कहीं बारिश में डूबा शहर
तो कहीं है गर्मी का कहर।
अब तो मौसम भी है अजनबी
इंसा हो रहा भयभीत हर घड़ी।
न जाने कब पड़ने लगे सूखा
बाढ़ का कहर भी सबने देखा।
अमृत के लिए बिलखता शहर
मानव संघर्ष करता हर पहर।
कहीं तो है रोटी की ज़द्दो ज़हद
तो कहीं दो गज़ जमीन की तड़प।
कुदरत से उलझने का है परिणाम
हो सके तो धरा की बाहें थाम।
स्नेह कर से दो वृक्ष लगाकर
मृत्यु से पूर्व सृष्टि का ऋण उतार चल।
क्या लाया व क्या ले कर जाएगा ?
पर इंसा को ये कौन समझाएगा ?
काठ की सैया पर ही सोकर
तू कर पायेगा भवसागर पार।
हे मानव ! सुन सके तो सुन
हिय से निकली प्रकृति की गुहार।
---------- अर्चना सिंह जया

