Wednesday, February 3, 2021

दहेज प्रथा

दहेज रूपी 'सुरसा' देखो मुख खोले है बैठा,

न लज्जा,न ग्लानि, न हृदय में है कोमलता।

दान-उपहार शोभा थी, त्रेता युग में जिसकी

नैतिकता-पवित्रता मानव ने ही धूमिल की।


गांव,शहर,देश,समाज की है ये ज्वलंत प्रथा

 बुद्धिजीवी ना जाने कब समझेगा गंभीरता?

नित अखबारों में पढ़ने को मिलती है नई कथा,

माता-पिता के लिए बन चुकी है गंभीर व्यथा।


जहां अमानवीय सा हो, वर पक्ष बने हैं लोभी,

वहां बहू रूपी बेटियां, दहेज की बलि हैं चढ़तीं।

राष्ट्र और समाज की हो रही है यहां घोर क्षति,

बचाओ लाज मानवता की, बहू को समझो बेटी।


वक्त के साथ अन्य कुप्रथाएं हुईं हैं कुछ धूमिल,

पर समाज में भ्रूणहत्या के, हैं अब भी कातिल।

बेटी-बेटे किसी का मोल लगाना है घोर अपराध,

दहेज प्रथा भी है कुप्रथा, है सामाजिक अभिशाप।



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