वक्त को पहचान कर
लकीरों को मुट्ठी में ले थाम।
लम्हा- लम्हा सरक गया तो
फिर न कुछ हाथ आयेगा।
बिखरे हुए पन्नों के समान
लम्हा भी निकल जायेगा।
विशाल वृृक्ष भी था मैं कभी
शाख से पत्ते गिर गए सारे।
रह गया मैं पत्र विहीन बेकार,
राहगीर भी अब नहीं रुकते,
नहीं लेता कोई मेरे तले विश्राम।
---अर्चना सिंह ‘जया’
No comments:
Post a Comment
Comment here