Saturday, May 21, 2016

खुला आसमान (कहानी)

कहानी
                     
   संध्या की बेला और बाहर हल्की बारिश , मैं खिड़की से सटी हुई पलंग पर बैठी बाहर देख रही थी। पत्तों पर गिरती पानी की बूँदें निश्छल स्वच्छ सुंदर चमकदार नजर आ रही थी । नजरें जैसे नन्ही-नन्ही बूँदों पर टिकी हुई थी कि तभी राशि ने मुझे आवाज लगाई,‘ दादी ,आप क्या कर रही हो ? मुझे एक अनुच्छेद लिखवा दो न।’
मैंने विनम्रता से कहा,‘जाकर अपनी मम्मी से लिखवा लो न। मुझे क्यों परेशान कर रही हो ? उस दिन अनुराधा घर पर ही थी, मन कुछ अनमना होने के कारण ऑफिस नहीं गई थी।
राशि ,मेरी पोती बहुत ही प्यारी सातवीं कक्षा में पढ़ती है,उसकी माँ बैंक में कार्यरत है यानि मेरी बहू अनुराधा। मेरा बेटा नवीन प्राइवेट सेक्टर में कार्य करता है। दोनों ही मिलजुल कर काम करते ,विचारों के सुलझे हुए हैं। कभी अगर नोंक झोंक हो भी गई तो एक दूसरे से सुलह भी पल में ही कर लेते हैं। नवीन कॉफी बना लाता और फिर दोनों हँसते हुए कॉफी पीने का आनंद लेते। अनुराधा समय से ही घर आ जाया करती है कभी अगर देर हो भी गई तो नवीन उसे लेने चला जाता। छुट््टी के दिन हम सभी कभी लूडो या कैरम खेलते, कभी सीडी में नई फिल्म देखते। किन्तु मैं सभी फिल्में नहीं देखती , एक ही घर में रहते हुए भी उन तीनों को अपनी जगह देने का प्रयास करती हूँ। आज भाग दौड़ की जिंदगी में पति-पत्नी को अपनी जगह तो चाहिए ,ताकि नजदीकी बनी रहे। आखिर उनकी खुशी में ही मेरी भी खुशी है। राशि को कुछ-कुछ चीजें मेरी ही हाथों की अच्छी लगती है, जैसे हलवा, मठरी, गुझिया, नारियल के लड््डू ।
      राशि ने मेरी चुन्नी खींची और कहा,‘दादी, आप मेरी हिन्दी टीचर हो और आपकी वजह से ही मुझे हमेशा अच्छे अंक आते हैं। मैंने सोचा अब ये यूँ नहीें मानेगी, मुझे लिखवाना ही होगा। मैं हिन्दी की अध्यापिका रह चुकी थी, 18 वर्ष  तक मैंने भी सर्विस की किन्तु अब कमर दर्द को लेकर परेशान रहने लगी थी। मैंने सर्विस जरा देर से आरम्भ की जब मेरे तीनों बच्चे स्कूल जाने लगे। वे स्वावलम्बी हो गए थे , मुझे सिर्फ उनके खाने की चिंता हुआ करती थी। आज दोनों बेटियाँ अपने ससुराल में स्वस्थ व खुश हैं। मैंने राशि से पूछा, ‘अच्छा ! अब बता किस विड्ढय पर अनुच्छेद लिखना है?’ राशि खुश हो कर बोली, ‘परिवार का महत्व’। सबसे पहले तुम ये बताओ कि परिवार का अर्थ तुम्हारी दृृष्टि में क्या है? फिर तो मैं तुम्हें लिखवा ही दूँगी। उसने बड़े ही सुंदर और सहज भाड्ढा में अपनी बात कहनी आरम्भ कर दी। मैं उसकी बातों को धैर्यता से सुन रही थी किंतु सुनते-सुनते ही मैं कहीं और खो रही थी।
      सच ही कहा है बाल मन बहुत ही कोमल होता है उनकी अपनी सोच अपने नजरिये होते हैं। शायद हम बड़े कभी भी उनकी नजर से बातों को समझने को तैयार नहीं होते और न ही छोटों को अपनी राय देने की इज़ाजत देते हैं। बच्चे दिल से  निर्णय भावुकता वश अवश्य लेते हैं किन्तु हम बड़े बुद््धिजीवी कुछ अनुचित निर्णय ले लेते हैं। आज मुझे अपने स्कूल के वो दिन याद आ गए जब मैं 7 वीं कक्षा ब को हिंदी पढ़ाती थी। मुझे बच्चों से बेहद लगाव था? एक दिन मैंने कक्षा के सभी बच्चों से परिवार के विड्ढय में पूछा कि उनके घर पर कितने सदस्य रहते हैं और उनसे रिश्ता क्या है? सभी बच्चे  उत्सुकता व्यक्त करते हुए अपनी-अपनी बातें कहने लगे। कई मुख्य जानकारी बच्चों से मिली और उसी में मैंने कुछ बातें जोड़ते हुए कई जानकारी और भी दी। कक्षा में दो पक्ष बना कर एकल परिवार व सामूहिक परिवार पर चर्चा की गई। चर्चा समाप्त करते हुए मैंने उन सभी बच्चों को गृृहकार्य दे दिया। ‘परिवार के महत्व’ के विड्ढय पर लिख कर लाएँ।
   अगले ही दिन बच्चे गृृहकार्य पूरा कर लाए और सभी अपनी कॉपी को एकत्रित कर स्टॉफ रुम में मेरी मेज पर पहुँचा गए। मैं अपनी समय-सारणी के अनुसार ही थोड़ी-थीड़ी कॉपी की जाँच आरम्भ कर दी। दूसरे ही दिन अचानक एक कॉपी मेरे हाथ आई नाम रेणू था, उसके अनुच्छेद लेखन को पढ़ी तो आश्चर्य चकित रह गई। उसने अपने अनुच्छेद में अपने परिवार की चर्चा करते हुए कई ऐसी बातें लिख गई थी जो हम बड़े होकर भी नजर अंदाज कर देते हैं। अनुच्छेद की कुछ लाइनें इस प्रकार थीं, हमारे घर में तीन ही लोग हैं । सभी अपने -अपने कमरे में रहतें हैं, बात करने या हँसी की कोई आवाज नहीं आती अगर कुछ सुनाई देती है तो पापा के लड़ने की आवाज । मम्मी खामोशी से शांति बनाए रखने के लिए सब बातों पर पर्दा डाल देतीं हैं। पापा प्रतिदिन देर से आते और कुछ न कुछ बहाना खोज कर मम्मी से लड़ पड़ते हैं। मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती, वरना मुझपर हाथ भी उठा देते । पर्व त्योहार पर भी हमारे जीवन में रंग नहीं भर पाते। पापा को.......  इतना पढ़ना ही था कि तत््काल ही मैंने रेणू को बुलवाया और अकेले में उससे बात की। मैंने पूछा,‘ रेणू तुमने अनुच्छेद में क्या लिखा है? रेणू चुपचाप खामोश सी हो गई। मैंने अपने करीब करते हुए बहुत प्यार से पूछा, क्या बात है? रेणू की बातों में बगावत स्पष्ट नज़र आ रही थी, मुझे उस घर में नहीें रहना , पापा अच्छे नहीं हैं । मम्मी सारे दिन काम करती और पढ़ाई में भी मेरी मदद करती है। देर रात खाने पर पापा का इंतजार भी करती हैं पर पापा सदा ही नाखुश रहते । साथ ही मम्मी के हाथ में खर्च करने को पैसे भी नहीं होते हैं। मैं उस चोट खाई बाल मन की पीड़ा को समझ रही थी , उसे अपनी बातों से समझाने का प्रयास कर रह थी।
   कहते हैं बच्चों का मन नन्हें पौधों की तरह होता है उसकी देखरेख जिस प्रकार की जाए वैसा ही बढ़ता है । कहीं न कहीं परिवार के माहौल का प्रभाव बच्चे पर पड़ता ही है। अब मैं हरदिन रेणू से मिल कर एकांत में बात करती थी और उसे समझाती कि तुम्हें अपनी मम्मी के लिए एक अच्छा इंसान व आत्मनिर्भर बनना है। रेणू ने मेरी बातों को समझते हुए कहा,‘ मैं आत्मनिर्भर हो कर मम्मी को सारी खुशियाँ दूँगी।’
      राशि ने मुझे हिलाते हुए कहा,‘ दादी आप तो मेरी बातें सुन ही नहीं रही हो मैं दोबारा से नहीं कहूँगी अब आप ही पूरा अनुच्छेद लिखवाइएगा। राशि ने मम्मी से शिकायत की कि मम्मी देखो न दादी मेरी मदद ही नहीं कर रही है। तभी अनुराधा मेरी चाय की प्याली लेते हुए आई शायद उसने मेरी नम आँखें देख ली और राशि को कुछ अन्य विड्ढय पढ़ने के लिए कही। अनुराधा मुझसे पूछ बैठी ‘क्या हुआ माँ आप कुछ परेशान हो?’ मैंने रेणू दास के विड्ढय में बात करते हुए उस घटना का जिक्र कर दिया।  अनुराधा भी भावुक  हो उठी किन्तु दूसरे ही पल उसने पूछा ,‘ रेणू कहाँ की रहने वाली थी ? देखने में कैसी थी ? मैंने बताया  कि रेणू दास की आँखें नीली , घुँघराले बाल,छोटे कद की और लिखावट सुंदर हुआ करती थी। अनुराधा ने कहा ,‘ माँ, आप चिंतित न हों। आप के आशीड्ढ से वो अवश्य ही जीवन में सफल हुई होगी। ’ ये कहते हुए अनुराधा बालकनी में चली गई और फोन पर किसी से बातें करने लगी। मैं अपना मन बहलाने के लिए राशि के पास चली गई।
    तभी आधे घंटे में अनुराधा ने आवाज लगाई,‘मम्मी जी कोई आप से मिलने आया है।’ मैं सोच में पड़ गई कि इस वक्त तो मेरी सहेलियाँ योगा क्लब में जातीं हैं कौन मुझसे मिलने आया होगा ? मैं जैसे ही डाइंग रुम में आई, देखी एक मेरी ही बहु के उम्र की लड़की सामने खड़ी थी जिसकी शकल कुछ-कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी। वो आगे बढ़कर मेरा पैर छूई और कहा , मैम मुझे पहचाना नहीं, मैं रेणू। रेणू दास। मैं बिल्कुल स्तब्ध सी रह गई। ये कैसे मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मैं कभी अन्नु की ओर देखती तो कभी रेणू की ओर। माँ मैंने जब आपकी बात सुनी तो मुझे शक हुआ फिर मैं रेणू को फोन कर सारी बात बताई। हाँ, मैम और फिर मैं तो खुद को रोक नहीं पाई। मैं और अनुराधा एक ही साथ एक ही ऑफिस में हैं।
     रेणू और मैं गले मिले , फिर मैंने माँ और पिता के विड्ढय में पूछा कि कैसे हैं? रेणू पूर्ण रुप से संतुष्ट व खुश नजर आ रही थी। उसने कहा,‘ मैम,आप मेरे घर पर आओ माँ से मिलवाऊँगी। फिर मैंने टोकते हुए कहा, पापा कैसे हैं? पापा की तो बात ही मत करिए वो अब हमारे जीवन में नहीं हैं, उन्होंने हमें छोड़कर दूसरी शादी कर ली। रेणू ने आँसू छुपाते हुए कहा,‘ कोई नहीं मैम जो होता है अच्छे के लिए होता है। हमारे जीवन में अब खुशी के पल लौट आए हैं, मुझे खुला आसमान मिल गया है। अब हम खुली हवा में साँस ले रहे हैं। अनुराधा मैम, मैम को लेकर घर पर जरुर आइएगा। कल रविवार है, हम साथ मिलकर दोपहर का खाना खाएँगें। माँ भी आप से मिलकर बहुत खुश होगी। रेणू की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा।

                                             -अर्चना सिंह जया 

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