मानव की मानवता
मानव ने है मानवता त्यागी,
कुदरत ने भी जताई नाराज़गी।
ना समझ स्वयं को बलशाली,
तुझ पर भी पड़ेगा कोई भारी।
प्रकृति का आदर ना करके,
तू खुद को सोचता महाज्ञानी।
गर होती बुद्धि विवेक जरा-सी,
ना करता फिर ऐसी नादानी।
मेरे तन-मन को तूने भेदा,
उदारता को कमज़ोरी समझा।
विवश किया क्रोधित होने को,
धैर्य के बॉंध को पड़ा त्यागना।
बहुत सोच विचार कर मैंने
सबक सिखाने का निर्णय लिया।
देख जल तांडव अब तू मेरा,
आफ़त की बारिश का है घेरा।
जल प्रलय का रुप धारण कर,
ढाह रही हूॅं अब घर तेरा।
हाहाकार मच जाएगा देख अब,
त्राहि-त्राहि कर उठेगी धरा तब।
तब भी सचेत न तुम हो पाओगे,
दूषित करने का तूने है ठाना,
प्रदूषित किया मेरे मन का कोना।
क्या वसुधा का जतन कर पाएगा ?
उधड़ा स्वाभिमान लौटा पाएगा ।
कैसे यकीन करुॅं हे मानव !
वर्षों लग गए बस समझाने में।
दानव से मानव का सफ़र तय कर,
दानव हावी है आज भी मानव पर।
------- अर्चना सिंह जया
मानव ने है मानवता त्यागी,
कुदरत ने भी जताई नाराज़गी।
ना समझ स्वयं को बलशाली,
तुझ पर भी पड़ेगा कोई भारी।
प्रकृति का आदर ना करके,
तू खुद को सोचता महाज्ञानी।
गर होती बुद्धि विवेक जरा-सी,
ना करता फिर ऐसी नादानी।
मेरे तन-मन को तूने भेदा,
उदारता को कमज़ोरी समझा।
विवश किया क्रोधित होने को,
धैर्य के बॉंध को पड़ा त्यागना।
बहुत सोच विचार कर मैंने
सबक सिखाने का निर्णय लिया।
देख जल तांडव अब तू मेरा,
आफ़त की बारिश का है घेरा।
जल प्रलय का रुप धारण कर,
ढाह रही हूॅं अब घर तेरा।
हाहाकार मच जाएगा देख अब,
त्राहि-त्राहि कर उठेगी धरा तब।
तब भी सचेत न तुम हो पाओगे,
दूषित करने का तूने है ठाना,
प्रदूषित किया मेरे मन का कोना।
क्या वसुधा का जतन कर पाएगा ?
उधड़ा स्वाभिमान लौटा पाएगा ।
कैसे यकीन करुॅं हे मानव !
वर्षों लग गए बस समझाने में।
दानव से मानव का सफ़र तय कर,
दानव हावी है आज भी मानव पर।
------- अर्चना सिंह जया