सड़क पर रुकी थी,गाड़ी अभी
दौड़ती-भागती एक लड़की, आई तभी
आवाज़ लगाती,‘‘बाबूजी बाबूजी
भूख लगी है जोरों की,
हूॅं भूखी मैं कल की।’’
शायद!अनाथ वो जान पड़ती थी,
भाई-बहन की दुहाई वो देती थी।
दया भावना लगी थी जगने
थैले से निकाल बिस्कुट,केले दिए हाथ में।
लपक कर थामी दोनों हाथों से
फिर सरपट भाग गई, सड़को पे।
मेरी नज़र लगी, झट खोजने उसे
किधर गई और आई किधर से ?
मन के तार छेड़ कर चल दी,
विचलित मन से हॅूं सोचती यही।
मेरी ही उम्र की थी वो लड़की,
मैं सुख के साये में पली बढ़ी
भाग्य की थी,शायद वो कुछ बुरी।
अपने स्वप्न को ताले लगाकर,
बचपन को चौराहे पर लाकर।
पेट की तृष्णा से वो थी जूझती,
दुनिया के ताने मौन ही सहती।
संघर्षपूर्ण जीवन देखकर उसका
ऑंखों में पानी भर आया।
न जाने कोई ईश्वर की माया,
हमने जो पाया बहुत है पाया।
आज मन कुछ इस तरह
खुद को है समझाया।
............... अर्चना सिंह जया
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