सागर ऊर्मि की तरह मानव हृदय में भी कई भाव उभरते हैं जिसे शब्दों में पिरोने की छोटी -सी कोशिश है। मेरी ‘भावांजलि ’ मे एकत्रित रचनाएॅं दोनों हाथों से आप सभी को समर्पित है। आशा करती हूॅं कि मेरा ये प्रयास आप के अंतर्मन को छू पाने में सफल होगा।
Tuesday, August 30, 2022
न्याय की गुहार
Sunday, May 8, 2022
मां
मां ऐसी होती है।
अपने अश्रु को छुपा,
सदा मुस्कान बिखेरती है।
अपने सपनों को दफना कर
बच्चों को स्वप्न पर देती है।
मां ऐसी होती है।
अपनी थाली को परे रख
बच्चों को भोजन परोसती है।
अपनी नींद से हो बेपरवाह
बच्चों को लोरी-थपक्की देती है।
मां ऐसी होती है।
हाथों के छाले को ढंक कर,
चाव से रोटी सेंका करती है।
स्वयं के भावों को छुपा
बच्चों के जीवन में रंग भरती है।
मां ऐसी होती है।
बिस्तर गीला गर हो मध्य रात्रि
सूखे नर्म बिस्तर हमें देती है।
तेज़ तपते हुए ज्वर में
पानी की पट्टी रख सिरहाने होती है।
मां ऐसी होती है।
जाने कैसे वह बिन कहे
मन के भाव सदा पढ़ लेती है।
गर अंधियारा छाये जीवन में
थाम हाथ राह रौशन करती है।
मां ऐसी होती है।
कभी सख्त मन से डांट लगा
खुद भी रोया करती है।
कभी नीम सी कड़वी तो
कभी शहद सी मीठी बातें करती है।
मां ऐसी होती है।
मां धरती सी,कोमल पुष्प सी
चंदन बन महका करती है।
हिय विशाल है उसका जहां
ममता,स्नेह,प्रेम,दया,क्षमा समेटे रखती है।
* अर्चना सिंह जया,गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
मां ऐसी होती है।
Wednesday, January 5, 2022
Wednesday, December 29, 2021
मैं और मेरी चाय
" मैं और मेरी चाय "☕
मैं और मेरी चाय आपस में अक्सर ये बातें करती हैं,
तन्हाई में सवाल, मुझसे पूछा करती है।
मैं नहीं होती तो प्रातः,तू करती किसका इंतज़ार ?
कोमल हाथों के स्पर्श का प्रतिदिन, मुझे रहता इंतज़ार।
होंठो से लेती हर सिप में महसूस होता है प्यार ,
सिर्फ तुम्हें ही नहीं मुझे भी रहता, तुम्हारा इंतज़ार।
मैं सिर्फ चाय नहीं ,हूँ तुम्हारा प्यार, संगी साथी, सहचर,
तुम्हारे सुख में और दुख में भी नहीं छोड़ती साथ।
सच ही कह रही हो - डीयर चाय
बिस्कुट, सैंडविच,आलू पराठे,पकौड़े संग भी
निभाती आई हो अपना साथ।
गुन गुनी गर्मागर्म भाती हो हर बार,
शीत काल में तुम सा नहीं कोई यार।
जितनी भी तारीफ करूँ कम लगती हर बार ,
रिश्तों से मिले दर्द अपनों से मिली रुसवाई में भी
कभी भी प्याली ने नहीं छोड़ा साथ।
चाहे ऋतु हो जो कोई भी या हो दिन-रात,
थाम हाथ में महसूस होता,
जैसे दूर करती हो तन्हाई और हर लेती पीर।
अंतर्मन पुलकित हो उठता और
आंखों में झलक उठता मधुर प्यार।
मैं और मेरी चाय प्यारी,हमजोली है मेरे जीवन की।
Thursday, September 2, 2021
मैं तुम्हें फिर मिलूँगी
" मैं तुम्हें फिर मिलूँगी "
मुझे है यकीन ,मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।
अगले जनम में ही सही माँ,
तेरी कोख से ही जन्मूँगी।
माना कि तू मजबूर थी,
सामाजिक कुरीतियों की शिकार थी।
पर मेरा क्या दोष बता माँ,
क्यों जग को नहीं भाया मेरा आना?
मुझे भी था खेलना दौड़ना,
देखना था बाबुल का अंगना।
आंगन की धूल भी तो न ले जाती,
मायका- सासरे को सँवारती।
काश! मैं भी पहन जो पाती,
पिया के हाथों सुहाग का कंगना।
मुझे है यकीन,
मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।
आवाज लगाना माँ तू मुझको,
तेरी परछाई बनकर लौटूँगी।
लड़ना है अपने अधिकार की खातिर,
संग-संग तेरे अस्तित्व का भी मान रखूँगी।
बाबा का ही मात्र नहीं माँ,
गाँव,शहर,राष्ट्र का नाम रौशन करूँगी।
पुत्र के संग-संग मैं पलूंगी,
पुत्री हूं, घर की फुलवारी में सजूँगी।
भ्रूण हत्या न करना बाबा,
ईश्वर से मांग लाना मुझको,
माफी मैं खुश होकर दे दूँगी,
हाँ, मैं तुम्हें फिर जरूर मिलूँगी।
Wednesday, May 26, 2021
वो आखिरी सफ़र कविता
वो आखिरी सफ़र...
नहीं कुछ अपना है जहां,
जुटाने में निकल गई जिंदगी वहां।
हर इक लम्हा कुछ धूप-छांव सा,
सुख दुःख संग गुजरता गया कारवां।
वो आखिरी सफ़र थी,
जिंदगी की चंद सांसें बचीं थीं जहां।
जीवन चादर के ताने-बाने में,
सुबह से शाम फिसलती हुई जिंदगी।
जुटाया भी, जुगाड़ भी करती गई,
फिर भी यथार्थ में,
खाली हाथ आई जिंदगी।
वो आखिरी सफ़र...
तोड़ा मरोड़ा वक्त ने हमें हर लम्हा,
अनोखा एहसास हुआ तो हमें भी।
कुछ सुनी अनसुनी है कहानियां,
बहुत कुछ सीखा गई जिंदगी।
वो आखिरी सफ़र,
अपनों से दर्द, गैरों से शिकवा
ज़ख्मों पर नमक छिड़क रही थी।
जीवन का नया तजुर्बा देकर,
आगे आगे चलती गई फिर भी जिंदगी।
कुछ स्वप्न पूरे, कुछ अधूरे ही,
रंगों से दूर हो रहे थे अरमान सभी।
वो आखिरी सफ़र था,
हमने भी आंसू पोंछे और
हंसकर कहा अलविदा जिंदगी।
दोबारा जो कभी मुलाकात हो भी गई,
अनजान बन, पहचानना न फिर कभी।