अंतर्मन के द्वंद्व से
हरदिन लड़ रही हूं री सखी।
का से कहूं पीड़ा मन की
बस इसी उलझन में हूं।
टीस सी उठती रह रह,
हिय छलनी है हो रहा।
अश्रु बन लहु देखो,
आंखों से बह रही री सखी।
रिश्तों के ताने-बाने,
रह गए हैं उलझ कर।
गांठें पड़ रही हैं,
गुजरते लम्हों में अब।
मैं रहूं या ना रहूं मगर
सब रहेगा यूं ही री सखी।
जिंदगी जो सिखा गई,
सिखाया नहीं किसी ने।
प्रयास फिर भी कायम रखी,
उम्मीद कभी छोड़ी नहीं।
मन तो कल भी रिक्त था,
आज भी तन्हां है री सखी।
हरदिन लड़ रही हूं री सखी।
का से कहूं पीड़ा मन की
बस इसी उलझन में हूं।
टीस सी उठती रह रह,
हिय छलनी है हो रहा।
अश्रु बन लहु देखो,
आंखों से बह रही री सखी।
रिश्तों के ताने-बाने,
रह गए हैं उलझ कर।
गांठें पड़ रही हैं,
गुजरते लम्हों में अब।
मैं रहूं या ना रहूं मगर
सब रहेगा यूं ही री सखी।
जिंदगी जो सिखा गई,
सिखाया नहीं किसी ने।
प्रयास फिर भी कायम रखी,
उम्मीद कभी छोड़ी नहीं।
मन तो कल भी रिक्त था,
आज भी तन्हां है री सखी।
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