Tuesday, July 19, 2016

इकलौती पत्नी ( कहानी )

आज की शाम एक अजीब-सा एहसास लिए हुए है। ऐसा लग रहा है कि फिर वही बेबस शाम जीवन में दस्तक दे रही है जिसने मुझे हिलाकर रख दिया था। वैसे देखा जाए तो ये एक अजीब बात थी मैं, गायत्री उसी अस्पताल में उसी बिस्तर पर उसी केबिन में 10 दिनों से बीमार थी। ये महज़ इत्तिफ़ाक़ ही तो था और क्या था? मगर आँखें धुँधली हो चलीं थी क्योंकि आँसुओं ने अपनी जगह बना ली थी। डॉक्टरों के अनुसार मैं तीन-चार महीनों से ज़्यादा नहीं जीने वाली थी, एक बड़ी बीमारी ने मेरा दामन जो थाम रखा था।
मैं बिस्तर पर लेटी-लेटी अपनी ज़िंदगी के सारे गुज़रे पलों को जैसे किसी फ़िल्म के समान देखने लगी थी। अभी मैंने शादी करके अपने ससुराल में प्रवेश ही किया था कि तरह-तरह की बातें होने लगी थीं। उस ज़माने में भी मेरे बाबू जी ने अच्छी-ख़ासी दहेज़ की रक़म दी थी जिससे सभी की आँखें चौंधियाने लगी थीं। पति को साइकिल भी मिली थी। दौरा में पैर डाल कर मेरा गृहप्रवेश हुआ था, गाँव का मिट्टी का वह घर और मैं शहर की लड़की। मुझे ज़रा परेशानी तो हुई पर पति का साथ, सब कुछ आसान कर देता था। जहाँ पति पढ़े-लिखे व नौकरी करते थे, वहीं मैं केवल नवीं पास थी। मुझे चार ननदें और एक देवर मिले, सास नहीं थीं। ससुर साक्षात् ईश्वर स्वरूप थे। मेरे मन में एक डर घर करता जा रहा था कि मुझे अपनी ननदों के साथ गाँव में ही कहीं न रहना पड़े और पति अकेले ही शहर न चले जाएँ। ये ईश्वर की कृपा ही तो थी कि मुझे शहर जाने की इजाज़त मिल गई। पति से दूर रहने की कल्पना मात्र से भी मैं परेशान हो जाती थी।
शहर की रंगीनियों के बीच मैं अपने पति व तीसरी ननद के साथ आकर रहने लगी। ननदों की शादी में पति ने पूर्ण सहयोग दिया, ससुर लड़का खोजकर विवाह तय करते और मेरे पति धनराशि देकर मदद करते थे। मैं बड़ी भाभी होने का फ़र्ज़ निभाती गई। बेटी जब तक मायके में रहती है उसे ज़िम्मेदारी का एहसास भी नहीं होता पर शादी होने के पश्चात् जैसे वो परिपक्व हो जाती है। एक नए परिवार से ख़ुद का रिश्ता जोड़ने में उसे कुछ समझौते भी करने पड़ते हैं, कई इच्छाओं का त्याग भी करना पड़ता है। जबकि मेरे ससुर जी की सोच सुलझी हुई थी, दुलहिन वहीं रहेगी जिसके साथ उसकी शादी हुई है। मेरी बेटियों को सम्भालने की ज़िम्मेदारी मेरी ही है।
बाबुजी शायद पत्नी के विच्छोह का दर्द समझ रहे थे, उनका स्वर्गवास पाँचवें बच्चे के जन्म के समय हुआ था। बाबुजी गाँव पर ही सम्मिलित परिवार में रहते थे, जहाँ उनके बच्चों की देख-रेख बड़े भाई की पत्नी किया करती थीं। इसलिए ननदें अगर मेरी साड़ी कपड़े में से कुछ माँग बैठतीं तो मैं ना नहीं कर पाती थी, भले ही वो मेरी पसंददीदा वस्तु क्यों न हो? मुझे अपने पति के साथ रहने का अवसर जो प्राप्त था, इस बात की मैं सदा ही शुक्रगुज़ार थी। साथ ही देवर भी अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए हमारे साथ रहने लगे। इन सब के दौरान मेरे भी दो बच्चे हो गए। हर परिवार की तरह हमारे परिवार में भी कुछ उतार चढ़ाव हुए, पर वो समय भी नहीं थमा - गुज़र ही गया।
तभी अचानक एक मीठी सी आवाज़ कानों में पड़ी, "माता जी अल्ट्रासाउंड के लिए चलना है।" मैं चौंक सी गई, फिर मैंने कहा, "ईश्वर न जाने किस ग़लती की सज़ा दे रहा है। चलो बिटिया" कह कर मैंने नर्स का हाथ थामा। उसने कहा, "माता जी आप तो बहुत हिम्मत वाली हो, मैं तो औरों को आप का उदाहरण देती हूँ। आप को तो अभी पोते की शादी देखनी है।" बातें करते हुए मुझे व्हील-चेयर पर बिठाया। एक-एक पल जैसे बोझ सा महसूस हो रहा था। मैं चलते हुए सोचने लगी कि अगर पति बीमार हो तो पत्नी अपना धर्म समझ कर हर छोटे-बड़े फ़र्ज़ को निभाती है, पति की सेवा में कुछ भी कसर नहीं छोड़ती है। मगर कोई ये बताए कि क्या पति, पत्नी के साथ अपना प्यार, सहानुभूति व उसकी सेवासुश्रा का फ़र्ज़ निभा पाता है? उसे पत्नी की सेवा में धर्म क्यों नज़र नहीं आता?
अगली सुबह बिस्तर पर पड़े-पड़े खिड़की से बाहर देख रही थी। तभी नर्स केबिन में आई, "माता जी आप कैसे हो? आपने नाश्ता किया।"
"हाँ, कर लिया," मैंने कहा।
"और आप अपने पति के विषय में उस दिन कुछ बता रहीं थीं, उन्हें इसी केबिन में भर्ती किया गया था।"
"हाँ, वो अब नहीं हैं, उनकी दोनों किडनी ही ख़राब हो गईं थीं।"
"ओह! मैंने ये क्या... क्षमा कर दीजिए।"
"नहीं, कोई बात नहीं। मुझे उनकी बातें करना अच्छा लगता है।"
"कल आप को छोड़ दिया जायेगा, फिर दस दिन पर आना होगा। अब आप आराम करिए।"
नर्स दवा खिला कर चली गई। पर मेरा मन कुछ बेचैन सा हो रहा था, स्वच्छंद होकर पुराने समय की ओर भटकने लगा। जीवन के दर्पण में सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था। समय मुट्ठी में थामे रेत की तरह फिसल चुका था। मैं जीवन के अनुभवों को बटोरते हुए अपने पति के साथ समय व्यतीत करने लगी। वे मुझसे प्रत्येक कार्य में राय ज़रूर लेते थे। समय गुज़रता गया बच्चों की शादियाँ भी हो गईं, हम दादा-दादी भी बन गए। अभी नौकरी से रिटायर हुए चार-पाँच महीने ही हुए थे कि उनकी दोनों किडनियाँ ही ख़राब हो गईं। अब सब कुछ अस्त-व्यस्त सा होता दिखने लगा, घर अस्पताल के चक्कर आरम्भ हो गए। मैं पल-पल एक डर के साथ जीने लगी, पैसा पानी की तरह बहने लगा था। डॉक्टरों ने तीन महीने के लिए वैलोर भेज दिया, वहाँ मैं उनके साथ पल-पल दर्द को महसूस कर रही थी। दोनों लड़के बारी-बारी से आते-जाते थे। हम दोनों आपस में एक दूसरे से हँसते, रोते और बातें करते, हमारी दुनिया ही बदल चुकी थी। तीन महीनों के पश्चात् हम वापस अपने शहर आ गए।
सफ़र के पश्चात् तबीयत और भी नासाज़ रहने लगी, उन्हें अस्पताल में जाँच के लिए फिर से भर्ती करना पड़ा। स्वास्थ्य प्रतिदिन गिरता ही नज़र आ रहा था। एक दिन कुछ पैसों की ज़रूरत आन पड़ी। मैंने उनसे चेक पर साइन करने को कहा, बड़ा बेटा भी साथ में ही खड़ा था। बेटे की नज़र पापा के काँपते हाथों पर पड़ी तो उसने मुझसे साइन करने को कहा। मैंने आगे बढ़कर क़लम लेनी चाही तभी पति ने कहा, "हमारा ज्वाइंट एकाउंट नहीं हैं।" इतना सुनते ही मेरे बेटे के क्रोध का ठिकाना ही नहीं रहा। मेरे भी पैरों तले से ज़मीन निकलती सी लग रही थी। जिस पति को देवता के समान समझ रही थी वही मुझे दल-दल में छोड़ देगा। अब बेटे ने तुरंत ही ज्वाइंट एकाउंट करवाने का सिलसिला आरंभ कर दिया। पति को भी अब इसकी ज़रूरत महसूस होने लगी किंतु मैं नाराज़ रहने लगी। मैंने पति से कहा, "अब ये सब करवाने की क्या ज़रूरत है? मेरी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझसे अपनी सेवा तो करवा ही ली, बच्चे मिल ही गए, परिवार मैंने सँभाल ही दिया। और भी कुछ करवाना है तो वो भी करवा लीजिए।" इतना कहना ही था कि उनकी आँखों से अश्रु की धारा फूट पड़ी, मैं भी खूब रोई। रोते हुए क्षमा भी माँगी, उन्हें अपनी ग़लती पर पछतावा भी हुआ। उनकी आँखें भी नम हुई। अजीब सी शाम थी, उनकी चिंता किसी चिता से कम न थी।
अगले ही दिन मैं मुँह-हाथ धोकर बाहर ज़रा एक कर्मचारी को बुलाने गई, तभी वे सो रहे थे। मैं जब लौटकर आई तो नर्स के साथ दो डॉक्टरों को खड़े देखा। मन में प्रश्न उठने लगे मैंने पूछा, "क्या हुआ सिस्टर? सब ठीक है न।"
नर्स ने कहा, "हाँ, आप बैठिए बेटे को अभी बुलवाया है।"
"बेटे को क्यों?" इतना अभी पूछा ही था कि बेटा सामने आ गया। डॉक्टरों ने सिर हिलाते हुए "सॉरी" कह दिया। मैं समझ गई कि कुछ तो गड़बड़ है। मैंने नज़दीक आकर उनका हाथ छुआ, उनसे बात करने की कोशिश की पर जैसे वक़्त ही ठहर चुका था। मैं हताश ख़ामोश सी हो गई। मेरी सारी ख़ुशी, अस्तित्व जैसे वायु में विलीन हो गए। आज ख़ुद को असहाय अकेली महसूस करने लगी।
18 दिनों के पश्चात् घर में बैंक व कुछ पेपर की चर्चा होने लगी, दोनों बच्चों के सामने एक समस्या आ खड़ी हुई। उन्हें साबित करना था कि मैं ही उनके पिता की पत्नी हूँ। आज मुझे स्वयं के जीवन को धिक्कारने का मन कर रहा था, मैंने जिसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था वही मेरी पहचान माँग रहा था। मैंने क्रोध में बच्चों से कहा, "मुझे रुपए पैसे नहीं चाहिए, जाओ उन्हीं को दे आओ। वो अपने साथ ये सब क्यों नहीं ले गए?" बच्चों ने समझाना शुरू किया और मुझे प्यार से थाम लिया।
अगले दिन हम कोर्ट व बैंक गए, साथ ही पति के तीन मित्र भी थे जो गवाह के तौर पर साथ में चले थे। उनकी गवाही से ये साबित हो पाया कि मैं अपने पति की इकलौती पत्नी हूँ, फिर जाकर कहीं मेरा ज्वाइंट एकाउंट का प्रमाण हो पाया और पैसे को सुरक्षित किया गया। कैसी विडंबना है कि जो पत्नी एक परिवार को खड़ा करने में अहम् भूमिका निभाती है बिना किसी लालच व स्वार्थ के उसी का अपना अस्तित्व धूमिल होने लगता है।
तभी नर्स ने आवाज़ लगाई तो मैं चौंक गई, "माता जी आप तैयार नहीं हुईं, बेटा घर ले जाने आया है।"
मैंने कहा, "हाँ बस दो मिनट देना मैं आई। पर मैं फिर जब आऊँ तो इसी केबिन में और इसी बिस्तर पर।"
"ओह हो! आप तो भावुक हो रही हो माँ।"
"तुम नहीं समझोगी बेटी, ये एक औरत यानि पत्नी की भावना है। अच्छा है तुम लोग शादी नहीं करती हो। तुम्हारी अपनी पहचान तो कहीं नहीं खोती है।"

                                         -------अर्चना सिंह जया 

Saturday, July 16, 2016

पिता की व्यथा ( कविता )

दहेज रूपी कैसी है ये प्रथा?
हर बेटी के पिता के मन की
यह बन चुकी है व्यथा।
लेन देन के नाम पर व्यापार करते,
अपने ही हाथों अपने संस्कारों को
चौराहों पर हैं निलाम करते।
वही तो हैं माता-पिता पुज्यनीय
फिर सास-ससुर बन क्यों ?
निगाहों को हैं फेरा करते।
वो ही हैं जो बेटी की खुशियॉं
पलकों पर हैं सजाए चलते।
बहू रूपी बेटी को फिर ,क्यों
धन की ज्वाला में झोंका करते ?
वाह ! क्या परिवर्त्तन है आया 
दहेज अब नहीं लेते हैं, पर
सर्विस वाली बहू का ही चयन करते।
धन कमाकर सासरे का नाम बढ़ाए
सास-ससुर का ही नहीं
पति का खर्च भी वो ही चलाए।
वाह रे ! दुनिया विडम्बना भी कैसी है तेरी
सृृष्टि का सृृजनहार है तू कैसा ?
बेटी की पहचान को ही दफना बैठा।
देवियों -सी पूज्यनीय है धरती माता
पर यहीें , बेटियों को बलि चढ़ाया जाता ।
भ्रूण  हत्या जैसे पाप भी किए जाते
बेटे की जननी को ही अग्नि में झोंक देते।
बेटियॉं ही होती हैं समाज की लाज
 इन्हीं से ही है हमारी संस्कृृति जीवित,
फिर बेटी का पिता सदैव क्यों है चिंतित?

                                                                                      ----अर्चना सिंह‘जया’

Sunday, July 10, 2016

सोच को दो नई दिशा

.                                                              
             
              बेटी के लिए ही क्यों ? बेटों के लिए हमारी सोच बदलने की आवश्यकता है।

          शाम का वक्त मैं और मेरी सहेली ठंढी हवा का आनंद ले रहे थे कि तभी सामने पार्क के झूले पर झूलती 12 वर्षीय बच्ची पर नजर पड़ी, जिसकी माँ तीव्र गति से उसकी ओर आई और दो थप्पड़ जड़ते हुए पूछा- 'इतनी देर हो गई है अभी तक खेल रही हो।'  बेटी ने रोते हुए प्रश्न किया, भईया भी तो खेल रहा है उसे तो नहीं डाँटती। विशाल ,कोमल हृदय वाली माँ ने उसे चुप की फट््कार लगाते हुए कहा ,'भईया से अपनी तुलना कर रही है।' माँ की  आवाज़  तीव्र  हुई --' राघव बेटा, एक घंटे में घर आ जाना पापा ने कहा है/' ये कहते हुए बिटिया को खींचती हुई ले गई।
                 समाज का वह शिक्षित वर्ग जिसने अपनी मानसिकता पर कभी प्रश्न नहीं किया। क्या हम स्वयं को शिक्षित कहने वाले लोग अपनी सोच में परिवर्त्तन ला पाएँ हैं? बालिकाओं पर हो रहे अत्याचार देश के लिए प्रश्नसूचक है। पुत्र या पुत्री दोनों ही समाज के अंग हैं,ऐसे में पुत्रों को स्वच्छंदता से विचरण करने की सोच को बढ़ावा देना उचित नहीं है। हमारे ही घर की बेटियाँ घर के बाहर सुबह हो या शाम असुरक्षित क्यों महसूस कर रहीं हैं? बेटों को देर रात तक बाहर रहने की आजादी किसने दी है? उन्हें भी समय से अवगत कराया जाए और असमय बाहर रहने की अनुमति न दी जाए। तब शायद हमारे ही घरों की बेटियों को डरने की जरुरत न पड़े। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से डरे यह तो  बुद्धिजीवी  कहलाने वाले मानव के लिए शर्म की बात है।  प्रकृति  के सभी कार्य नियम से हो रहे हैं फिर हम उन्हीं पशु पक्षियों से कुछ क्यों नहीं सीख रहे हैं?
                 आधुनिकता को अपनाएँ किन्तु अपने घरों के बेटों को समय-असमय, उचित-अनुचित, कुविचार- सुविचार के बीच के अंतर को समझाएँ। सुपुत्रों को शेर बनाने वालों वही शेर हमें ही हानि न पहुँचाए, इस पर विचार अवश्य करें। मुझे,आपको ,हमसब को अपनी सोच को नई दिशा देने पर विचार करने की अवश्यकता है।
               
                                                                                              ---अर्चना सिंह ‘जया’ 

Tuesday, July 5, 2016

धरती हिली आसमान फटा

   

धरती हिली,आसमान फटा
अजीब सा एहसास हुआ।
प्राकृतिक विपदाओं को देख,
मानव  ह्रदय यूॅं कॉंप उठा।
नभ का हिय छलनी हुआ,
धरा का तन तार-तार किया।
शिशु, युवा से वृद्ध हुए तब
स्वयं की भूल का भास हुआ।
न सोचा था कल का हमने,
जब वृक्षों का नाश किया।
पय को तुच्छ समझ कर हमने,
भविप्य के लिए कहॉं विचार किया?
भू के गर्भ का न मान रखा,
मॉं -बहनों का अपमान किया।
सहन का बॉंध अब टूट पड़ा,
शैलाब ने सारा नाश किया।
तन-मन का दर्द भेद गया,
अश्रु की धार नभ से फूटा।
धरती हिली आसमान फटा
तब भी भूल का न आभास हुआ।                
                                                       
                                                      .......अर्चना सिंह‘जया’

Sunday, July 3, 2016

तुलिका और मैं... (Paintings)





ममता की छॉंव ( कविता )

     

मॉं की ममता है सबसे न्यारी
जीवन दायनी बन कर तुम
सींचती जीवन बगिया क्यारी ,
मॉं की स्नेह का मोल नहीं
उसकी ऑंचल में है फुलवारी ।
मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।
    सद्गुणों से परिचय करवाती
    कठिन राह भी सरल बनाती
    अपने अश्रु हमीं से छुपाती
    उसके स्पर्श की हूॅं आभारी।
    मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।
दो परिवारों का दायित्व निभाती
राह के काटों को चुन-चुनकर
मखमली बिस्तर पर हमें सुलाती।
हमारे सपनों में सदा रंग भरती
मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।
     तू ही श्री, नीरधि ,तू ही शारदा
     तुझमें देखूॅं सम्पूर्ण व्योम-धरा
     शीतल छॉंव तेरी है प्यारी
     ममता की छॉंव पर जाऊॅं वारि  ।
     ऋण उतार न पाऊॅं ममता की
     मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।


                                          ........................  अर्चना सिंह‘जया’
                           मॉं सदैव तुम्हें प्रणाम

Friday, July 1, 2016

और जाऊँ वारि मैं ( कविता )

कुछ सुनहरी यादें हैं
पिता के आँगन की
जिन लम्हों में साथ मुस्कुराते थे।
सुख हो या दुःख हो ,                          
सहजता से सहा करते                                          खुलकर हँसते और हरपल जीते                              कैरम व लूडो से गूँजतीं किलकारियाँ थीं।                  एक दिन नहीं, एक वर्ष  नहीं                      
कई वर्षों  का साथ रहा हमारा।                              हर सुबह पुकार कानों में पड़ती,                           
पाठशाला भेजने की चिंता सदा ही रहती ।    
वो गूँज आज फिर सुनाई दे गई,
हवाओं के साथ मधुर रस घोल गई।
याद बनकर रह गई अब वो घड़ी
स्ंध्या की बेला कई खेलों की याद दिलाती ।
जब घाव दर्द से मैं कराहती, तभी
कोमल स्पर्श से व्यथा कहीं छू हो जाती।
उन सुनहरे पलों की याद है सताती
पिता की छाया हमें है भाती।
आभार प्रकट करना चाहूॅं मैं
जिनकी छत्र छाया ने बनाया हमें।
करती रहती हूॅं विनम्र प्रार्थना ये
आशीष  बनी रहे सदैव जीवन में ।
लक्ष्य पा सकी , हूॅं आज आभारी मैं
शुक्रिया हर सहयोग का और जाऊॅं वारि  मैं।

                                              ------------ अर्चना सिंह ‘जया’
         पूजनीय पिता जी को प्रणाम