वास्तविकता से परे हम नहीं रह सकते,
बनावटी जीवन, पर्दे पर ही सीमित हो सकते।
सच्चाई से मुख मोड़कर, नहीं अग्रसर हो पाएँगें,
पर दूरदर्शन पर वास्तविकता कैसे यूँ दिखलाएँगें?
जीवन मृृत्यु में भी तबदील हो जाएगी कहीं,
गर यूँ ही झाँकते रहे, दूसरों के जीवन में सभी।
माना जीवन में कुछ खट्टे-मीठे पल भी गुजरते हैं,
पर क्यों रियलिटी-शो बनाकर,उसे प्रस्तुत करते हैं।
दूसरों को परखने से पहले,स्वयं से क्यों भ।गते हो?
ईश्वर सूत्रधार है,धरा की इस रंगमंच का
लोग कैसे थाम सकते हैं ? डोर दूसरों के जीवन का।
आओ बढ़ाएँ कदम मिलकर, बनाएँ नूतन आज
न उड़ाने दें मजाक, औ न जिंदगी का करें उपहास ।
----------अर्चना सिंह ‘जया‘
साहित्य गुंजन पत्रिका में , इंदौर सें प्रकाशित हो चुकी है।
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