Friday, October 9, 2020

मेरा मन १

मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है,

अपने ही अंतर्द्वंद्व से

नित जूझता रहता है।

जाए कहां वह सोचता,

शांति है किस एकांतवास में,

दीवारों पर सिर पीटता है।

कभी बेलगाम-सा हो जाता,

बिन परों के उड़ान है भरता।

मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

आभास तक नहीं है होता,

हो जाता ये हिरण सा चंचल,

भटकता रहता प्रतिपल।

 ईश्वर को कस्तूरी सा वो,

पत्थर, तस्वीरों में खोजता।

पर नादान नासमझ वह,

आत्मावलोकन नहीं करता।


मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

नादान मन खुद से प्रश्न कर,

उलझनों में है लिपटता।

कोमल मन को भाये शांति,

सुख की चाह में है भ्रांति।

विछिप्त होता है मन मेरा,

जाए कहां पर यह बेचारा,

संगदिल है जहां ये सारा।


मेरा मन,

व्यथित होकर रोता है।

बेज़ार हो रहें हैं,

दिशाहीन होता मानव।

हिय में प्रेम-दया नहीं,

हिंसक हो रहा वो।

सद् गति की राह छोड़,

क्रोध, नफ़रत, घृणा 

हिंसा काआवरण ओढ़।




No comments:

Post a Comment

Comment here