Meri Selected Rachna🙏🙂✍
मेरी चयनित, स्वरचित और मौलिक रचनाएँ आपके समक्ष।
सागर ऊर्मि की तरह मानव हृदय में भी कई भाव उभरते हैं जिसे शब्दों में पिरोने की छोटी -सी कोशिश है। मेरी ‘भावांजलि ’ मे एकत्रित रचनाएॅं दोनों हाथों से आप सभी को समर्पित है। आशा करती हूॅं कि मेरा ये प्रयास आप के अंतर्मन को छू पाने में सफल होगा।
" मैं और मेरी चाय "☕
मैं और मेरी चाय आपस में अक्सर ये बातें करती हैं,
तन्हाई में सवाल, मुझसे पूछा करती है।
मैं नहीं होती तो प्रातः,तू करती किसका इंतज़ार ?
कोमल हाथों के स्पर्श का प्रतिदिन, मुझे रहता इंतज़ार।
होंठो से लेती हर सिप में महसूस होता है प्यार ,
सिर्फ तुम्हें ही नहीं मुझे भी रहता, तुम्हारा इंतज़ार।
मैं सिर्फ चाय नहीं ,हूँ तुम्हारा प्यार, संगी साथी, सहचर,
तुम्हारे सुख में और दुख में भी नहीं छोड़ती साथ।
सच ही कह रही हो - डीयर चाय
बिस्कुट, सैंडविच,आलू पराठे,पकौड़े संग भी
निभाती आई हो अपना साथ।
गुन गुनी गर्मागर्म भाती हो हर बार,
शीत काल में तुम सा नहीं कोई यार।
जितनी भी तारीफ करूँ कम लगती हर बार ,
रिश्तों से मिले दर्द अपनों से मिली रुसवाई में भी
कभी भी प्याली ने नहीं छोड़ा साथ।
चाहे ऋतु हो जो कोई भी या हो दिन-रात,
थाम हाथ में महसूस होता,
जैसे दूर करती हो तन्हाई और हर लेती पीर।
अंतर्मन पुलकित हो उठता और
आंखों में झलक उठता मधुर प्यार।
मैं और मेरी चाय प्यारी,हमजोली है मेरे जीवन की।
" मैं तुम्हें फिर मिलूँगी "
मुझे है यकीन ,मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।
अगले जनम में ही सही माँ,
तेरी कोख से ही जन्मूँगी।
माना कि तू मजबूर थी,
सामाजिक कुरीतियों की शिकार थी।
पर मेरा क्या दोष बता माँ,
क्यों जग को नहीं भाया मेरा आना?
मुझे भी था खेलना दौड़ना,
देखना था बाबुल का अंगना।
आंगन की धूल भी तो न ले जाती,
मायका- सासरे को सँवारती।
काश! मैं भी पहन जो पाती,
पिया के हाथों सुहाग का कंगना।
मुझे है यकीन,
मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।
आवाज लगाना माँ तू मुझको,
तेरी परछाई बनकर लौटूँगी।
लड़ना है अपने अधिकार की खातिर,
संग-संग तेरे अस्तित्व का भी मान रखूँगी।
बाबा का ही मात्र नहीं माँ,
गाँव,शहर,राष्ट्र का नाम रौशन करूँगी।
पुत्र के संग-संग मैं पलूंगी,
पुत्री हूं, घर की फुलवारी में सजूँगी।
भ्रूण हत्या न करना बाबा,
ईश्वर से मांग लाना मुझको,
माफी मैं खुश होकर दे दूँगी,
हाँ, मैं तुम्हें फिर जरूर मिलूँगी।
वो आखिरी सफ़र...
नहीं कुछ अपना है जहां,
जुटाने में निकल गई जिंदगी वहां।
हर इक लम्हा कुछ धूप-छांव सा,
सुख दुःख संग गुजरता गया कारवां।
वो आखिरी सफ़र थी,
जिंदगी की चंद सांसें बचीं थीं जहां।
जीवन चादर के ताने-बाने में,
सुबह से शाम फिसलती हुई जिंदगी।
जुटाया भी, जुगाड़ भी करती गई,
फिर भी यथार्थ में,
खाली हाथ आई जिंदगी।
वो आखिरी सफ़र...
तोड़ा मरोड़ा वक्त ने हमें हर लम्हा,
अनोखा एहसास हुआ तो हमें भी।
कुछ सुनी अनसुनी है कहानियां,
बहुत कुछ सीखा गई जिंदगी।
वो आखिरी सफ़र,
अपनों से दर्द, गैरों से शिकवा
ज़ख्मों पर नमक छिड़क रही थी।
जीवन का नया तजुर्बा देकर,
आगे आगे चलती गई फिर भी जिंदगी।
कुछ स्वप्न पूरे, कुछ अधूरे ही,
रंगों से दूर हो रहे थे अरमान सभी।
वो आखिरी सफ़र था,
हमने भी आंसू पोंछे और
हंसकर कहा अलविदा जिंदगी।
दोबारा जो कभी मुलाकात हो भी गई,
अनजान बन, पहचानना न फिर कभी।
"पश्चाताप" कहानी प्रकाशित हो चुकी है।😊 https://www.ekalpana.net/post/archanasinghmarch2021story
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना जिसे सराहा गया।
किसान की रैली क्यों शर्मसार कर गई ,
हिंसा को बढ़ावा देकर तलवार हाथ में थाम,
लोकतंत्र की आड़ में ऐतिहासिक कहानी लिख गई।
लाल किले के दामन पर कर तांडव नृत्य,
किसान ने क्यों थामा अराजकता का हाथ,
"अहिंसा परमो धर्म" जिस देश की है शान,
किसी भी समस्या का हिंसा नहीं है समाधान।
किसानों ने शर्त से मुकरने का इतिहास रच दिया।
किस भेष में छुपे हुए उपद्रवी तमाम,
खुद को कहते हैं वे किसान।
जनता की सम्पत्ति को तहस-नहस करना,
देश में अशांति का वातावरण बना दिया।
क्या किसानों का यह शोभनीय है व्यवहार?
जमकर हंगामा,बवाल मचा कर खड़ा किया सवाल।
शोभनीय दिवस में अशोभनीय व्यवहार मानव का,
किसान अपने व्यक्तित्व को यूं तार तार कर रहे ,
हरियाली का प्रसार करने वाले, क्यों हथियार थाम रहे ?
तिरंगे को सलाम न कर, अपमान किले का कर दिया।
राष्ट्र का हित करने वाले, हित का मार्ग त्याग दिया।
धैर्य का ध्वज छोड़ क्यों अहित का चादर ओढ़ लिया ?
"जय जवान,जय किसान" स्वर गूंजते थे जहां,
नारे के स्वर से करने लगे शंखनाद यहां ।
नारेबाजी,दंगे,फसाद हल नहीं किसी सोच का,
आपसी सहयोग, विचार है जवाब नई राह का।
क्यों हो रहे भ्रमित लोग स्वच्छ व कोमल हिय वाले,
अन्नदाता हो तुम चहेते जो देश प्रेम गीत दोहराते।
----- अर्चना सिंह जया