Sunday, August 14, 2016

युवा तुम्हें पुकारता है आवाम ( कविता )



युवा तुम्हें पुकारता है आवाम
ध्वज का हमेशा रखा जिसने मान।
कर्मभूमि समझ देश को वे वीर
सदा देते रहे जो अपना योगदान।
       युवा तुम्हें पुकारता है आवाम
इन सपूतों को नित करो सलाम
स्वयं के मुख न करते गुणगान।
सीखो इनसे तुम,कैसी हो देशभक्ति?
शहीद हुए कई ,हमारे नौजवान।
       युवा तुम्हें पुकारता है आवाम
मॉं के लाल भगत,बोस भी थे हुए
औ’ निरंजन,फतेह,राणा जो शहीद हुए।
लहू को न यूॅं ,तुम होने देना पानी
मॉं के कोख का, यूॅं ही रखना मान।
       युवा तुम्हें पुकारता है आवाम
बुलंद आवाज कर क्या साबित हो करते?
माना अभिव्यक्ति की है मिली आजा़दी,
थी देशभक्ति की चाहत उनकी भी
आजा़दी का सार समझ करो काम।
        युवा तुम्हें पुकारता है आवाम
दिग्भ्रमित न हो तुम, कुछ तो समझो
कैसा लाल अब तुम्हें है बनना ?
सपूत कहलाने का दम सदैव भरना,
नवपीढ़ी गर्व से करे तुम्हें सलाम।
      युवा तुम्हें पुकारता है आवाम
देशद्रोही न कहलाने का भरना दम
आवाज़ को न देना नारों का रंग,
केसरिया ,हरा व सफेद सा रहे दामन
एक ही स्वर बिखेरना सुबह -शाम।
       युवा तुम्हें पुकारता है आवाम
अनेकता में एकता दर्शाकर ,
वीरभूमि को गले लगाकर।
सो गए जहॉं कई वीर तमाम,
ऐसे देश का करना सीखो सम्मान।
       युवा तुम्हें पुकारता है अवाम
       युवा तुम्हें पुकारता है आवाम ।।

                                                        ............  अर्चना सिंह‘जया’      
यह कविता देश  के वीरों  को  नमन......... 
                 आज के पेज 11 मंथन पृष्ट , राष्ट्रीय सहारा पेपर  में  प्रकाशित हुई है जो दिल्ली ,कानपुर ,लखनऊ ,पटना ,वाराणसी ,गोरखपुर और देहरादून से निकलती  है।                           

Wednesday, August 3, 2016

अभयदान (कविता )



 मृत्यु के बाद ,शरीर को कुछ ज्ञात कहॉं ?
 मरण पश्चात् सब है खाक यहॉं।
 नूतन शरीर प्राप्त कर जन्म है लेना
 फिर व्यर्थ है अपने पलकों को भिंगोना  ।
 कर सदुपयोग शरीर के हर अंग का
 औरों को अभयदान तुझे है अब देना ।
 मानवता का फर्ज है निभाना यहॉं,
 सुविचार व कर्त्तव्य से बना ये जहॉं।
 स्वयं को जीवित पा सकता औरों में ,
 जो कठिन संकल्प ले अग्रसर हो।
 नेत्रहीन के जीवन को रौशनकर,
 कुदरत की सुंदरता को है दिखाना ।
 पलकों तले पलते स्वप्न को
 'नेत्रदान' कर साकार है बनाना ।
 धड़कन ही है जो जिन्दा होने का
 पल-पल एहसास कराता है
 जो तू मृत्यु के करीब है तो क्या ?
 'ह्रदयदान' से दिलों में जीवित रह सकता है।
 जीवन को भयभीत बनाता है
 कर्करोग सा भयंकर महाकाल।
 भरना है औरों के जीवन में हरियाली
 'रक्त्दान' से मानव को मिल जाए खुशहाली ।
 औरों को सुख देकर हे मानव
 परमसुख का आभास है होता।
 'गुर्दादान' कर शरीर रुपी मशीन को,
 स्वस्थ व गतिशील सूत्र में पिरोता।
 'गौदान' को माना गया है उत्तम
 पर मानव का कर्ज उतार सर्वप्रथम।
 अंगदान देकर औरों को तू अब
 अभयदान का कार्य कर सर्वोत्तम।
                     
                                                    ..........अर्चना सिंह जया




Monday, August 1, 2016

राजस्थान की कहानी ( कविता )



सुनो सुनाता हूॅु मैं, राजस्थान की अमर कहानी,
राजाओं ने देश की खातिर दे दी अपनी कुर्बानी ।
नर-नारी के ऑंखों में थी, अलमस्त रवानी,
वीरांगनाएॅं भी कम न थीं, नन्हें वीर और थे सेनानी।
जहॉं स्त्रियों ने दिखाया जौहर और व्रत करना सीखा,
तिलक लगा कर पुरुषों को युद्ध भूमि में भेजा।
ऊॅटों की टोली है चलती काफिला ले कर संग ,
जोधपुर, जैसलमेर,बीकानेर ,जयपुर जैेसे कई समेटे रंग।
उगता सूरज , ढ़लती शाम रेत पर बिखेरे सुनहरे रंग,
पुश्कर के मेले में देख ठुमकती कठपुतली,
दिल में कितने राज छुपाए, ऑंखों से ही कह चली।
ढोल मजीरे बाजे-गाजे जैसे सजी चली हो पालकी ,
नई नवेली दुल्हन के हाथों, तिलक सजी थाल की।
केसरिया, हरा, पीला, नीला ,गुलाबी  चुनरी के रंग
माथे से कंधे पर लहराती, गाती पवन के संग-संग ।
राजस्थान की शोभा देखो, मन को है लुभाती
जीवन खुशियों से हरपल है, भर-भर जाती ।                

                                                            ............ अर्चना सिंह जया

Saturday, July 30, 2016

नूतन आशियॉं ( कविता )



बारिश से बचने की कोशिश में
कपोत छज्जे पर आती थी।
धूप में रखे सरसों व चावल
चिड़िया चुगकर उड़ जाती थी।
अमिया पर बैठ ऑंगन में
काली कोयल गाया करती थी।
बाहर बगीचे में मधुकर भी
गुनगुन शोर मचाता था।
पर कहॉं गई वृक्षों की टहनियॉं ?
कॉंव-कॉंव का स्वर अब कहॉं ?
ईंट की दीवारें हैं अब दिखती
ईमारतें ही ईमारते  यहॉं वहॉं।
भयभीत है वृंद सारे,उड़ चले
खोजने अपना नूतन आशियॉं।

                                                                            -------------अर्चना सिंह जया

Saturday, July 23, 2016

पाठशाला से जब घर जाते बच्चे ( कविता )



मेघ देख शोर मचाते बच्चे,
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।
छप-छप पानी में कूद लगाते,
कीचड़ में खुद को डुबोते।
रिम-झिम बारिश की बॅूंदों में
झूम-झूम कर हॅंसते गाते।
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।
मोर पंख से रंग बिरंगे,
सपने इनके बाहर निकलते।
कपड़ों की न चिंता करते,
दौड़ भाग कर धूम मचाते।
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।
पापा-मम्मी की एक न सुनते,
हरदम अपने दिल की करते।
तन मन अपना खुशियों से भरते,
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।

                             ................ अर्चना सिंह जया