कहानी
संध्या की बेला घर आँगन में चहल-पहल, चारों ओर रौनक ,बिटिया की शादी जो थी और मैं एक दीवार पकड़ कर बैठ ,आसमान देखने लगी। न जाने मन मुझे किस ओर ले जा रहा था ? दिसम्बर का महीना था,शायद बेटी की विदाई की चिंता थी। नहीें ,वो भी नहीं। फिर आज अकस्मात् ही माँ की याद कैसे आ गई ?माँ शब्द मुझे कभी सुकून नहीं देता था, तब भी वर्षो पीछे मेरा मन आज मुझे ले उड़ चला। वैसे देखा जाए तो माँ ने मुझे जन्म तो जरूर दिया था पर शायद कुछ बात तो थी जो मुझे रह रहकर बेचैन कर देती थी।क्यों माँ के प्यार को मैंने कभी महसूस नहीं किया ?न जाने कई प्रश्न समय असमय मुझे परेशान करते थे। माँ के स्नेह के स्पर्श की चाह आज भी क्यों मन में बनी हुई थी ?तभी एक प्रश्न स्वयं से किया ,क्या मैंनेे अपने माँ होने का फर्ज निभाया है ?इस बात का जवाब मुझे कौन देगा ?
तभी सहसा ही मैं चौंक गई, मेरी बिटिया ने मुझ पर शाल डालते हुए कहा,‘‘ माँ,आप तो अपना ध्यान बिलकुल ही नहीं रखती हो। कल मेरे जाने के बाद क्या होगा? सबका ध्यान तो रखती हो और स्वयं के लिए लापरवाह हो जाती हो।’’ इतना कहते ही झट से गले लग कर रो पड़ी। माँ और बेटी का अर्थ मैं तब कुछ-कुछ समझ रही थी लेकिन इतनी उम्र निकल जाने के पश्चात् ये कैसी विडम्बना थी? मुझे मेरी माँ के स्नेह के स्पर्श की चाह आज भी क्यों मेरे मन में बनी हुई थी ? आज की रात गुजर जाएगी तो कल की सुबह आएगी जो कोलाहल से भरा संवेदनपूर्ण होगी। मुझे मेरी बेटी की विदाई करनी है ,न जाने कितने सपने मैंने अपनी बेटी के लिए देखे थे। सारा घर रिश्तेदारों से भरा था फिर भी मैं खुद को उस एक पल के लिए अकेली महसूस कर रही थी। ऐसा क्यों था? पति भी कार्यभार संभालने में व्यस्त थे तथा अतिथियों की आवाभगत करने में लगे हुए थे।
मुझे अपने बचपन की वो शाम याद आ गई जब हम दो बहनें और दो भाई आपस में लड़ते झगड़ते थे। तभी माँ- बाबूजी की डाँट से सिमट कर एक-एक दिशा में जाकर बैठ जाते थे। मैं अपनी दीदी से दो साल ही छोटी थी। दोनों भाई मुझसे भी छोटे थे। माँ बाबू जी की सोच में लड़के ही घर का चिराग हुआ करते थे। हम दो बहनें जैसे एक दूसरे को ही बड़े करने में सहायक थीं। माँ ने हम दोनों बहनों को ज्यादा समय के लिए गाँव में ही रखा। हमारी पढ़ाई उनकी नज़र में कोई विशेष अर्थ नहीं रखती थी। लड़कियाँ पढ़कर क्या करेंगी ? उन्हें घर ही तो संभालना है इस प्रकार की बातें घर में हुआ करती थीं। आज मैंने अपनी बेटी को बी ए ,एम ए करा दिया है। अपने फर्ज को मैं निभाने की कोशिश कर रही थी।
आज मेरा मन न जाने क्यों व्याकुल-सा हो रहा है? माँ की कई खट्टी-मीठी बातें याद आ रही हैं। मैं और मेरी दीदी दोनों ही आठ साल की उम्र से ही दादी, चाचा, चाची, बुआ के साथ गाँव में ही रहते थे। माँ ने कभी अपने साथ रखने की जरूरत ही नहीं समझी या यूँ मैं समझूँ की उन्हें हम दोनों बहनों से कोई विशेष लगाव ही न था। चाची जी की भी दो बेटियाँ ही थीं जो हमसे भी छोटी थीं। बचपन न जाने कब गुजर गया और हम दोनों बड़े हो गए। जब कभी मैं माँ को याद कर रोने लगती, दीदी अपनी गोद में मेरा सिर रखकर सहला देती और ढेर सारा स्नेह बिखेर देती। मैं जब कभी माँ को भला बुरा कहती दीदी मुझे डाँट देती और समझाती की माँ को ऐसा नहीं कहते। चाची भी सुन लेती तो मुझे समझाती, प्यार से कहती थीं कि मेरी तो चार बेटियाँ हैं। माँ बाबूजी की मजबूरी समझो ,वहाँ तुम सब को वे कैसे रख सकते हैं ?
आज जब मैं पचपन साल की हो गई हूँ तो मेरा मन मुझसे ही सवाल करता है। माँ बाबूजी की ऐसी क्या मजबूरी रही होगी , मेरा मन सहजता से नहीं मानने को तैयार होता है। दीदी की शादी भी चाचा चाची ने मिलकर तय कर दी। माँ बाबूजी पाँच दिन पहले आए और दीदी के हाथ पीले कर देने की तैयारी करने लगे।दीदी की विदाई के दिन मैं खूब रोई, जैसे मेरे शरीर से आत्मा को अलग किया जा रहा हो। माँ बाबूजी के पास जाकर मैं खूब रोई और साथ चलने की जिद्द कर बैठी। माँ की बातों से मेरा मन टूट गया वो चाची जी से कह रही थी, ‘इसके लिए भी अब लड़का खोजना शुरू कर दे। वरना दीदी को ही याद कर रोती रहेगी।’ बाबूजी ने कहा,‘ रो मत बाँवली आम के मौसम में हम फिर आएँगें। तुम्हारे भाई भी तो, तुझ से मिलने को परेशान रहते हैं।' जानता है छोटे ,मास्टर जी इन दोनों की तारीफ करते नहीं थकते हैं। वे कहते हैं कि दोनों बेटे नाम कमाएँगे । बस इनकी जिंदगी बना दूँ तो मेहनत सफल हो जाए। समय जैसे रेत की तरह हाथ से निकलता जा रहा था। सब कुछ फिर धूमिल होता नजर आ रहा था। अगले ही दिन माँ बाबूजी सभी चले गए।
मेरे अकेलेपन का साया मुझे घेरता ही जा रहा था। तभी मेरी बेटी जिसकी शादी थी चाय लेकर आई और गले लग कर बोली, ‘ माँ कल से अपना ध्यान रखना, मुझे डोली में बिठाकर अपना मन छोटा मत करना। जब याद करोगी मैं मिलने आ जाऊँगी।’ मुझे विदा करने का सपना, आप दोनों ने ही तो देखा था। ‘ बिटिया जरा इधर भी सुनना’- पति ने आवाज लगाई। बस तभी मुझे अपनी विदाई याद आ गई/
गर्मी का माह था, दीदी जीजाजी आ गए थे। घर रिश्तेदारों से भरा था, सभी के चेहरे पर रौनक थी सिवाय मेरे। आँगन में गीत संगीत का माहौल था। चाची और माँ मुझसे मिलने कोहबर में, जहाँ नव वरवधु को बैठाते हैं, मिलने आईं।चाची फूट फूटकर रो रही थीं। कल से ये घर-आँगन सूना हो जाएगा, बिटिया ससुरालचली जाएगी। तभी माँ भींगी पलकें लिए मेरी ओर बढ़ी और कहने लगीं,‘ कल बेटी को डोली में बिठाना है ये यकीन नहीें हो रहा है।’ न जाने माँ की बात कानों में पड़ते ही मैं क्यों तीव्र हो उठी और पलटकर जवाब दी, ''क्यों माँ अब आने की क्या आवश्यकता थी ? मुझे डोली में चढ़ने का ढ़ंग आता है,स्वयं ही चढ़कर ससुराल भी चली जाऊँगीं।'' मेरा ये कहना ही था कि कमरे में सन्नाटा सा छा गया। मैंने अपना दिल हल्का करने के चक्कर में माँ के दिल का बोझ शायद बढ़ा दिया।
तभी पानी की कुछ बूँदें चेहरे पर गिरीं मैं ख्यालों से बाहर आई , मेरे पति ने हाथ बढ़ाते हुए कहा,‘सरला यहाँ अकेली बैठी क्या सोच रही है, चलो उठो। कल हमें अपनी बेटी को डोली में विदा करना है।’ मैंने नजरें उठाई तो जैसे आज मेरे जीवन के सपने अपनी बाहें फैलाए खड़ी थी। बड़ी बेटी भी बाहें फैलाए थी, सभी को मेरी चिंता हो रही थी। सभी अपना प्यार प्रकट कर रहे थे और जो छोटी बेटी 12वीं में थी वो गले से लग गई। बेटियों का ये प्यार देख मुझे अपने परवरिश पर गर्व होने लगा। आज मैं माँ के दायित्व को निभाकर और बेटियों का लाड पाकर पूर्ण संतुष्ट थी।
------- अर्चना सिंह ‘जया’
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