Sunday, December 4, 2016

हृदय की गुहार ( कविता )

 

 कहीं बारिश में डूबा शहर
 तो कहीं है गर्मी का कहर।
 अब तो मौसम भी है अजनबी
 इंसा हो रहा भयभीत हर घड़ी।
 न जाने कब पड़ने लगे सूखा
 बाढ़ का कहर भी सबने देखा।
 अमृत के लिए बिलखता शहर
 मानव संघर्ष करता हर पहर।
 कहीं तो है रोटी की ज़द्दो ज़हद
 तो कहीं दो गज़ जमीन की तड़प।
 कुदरत से उलझने का है परिणाम
 हो सके तो धरा की बाहें थाम।
 स्नेह कर से दो वृक्ष लगाकर
 मृत्यु से पूर्व सृष्टि का ऋण उतार चल।
 क्या लाया व क्या ले कर जाएगा ?
 पर इंसा को ये कौन समझाएगा ?
 काठ की सैया पर ही सोकर
 तू कर पायेगा भवसागर पार।
 हे मानव ! सुन सके तो सुन
 हिय से निकली प्रकृति की गुहार।

                           ---------- अर्चना सिंह जया

Friday, November 18, 2016

बचपन ( कविता )


बचपन के वो दिन  थे
पिता का था वो उपवन।
रात की रानी से महकता था,
बाबुल का घर-ऑंगन।
पवन के झोंके से, खुशबू
छू जाती थी तन-मन।
नन्हें फूलों को देख जमीं पर,
खिल उठता था चितवन।
भोर ही में मैं उठकर
फ्राक में चुन उन पुष्पों को,
मॉं के ऑंचल में देती डाल।
फिर धागों में पिरोकर,
बालों में मेरे सजोकर,
अपनी ऑंखें नम कर कहती,
‘‘तेरे जाने के पश्चात्
कौन स्नेह बिखेरेगा,ऑंचल में ?
हमारी खुशियॉ और खुशबू
ले जायेगी अपने संग में।’’
सुनकर मॉं की बातें मैं मुस्काती
फिर इठलाकर दौड़ लगाती।
नासमझी थी, वो कैसी मेरी ?
सच्चाई से अबोध, सखी री
जग से बेगानी हो हॅंस देती,
तितली के पीछे दौड़ती-भागती।
बचपन निकल गया इक पल में
आज पराई हो गई लाडो।
बाबुल का आंगन है छूटा,
बदल गया अब मेरा खॅूंटा।
जिंदगी खेलती अब ऑंख मिचौनी
बदल चुकी है मेरी कहानी।
मॉं का स्नेह है हमें सताता,
वो प्यारा बचपन ही, है भाता।

      -------- अर्चना सिंह 'जया'

Monday, November 14, 2016

Saturday, November 12, 2016

काश! जो हम भी बच्चे होते ( कविता )

 

काश! जो हम भी बच्चे होते
 प्यारे-प्यारे सच्चे होते,
 तितली जैसे रंग-बिरंगे
 सुंदर सुनहरे सपने,अपने होते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 आसमॉं में फिर उड़ जाते
 अरमानों के पंख फैलाए
 दामन ,इंद्रधनुष के रंग में रंगते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 रोटी-दाल की न चिंता करते
 टॉफी से ही भूख मिटाते
 रोते इंसानों को हॅंसाते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 हिंसा हम न यहॉं फैलाते
 प्यार, शिष्टाचार का पाठ सिखाते
 देश को अपना स्वर्ग बनाते।
 काश! जो हम भी बच्चे होते
 दामन सबका स्नेह से भरते।

                             ------ अर्चना सिंह‘जया’

Friday, November 4, 2016

मातृभूमि ( कविता )

 

आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ वतन, तेरा सदा।
तेरी मिट्टी की खुशबू,
मॉं के ऑंचल में है छुपा।
कई लाल शहीद भी हुए,
फिर भी माताओं ने सपूत दिए।
निर्भय हो राष्ट् के लिए जिए
और शहीद हो वो अमर हुए।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा ।
धैर्य ,ईमानदारी,सत्यता, सहनशीलता
भू भाग से है हमें मिला।
खड़ा हिमालय उत्तर में धैर्यता से
धरा की थामें बाहें सदा।
अटल-अचल रहना समझाता
सहनशीलता वीरों को सिखलाता।
कठिनाई से न होना भयभीत
सत्य की हमेशा  होती है जीत।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा।
हिय विशाल है सागर का
दक्षिण में लहराता तन उसका।
नदियॉं दर्पण-सी बहती कल-कल
समतल भूभाग से वो प्रतिपल।
झरने पर्वत से गिरती चलती
जैसे बालाएॅं ,सखी संग हॅसती।
खेत,वन सुंदर है उपवन
भू के गर्भ में छुपा है कंचन।
प्रशंसा कितनी करु मैं तेरी?
भर आती अब ऑंखें मेरी।
विराट  ह्रदय  है मातृभूमि तेरा
सो गए वो यहॉं, जो प्रिय था मेरा।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि! हरदम हम तेरा ।      
 
                                 ______  अर्चना सिंह‘जया’
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Tuesday, October 25, 2016

एक लड़की ( कविता )


सड़क पर रुकी थी,गाड़ी अभी
दौड़ती-भागती एक लड़की, आई तभी
आवाज़ लगाती,‘‘बाबूजी बाबूजी
भूख लगी है जोरों की,
हूॅं भूखी मैं कल की।’’
शायद!अनाथ वो जान पड़ती थी,
भाई-बहन की दुहाई वो देती थी।
दया भावना लगी थी जगने
थैले से निकाल बिस्कुट,केले दिए हाथ में।
लपक कर थामी दोनों हाथों से
फिर सरपट भाग गई, सड़को पे।
मेरी नज़र लगी, झट खोजने उसे
किधर गई और आई किधर से ?
मन के तार छेड़ कर चल दी,
विचलित मन से हॅूं सोचती यही।
मेरी ही उम्र की थी वो लड़की,
मैं सुख के साये में पली बढ़ी
भाग्य की थी,शायद वो कुछ बुरी।
अपने स्वप्न को ताले लगाकर,
बचपन को चौराहे पर लाकर।
पेट की तृष्णा से वो थी जूझती,
दुनिया के ताने मौन ही सहती।
संघर्षपूर्ण जीवन देखकर उसका
ऑंखों में पानी भर आया।
न जाने कोई ईश्वर की माया,
हमने जो पाया बहुत है पाया।
आज मन कुछ इस तरह
खुद को है समझाया।
                         ............... अर्चना सिंह जया

Tuesday, October 18, 2016

मेरा अभिनंदन तुम्हें ( कविता )

   
स्नेह पुष्प है नमन तुम्हें,
हे मातृभूमि ! मेरा अभिनंदन तुम्हें।
माटी कहती कहानी तेरी
कोख से जनमें सपूत कई,
शहीद वीरों को करुॅं भेंट सुमन।
जो अपनी सॉंसें देकर,
वादियों को गले लगाकर,
भूमि को सेज बनाकर,
पावन किए हमारा वतन।
स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,
मॉं के अश्रु से भिंगा गगन
पथराई ऑंखें राह निहारती
पत्नी ,बच्चों का जो पूछो मन।
आस न रही बाकी कोई,
कहॉं गए जाने सजन ?
बिटिया का टूट गया है मन
पिता के साथ देखती थी स्वप्न।
बिखरा है उसका मन दर्पण
ये पीड़ा सहे कैसे आजीवन ?
स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,
पर उस मॉं का हिय
कितना है, विशाल
दूसरे पुत्र को फिर से
वतन को सौंप, हुई निहाल।
एक नहीं सौ पुत्र भी जो होते
सीमा पर हम उसे भेजते।
राष्ट् प्रेम की वो दीवानी
किसी की बेटी, किसी की रानी।
ऐ मॉं ! स्नेह पुष्प है नमन तुम्हें।
हे मातृभूमि ! मेरा अभिनंदन तुम्हें।
                     
                                      ............... अर्चना सिंह जया