मेरा अक्स एक दिन
लगा था,मुझे देखने।
देख मेरी आॅंखों में
फिर लगा वो कहनेे,
‘ मेरे जैसा है तू।’
मैं मंद-मंद हंसी और
बोली,‘ तू तो
मेरा प्रतिबिम्ब है।’
तू मुझ-सा है,
मैं तूझ-सा नहीं।’
फिर क्या था ?
अक्स इठलाया
आॅंखों में चमक लिए
मुझे गर्व से चिढ़ाया।
और लगा कहने,
‘तू तो पीड़ा हिय में छुपा,
नकाब पहने हुए है।
मुख पर हंसी और
मन में भाव दबाए हुए है।’
और लगा कहने
‘मैं तो हूँ ही अक्स तेरा
चाह कर भी न हँस सका
और न दे सका स्वप्न सुनहरा।’
किंतु मैं नित
देख सकता हॅूं वो दर्द गहरा
अब बता कि
तू मुझमें है कि मैं तुझमें हूॅं
क्या रिश्ता नहीं है ?
हम दोनों का गहरा।
गर दर्पण का न होता पहरा
तो जीवन में ,मैं भर देता
खुशियों का रंग गहरा।
अर्चना सिंह‘जया’