य की किरणें अपनी बाहें फैला रही थीं, पिताजी हमेशा की तरह ही बाजार सब्जी लेने निकल गए।  मैं नाश्ता बनाने रसोई में मॉं के साथ चली, मॉं दोपहर के खाने की भी तैयारी साथ-साथ करने लगी थीं। जैसे ही पिताजी बाजार से आए हम साथ बैठकर नाश्ता करने लगे।    
 पिताजी ने पूछा,‘ हूॅ हूॅ ये पोहा जरुर बिटिया ने बनाया होगा।’
 मॉं ने कहा, ‘ हॉ, आपकी लडली ने बनाया है।’
‘मेरे ससुर जी को भी मेरे हाथ के पोहे पसंद आते हैं।’
‘चल सब ईश्वर की कृपा है जो तुझे इतना अच्छा परिवार मिला। बस यॅूं ही सबका ख्याल रखना ।’ पिताजी ने कहा।
सच मैं भी भगवान का शुक्रिया करने लगी। तभी मैंने सोचा मंगला तो कितना पूजा पाठ भी करती है फिर ईश्वर उसकी क्यों नहीं सुनता ? बस मन फिर से मंगला की परिस्थितियों पर विचार करने लगा। तभी मेरी दृष्टि दिवार घड़ी पर पड़ी दोपहर के 12 बजने वाले थे । एक घंटे में मंगला रॉंची से यहॉं पहुॅंचने वाली थी। मुझे इंतज़ार था कि डॉक्टर ने क्या कहा होगा ?
             अचानक  पिताजी बाहर के दरवाजे़ से घबड़ाते हुए अंदर आए और कहने लगे, ‘ईश्वर ने ये अच्छा नहीं किया।’ मॉं पिताजी को पानी देने लगी, मैं बाहर की ओर भागी कि आखिर पिताजी ने ऐसा क्या देखा-सुना ? सड़क पर कोलाहल था सभी चौराहे की ओर भागते दिखाई दिए। मैंने तभी एक व्यक्ति से पूछा,‘ क्या बात  है?’ उसने घबड़ाते हुए बताया कि सड़क दुर्घटना हुई है मॉं-बेटे दोनों ही नहीं रहे। मैं फिर भी समझ नहीं पाई। कुछ-कुछ आगे बढ़ती गई, मन व्याकुल सा होने लगा। तभी उधर से मेरी कामवाली भागती हुई आई , मुझे रोकते हुए बोली,‘ दीदी आप मत जाओ उधर नहीं देख पाओगी, मंगला और उसके बेटे का चेहरा पहचाना नहीं जा रहा है। पुलिस भी आई है।’ मैं चीख पड़ी ,‘अम्मा ये क्या कह रही हो ? कुछ गलतफहमी हुई होगी तुम्हें ।’ ‘मंगला के साथ इतना भी बुरा नहीं हो सकता’ कहते-कहते मैं बेसुध हो गई।                                                          
 रात में जब मेरी ऑंखें खुलीं तो मैं स्वयं को अपने बिस्तर पर पाई, मॉं- पिताजी पास में ही बैठे थे। मॉं ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,‘ जो ईश्वर की इच्छा। उसके आगे हमसब बेबस हैं।’ मैं फूट-फूट कर रोने लगी, मॉ ने बहुत समझाया। मैं समझने की कोशिश कर रही थी पर मेरे सवाल अभी भी वही थे कि क्या मंगला के जीवन में कुछ मंगल था भी कभी ? वो सिर्फ नाम की ही मंगला थी।
                                                       
                                                                                               ---------- अर्चना सिंह‘जया  
                                               

Monday, September 19, 2016

एक शाम (कविता )


पंछी भी मुख मोड़ चले
अपने नीड़ की ओर।
मैं खड़ी अटेरी पर
थामें  शाम की डोर।
मन व्याकुल हो चला
पी का कहॉं है ठौर ?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।
    पलकें रह-रह राह बुहारती
    कंगन भी करतें हैं शोर।
    कब ऑंखों की प्यास बुझेगी ?
    कब नाचेगा मन मोर ?
    ये एक शाम की बात नहीं
    नित मन होता भाव विभोर।
किस दिगंत आवाज लगाऊॅं ?
सुन ले ना कोई और
मन का पीर मन ही जाने
पिय न समझे,न कोई और
चार पहर है गुजर चुका
कब गूॅंजेगा मधुकर का शोर?
ये एक शाम की बात नहीं
नित हो जाती भोर ।                  
                       
                                         -------अर्चना सिंह जया    

Tuesday, September 13, 2016

हरि हो गति मेरी..............गौरी दिवाकर की प्रस्तुति

गौरी दिवाकर अंतर्राष्ट्रीय  स्तर की नृत्यांगना है, आज उसकी पहचान राष्ट्र  में ही नहीं विश्व में भी प्रख्यात है। जैसा कि उसके नाम में ही ख्याति का सार छुपा है। गौरी यानि शिवा, अम्बिका शक्ति की अपार भंडार, दिवाकर यानि सूर्य,भानू जिसकी योग्यता में ही सूर्य-सा तेज फिर किसी भी प्रकार की बाधा उसे अग्रसर होने से नहीं रोक सकी। हर भीड़ को चीरती हुई वह अपने लक्ष्य तक पहुॅंच पाने में सक्षम हो पाई और आज विश्व के कोने-कोने तक अपने शौर्य का पंचम लहरा पाने में सफल हो पाई है। जमशेदपुर से दिल्ली तक का सफर संघर्ष पूर्ण भी रहा पर हौसला कभी थमने को नहीं आया, आज ये उसी मेहनत का परिणाम है। गौरी दिवाकर को 2008 में उस्ताद बिस्मिलाह खॉन युवा पुरस्कार संगीत नाटक एकादमी की तरफ से नवाज़ा गया।



                ये बात उस शाम की है जब मेरा मन प्रेमभाव से यूँ रंग गया था जैसे शहद दूध में, मिसरी जल में घुल जाती है। अगर मैं श्रेय दूॅ तो यह 15 जनवरी 2016, 7.30 की उस शाम को जाता है जहॉं अदिति मंगलदास जी के सानिध्य में मिस गौरी दिवाकर द्वारा प्रस्तुत नृत्य ने श्री राम सेंटर,नई दिल्ली के हॉल में सुफियाना समॉं बॉंध दिया था। मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकती हूॅं कि उस हॉल में उपस्थित सभी दर्शकगण का मन उस पल प्रेम रंग से भींग चुका था। उस संध्या की बेला में समय की गति जैसे मद्धिम हो चली थी, देखने वालों की ऑंखें कौंध-सी गई इसका पूरा श्रेय गुरु बिरजू महाराज जी , जयकिशन महाराज जी  और अदिति मंगलदास जी को जाता है,जिनके आशीष  की छाया सदैव गौरी दिवाकर पर बनी हुई है। साथ ही गौरी की असीम प्रयास व कठिन परिश्रम ही है जो उसे इस मुकाम़ तक पहुॅंचाया।
                         कृष्ण  का प्रेम संदेश जो विश्वविख्यात है उसी संदेश की प्रेम वर्षा नृत्य और संगीत के माध्यम से हो रही थी। नृत्यांगना गौरी दिवाकर की गति हरि की ओर ही हो चली थी, दर्शकगण तन-मन से हरि के रंग में तल्लीन हो रहे थे। श्री समीउल्ला खॉन ने तो अपनी मघुर संगीत का जादू ही बिखेर दिया। गौरी के अन्य साथीगण योगेश गंगानी,आशीश गंगानी व मोहित गंगानी जी का सहयोग भी सराहनीय था। गौरी दिवाकर के हावभाव ,ताल और खॉन जी का स्वर दोनों ही लोगों के तन-मन के तार को झंकझोर रहे थे। नृत्य व संगीत दोनों ही एक रंग हो चले थे, तालियों की गूॅंज हौसले को बुलंद करने का साहस दे रहे थे। नृत्य की गति थमने को नहीं आ रही थी। शाम की वो छटा ने धर्मों के बंधनों से परे कहीं ये  स्पष्ट  करते नजर आ रहे थे कि प्रेम का रंग एक ही है इसका कोई मज़हब नहीं होता । उसका नृत्य अध्यात्म के संपर्क में ला सकने में सक्षम हो चला था। हम इंसान मज़हबों की डोर से इसे बॉंधने की भूल कर जीवन रस का आनंद लेना ही भूल जाते हैं। सच,
         धर्मों के बंधन से ,परे थी वो शाम।
         कानों में रस घोलती स्वर ,थाप व ताल ।
नृत्यांगना की लय-ताल की गति सचमुच हरि की ओर खींचती चली जा रही थी, वो तो पूरी तरह से ‘‘हरि हो गति मेरी ..........’’ में गतिमान हो चली थी,एकाकार हो चली थी। नृत्य की भावाभिव्यक्ति सभी के  हृदय  को छू रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी उपस्थित लोग हरि हो गति में..... यानि वो भी हरि को समर्पित होते जा रहे थे ,सच इतनी कम उम्र में ही ये महारत हासिल करना अपने आप में ही चुनौति पूर्ण कार्य है। समय-समय पर उसकी प्रस्तुति देश-विदेश में देखने को मिलती है। गौरी जैसी महान कलाकारा स्वयं के साथ-साथ माता-पिता, गुरु व देश का नाम भी रौशन करती है।

                                                                             .....................अर्चना सिंह जया