Monday, March 8, 2021

नारी तू सशक्त है - कविता

 

    " नारी तू सशक्त है"


नारी तू सशक्त है,
बताने की न तो आवश्यकता है,
न विचार विमर्श की है गुंजाइश।
निर्बल तो वह स्वयं है,
जो तेरे सबल होने से है भयभीत।
नारी तू सशक्त है।
धर्म-अधर्म की क्या कहें?
स्त्री धर्म की बातें ज्ञानी हैं बताते
पुरुष धर्म की चर्चा कहीं,
होती नहीं कभी अभिव्यक्त है।
नारी तू सशक्त है।
देवी को पूजते घरों में,
पर उपेक्षित होती रही फिर भी।
मान प्रतिष्ठा है धरोहर तेरी,
अस्तित्व को मिटाती औरों के लिए
नारी तू सशक्त है।
तू ही शारदा ,तू लक्ष्मी,तू ही काली
धरा पर तुझ-सी नहीं कामिनी।
तेरे से ही सृष्टि होती पूर्ण यहाॅं,
भू तो गर्व करता रहेगा सदा।
नारी तू सशक्त रही
और तू सशक्त है सदा।

                 -------------  अर्चना सिंह जया

' 8 मार्च अंतर्राष्टीय महिला दिवस ' पर सभी नारियों को समर्पित 💐 

Thursday, February 4, 2021

खुद को कहते किसान

 किसान की रैली क्यों शर्मसार कर गई ,


हिंसा को बढ़ावा देकर तलवार हाथ में थाम,


लोकतंत्र की आड़ में ऐतिहासिक कहानी लिख गई।


लाल किले के दामन पर कर तांडव नृत्य, 


किसान ने क्यों थामा अराजकता का हाथ,


"अहिंसा परमो धर्म" जिस देश की है शान, 


किसी भी समस्या का हिंसा नहीं है समाधान।


किसानों ने शर्त से मुकरने का इतिहास रच दिया।


किस भेष में छुपे हुए उपद्रवी तमाम,


खुद को कहते हैं वे किसान।


जनता की सम्पत्ति को तहस-नहस करना,


देश में अशांति का वातावरण बना दिया।


क्या किसानों का यह शोभनीय है व्यवहार? 


जमकर हंगामा,बवाल मचा कर खड़ा किया सवाल।


शोभनीय दिवस में अशोभनीय व्यवहार मानव का,


किसान अपने व्यक्तित्व को यूं तार तार कर रहे ,


हरियाली का प्रसार करने वाले, क्यों हथियार थाम रहे ?


तिरंगे को सलाम न कर, अपमान किले का कर दिया। 


राष्ट्र का हित करने वाले, हित का मार्ग त्याग दिया।


धैर्य का ध्वज छोड़ क्यों अहित का चादर ओढ़ लिया ?


"जय जवान,जय किसान" स्वर गूंजते थे जहां,


नारे के स्वर से करने लगे शंखनाद यहां ।


नारेबाजी,दंगे,फसाद हल नहीं किसी सोच का,


आपसी सहयोग, विचार है जवाब नई राह का।


क्यों हो रहे भ्रमित लोग स्वच्छ व कोमल हिय वाले,


अन्नदाता हो तुम चहेते जो देश प्रेम गीत दोहराते।


                 ----- अर्चना सिंह जया

Wednesday, February 3, 2021

दहेज प्रथा

दहेज रूपी 'सुरसा' देखो मुख खोले है बैठा,

न लज्जा,न ग्लानि, न हृदय में है कोमलता।

दान-उपहार शोभा थी, त्रेता युग में जिसकी

नैतिकता-पवित्रता मानव ने ही धूमिल की।


गांव,शहर,देश,समाज की है ये ज्वलंत प्रथा

 बुद्धिजीवी ना जाने कब समझेगा गंभीरता?

नित अखबारों में पढ़ने को मिलती है नई कथा,

माता-पिता के लिए बन चुकी है गंभीर व्यथा।


जहां अमानवीय सा हो, वर पक्ष बने हैं लोभी,

वहां बहू रूपी बेटियां, दहेज की बलि हैं चढ़तीं।

राष्ट्र और समाज की हो रही है यहां घोर क्षति,

बचाओ लाज मानवता की, बहू को समझो बेटी।


वक्त के साथ अन्य कुप्रथाएं हुईं हैं कुछ धूमिल,

पर समाज में भ्रूणहत्या के, हैं अब भी कातिल।

बेटी-बेटे किसी का मोल लगाना है घोर अपराध,

दहेज प्रथा भी है कुप्रथा, है सामाजिक अभिशाप।



वो शब्द ही तो है

 वो 'शब्द' ही तो है।

दिलों के ज़ख्मों पर मरहम लगा दे,

या नमक मसलकर ताजा कर दे।

वो 'शब्द' ही तो है।

सरगम में पिरोकर मन के तार छेड़ दें,

भावों को व्यक्त कर अधूरे बोल पूरे कर दे।

वो 'शब्द' ही तो है।

कभी उलझनों में उलझा रुला दिया करता,

कभी सुलझा कर लबों पर मुस्कान सजा दे।

वो 'शब्द' ही तो है।

भावों को स्याही से कभी सजाया ख़तों में,

और कभी पन्नों पर हिय के भाव को उकेरा।

वो 'शब्द' ही तो है।

कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक में शामिल,

वर्णों से सुसज्जित सदा ही व्यक्त कर देता है।

वो 'शब्द' ही तो है। 

गीत में, संगीत में, उपासना में, प्रार्थना में 

नाम में, व्यवहार में, आचरण में जो बोले जाए।

वो 'शब्द' ही तो है।

शांति का संदेश गुंजायमान हो स्वर में,

या आंदोलन का आक्रोश हो स्वर में।

वो 'शब्द' ही तो है।

Friday, October 9, 2020

मेरा मन १

मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है,

अपने ही अंतर्द्वंद्व से

नित जूझता रहता है।

जाए कहां वह सोचता,

शांति है किस एकांतवास में,

दीवारों पर सिर पीटता है।

कभी बेलगाम-सा हो जाता,

बिन परों के उड़ान है भरता।

मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

आभास तक नहीं है होता,

हो जाता ये हिरण सा चंचल,

भटकता रहता प्रतिपल।

 ईश्वर को कस्तूरी सा वो,

पत्थर, तस्वीरों में खोजता।

पर नादान नासमझ वह,

आत्मावलोकन नहीं करता।


मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

नादान मन खुद से प्रश्न कर,

उलझनों में है लिपटता।

कोमल मन को भाये शांति,

सुख की चाह में है भ्रांति।

विछिप्त होता है मन मेरा,

जाए कहां पर यह बेचारा,

संगदिल है जहां ये सारा।


मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

बेज़ार हो रहें हैं,

दिशाहीन होता मानव।

हिय में प्रेम-दया नहीं,

हिंसक हो रहा वो।

सद् गति की राह छोड़,

क्रोध, नफ़रत, घृणा 

हिंसा काआवरण ओढ़।




Monday, September 28, 2020

तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है

मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है,

फिर भी तुम्हें न जाने क्यूं

अपनी मोहब्बत से इंकार है।

न चाहते हुए भी स्वदेश से हुई दूर । 

जिंदगी दी थी जिन्होंने,

उन्हें ही छोड़ने को हुई मजबूर।

मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।

जिस आत्मनिर्भरता को देख हुए थे अभिभूत

नृत्य कला को छोड़ने को हो गई तैयार।

दफ़न कर दिया अपनी आकांक्षाओं को,

चल दी साथ तुम्हारे, अपने दिल को थाम।

तुम्हारे स्वप्नों में भरने लगी रंग,

खुद के परों को समेटे हुए, हुई तुम्हारे संग।

 अब बहुत निभा ली कसमें वादे,

बेटी को जन्म देकर उसकी बनूंगी आभारी।

माना चाहत तुम्हें थी बेटे की,

पर मां बनने की वर्षों से थी चाहत हमारी।

जन्म से पूर्व ही नहीं कर सकती हत्या,

तुम क्या जानो इक औरत की व्यथा।

इक दिवानगी वो थी कभी तुम्हारी,

हाथों में लिए फूल बारिश में भी आते थे।

और इक दिवानगी ये कैसी कि

कांटे चुभा हमें बेबस- बेघर किए।

आज तुम्हारे इस प्रस्ताव से मुझे इंकार है,

मेरी मोहब्बत नहीं है कमज़ोरी।

बस किस्मत से लड़ कर जीतने की,

कुछ आदत सदा रही है पुरानी।

अब मैं नहीं दोहरा पाऊंगी कि

'मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।'

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Saturday, September 26, 2020

मोबाइल - विषय

 मानव निर्मित यंत्र है ये कैसा,

 जीवन परिवर्तित हुआ कुछ ऐसा।

 स्वतंत्र हुआ करता था जो,

 मनुष्य उसी के आधीन हो गया।

 चारों पहर उसी में है खोए,

जगते सोते मोबाइल की जय होए।

 सारे रिश्ते सिमट गए हैं,

 स्क्रीन पर ही संपर्क रह गए हैं।

वार्तालाप भी वाह्टसअप में समाई,

ख़ामोशी है घर, परिवार में छाई।

शब्द भी सिमट गए अब तो,

भावनाएं भी जकड़ गई देखो।

एक पिंजर सा बना है इर्द-गिर्द गर समझो ,

तन-मन को जकड़ रखा है यह तो।

मोबाइल हुए जैसे-जैसे होशियार ,

मानव संवेदनहीन व निष्ठुर हुए यार।

जरूरत आदत में तब्दील हो गई,

मोबाइल बाबा की जय-जयकार हुई।

इस यंत्र का हमारे जीवन पर है पहरा,

आंखों, मस्तिष्क पर प्रभाव है गहरा।

लत लगी है हर उम्र के लोगों में मानो,

अबोध बालक भी अछूता नहीं है, जानो।

हमें नियंत्रित करने में सफल हो रहा,

बच्चे, जवान, बूढ़े को भ्रमित कर रहा।

माना अच्छाई भी है कई भाई,

वक्त बेवक्त, झटपट है बात कराई।

दूरियां, तन्हाइयां भी है मिटाता,

चेहरे से पहचान व संबंधों को मिलाता।

शिक्षा ग्रहण होता घर बैठे,

क्रिया कलाप भी होता है इससे।

खग सोचता कि विवेकहीन हुआ मानव देखो, 

यंत्र रूपी पिंजर में कैद कर रहा वो खुद को।

मोबाइल के संग सांस का बन गया रिश्ता,

आहिस्ता-आहिस्ता लगाम है कसता।

यंत्र पर आश्रित हो रहा देखो,

नियंत्रित कर रहा है हम सबको।