Saturday, July 16, 2016

पिता की व्यथा ( कविता )

दहेज रूपी कैसी है ये प्रथा?
हर बेटी के पिता के मन की
यह बन चुकी है व्यथा।
लेन देन के नाम पर व्यापार करते,
अपने ही हाथों अपने संस्कारों को
चौराहों पर हैं निलाम करते।
वही तो हैं माता-पिता पुज्यनीय
फिर सास-ससुर बन क्यों ?
निगाहों को हैं फेरा करते।
वो ही हैं जो बेटी की खुशियॉं
पलकों पर हैं सजाए चलते।
बहू रूपी बेटी को फिर ,क्यों
धन की ज्वाला में झोंका करते ?
वाह ! क्या परिवर्त्तन है आया 
दहेज अब नहीं लेते हैं, पर
सर्विस वाली बहू का ही चयन करते।
धन कमाकर सासरे का नाम बढ़ाए
सास-ससुर का ही नहीं
पति का खर्च भी वो ही चलाए।
वाह रे ! दुनिया विडम्बना भी कैसी है तेरी
सृृष्टि का सृृजनहार है तू कैसा ?
बेटी की पहचान को ही दफना बैठा।
देवियों -सी पूज्यनीय है धरती माता
पर यहीें , बेटियों को बलि चढ़ाया जाता ।
भ्रूण  हत्या जैसे पाप भी किए जाते
बेटे की जननी को ही अग्नि में झोंक देते।
बेटियॉं ही होती हैं समाज की लाज
 इन्हीं से ही है हमारी संस्कृृति जीवित,
फिर बेटी का पिता सदैव क्यों है चिंतित?

                                                                                      ----अर्चना सिंह‘जया’

Sunday, July 10, 2016

सोच को दो नई दिशा

.                                                              
             
              बेटी के लिए ही क्यों ? बेटों के लिए हमारी सोच बदलने की आवश्यकता है।

          शाम का वक्त मैं और मेरी सहेली ठंढी हवा का आनंद ले रहे थे कि तभी सामने पार्क के झूले पर झूलती 12 वर्षीय बच्ची पर नजर पड़ी, जिसकी माँ तीव्र गति से उसकी ओर आई और दो थप्पड़ जड़ते हुए पूछा- 'इतनी देर हो गई है अभी तक खेल रही हो।'  बेटी ने रोते हुए प्रश्न किया, भईया भी तो खेल रहा है उसे तो नहीं डाँटती। विशाल ,कोमल हृदय वाली माँ ने उसे चुप की फट््कार लगाते हुए कहा ,'भईया से अपनी तुलना कर रही है।' माँ की  आवाज़  तीव्र  हुई --' राघव बेटा, एक घंटे में घर आ जाना पापा ने कहा है/' ये कहते हुए बिटिया को खींचती हुई ले गई।
                 समाज का वह शिक्षित वर्ग जिसने अपनी मानसिकता पर कभी प्रश्न नहीं किया। क्या हम स्वयं को शिक्षित कहने वाले लोग अपनी सोच में परिवर्त्तन ला पाएँ हैं? बालिकाओं पर हो रहे अत्याचार देश के लिए प्रश्नसूचक है। पुत्र या पुत्री दोनों ही समाज के अंग हैं,ऐसे में पुत्रों को स्वच्छंदता से विचरण करने की सोच को बढ़ावा देना उचित नहीं है। हमारे ही घर की बेटियाँ घर के बाहर सुबह हो या शाम असुरक्षित क्यों महसूस कर रहीं हैं? बेटों को देर रात तक बाहर रहने की आजादी किसने दी है? उन्हें भी समय से अवगत कराया जाए और असमय बाहर रहने की अनुमति न दी जाए। तब शायद हमारे ही घरों की बेटियों को डरने की जरुरत न पड़े। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से डरे यह तो  बुद्धिजीवी  कहलाने वाले मानव के लिए शर्म की बात है।  प्रकृति  के सभी कार्य नियम से हो रहे हैं फिर हम उन्हीं पशु पक्षियों से कुछ क्यों नहीं सीख रहे हैं?
                 आधुनिकता को अपनाएँ किन्तु अपने घरों के बेटों को समय-असमय, उचित-अनुचित, कुविचार- सुविचार के बीच के अंतर को समझाएँ। सुपुत्रों को शेर बनाने वालों वही शेर हमें ही हानि न पहुँचाए, इस पर विचार अवश्य करें। मुझे,आपको ,हमसब को अपनी सोच को नई दिशा देने पर विचार करने की अवश्यकता है।
               
                                                                                              ---अर्चना सिंह ‘जया’ 

Tuesday, July 5, 2016

धरती हिली आसमान फटा

   

धरती हिली,आसमान फटा
अजीब सा एहसास हुआ।
प्राकृतिक विपदाओं को देख,
मानव  ह्रदय यूॅं कॉंप उठा।
नभ का हिय छलनी हुआ,
धरा का तन तार-तार किया।
शिशु, युवा से वृद्ध हुए तब
स्वयं की भूल का भास हुआ।
न सोचा था कल का हमने,
जब वृक्षों का नाश किया।
पय को तुच्छ समझ कर हमने,
भविप्य के लिए कहॉं विचार किया?
भू के गर्भ का न मान रखा,
मॉं -बहनों का अपमान किया।
सहन का बॉंध अब टूट पड़ा,
शैलाब ने सारा नाश किया।
तन-मन का दर्द भेद गया,
अश्रु की धार नभ से फूटा।
धरती हिली आसमान फटा
तब भी भूल का न आभास हुआ।                
                                                       
                                                      .......अर्चना सिंह‘जया’

Sunday, July 3, 2016

तुलिका और मैं... (Paintings)





ममता की छॉंव ( कविता )

     

मॉं की ममता है सबसे न्यारी
जीवन दायनी बन कर तुम
सींचती जीवन बगिया क्यारी ,
मॉं की स्नेह का मोल नहीं
उसकी ऑंचल में है फुलवारी ।
मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।
    सद्गुणों से परिचय करवाती
    कठिन राह भी सरल बनाती
    अपने अश्रु हमीं से छुपाती
    उसके स्पर्श की हूॅं आभारी।
    मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।
दो परिवारों का दायित्व निभाती
राह के काटों को चुन-चुनकर
मखमली बिस्तर पर हमें सुलाती।
हमारे सपनों में सदा रंग भरती
मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।
     तू ही श्री, नीरधि ,तू ही शारदा
     तुझमें देखूॅं सम्पूर्ण व्योम-धरा
     शीतल छॉंव तेरी है प्यारी
     ममता की छॉंव पर जाऊॅं वारि  ।
     ऋण उतार न पाऊॅं ममता की
     मॉं की ममता है सबसे न्यारी ।


                                          ........................  अर्चना सिंह‘जया’
                           मॉं सदैव तुम्हें प्रणाम

Friday, July 1, 2016

और जाऊँ वारि मैं ( कविता )

कुछ सुनहरी यादें हैं
पिता के आँगन की
जिन लम्हों में साथ मुस्कुराते थे।
सुख हो या दुःख हो ,                          
सहजता से सहा करते                                          खुलकर हँसते और हरपल जीते                              कैरम व लूडो से गूँजतीं किलकारियाँ थीं।                  एक दिन नहीं, एक वर्ष  नहीं                      
कई वर्षों  का साथ रहा हमारा।                              हर सुबह पुकार कानों में पड़ती,                           
पाठशाला भेजने की चिंता सदा ही रहती ।    
वो गूँज आज फिर सुनाई दे गई,
हवाओं के साथ मधुर रस घोल गई।
याद बनकर रह गई अब वो घड़ी
स्ंध्या की बेला कई खेलों की याद दिलाती ।
जब घाव दर्द से मैं कराहती, तभी
कोमल स्पर्श से व्यथा कहीं छू हो जाती।
उन सुनहरे पलों की याद है सताती
पिता की छाया हमें है भाती।
आभार प्रकट करना चाहूॅं मैं
जिनकी छत्र छाया ने बनाया हमें।
करती रहती हूॅं विनम्र प्रार्थना ये
आशीष  बनी रहे सदैव जीवन में ।
लक्ष्य पा सकी , हूॅं आज आभारी मैं
शुक्रिया हर सहयोग का और जाऊॅं वारि  मैं।

                                              ------------ अर्चना सिंह ‘जया’
         पूजनीय पिता जी को प्रणाम 

Sunday, June 26, 2016

रेणू धर्म ( कहानी )

        आज सुबह से उठकर मेरा मन कुछ अनमना -सा हो रहा था। जैसे-तैसे कर मैंने पति के लिए नाश्ता बनाकर डिब्बे में रख दिया। पति के ऑफिस चले जाने के पश्चात् मैंने अपनी सखी के घर पर फोन किया ,‘हेलो! कामवाली आई है क्या ?’ नम्रता ने कहा ,‘ हॉं, बस अभी ही आई है। कुछ उदास लग रही है।’ ‘अच्छा ! चलो उससे कहना कि मेरा काम जरा पहले कर दे।’ मैंने ऐसा कहते हुए फोन रख दिया । नहा धोकर पहले नाश्ता करने बैठ गई। नाश्ता कर दवा ली और चाय पीने की तलब़ होने लगी कि तभी कॉलबेल बजी।
        दरवाजे को खोला तो देखा कि अम्मा सामने खड़ी थी। मैंने कहा,‘अम्मा , चाय पीने की इच्छा हो रही है जरा बना दो ना ,अपने लिए भी बना लेना।’ इतना कह कर मैं बिस्तर पर लेट गई। मैं अब आ गई हॅूं न तुम परेशान ना हो ,दीदी । फिर अम्मा चाय बनाने चल दी। अम्मा ने कहा,‘ आजके आमर बूढ़ा शोरिर टा भालो नेई। सेई जोन्ने मोन टा एकटू भालो नेई।’ दीदी तुम्हारे संग बात कर ही मेरा मन हल्का होता है, तुम ही हो जो मेरी बात समझती हो । हॉं, रेणू का ये कहना बिल्कुल सही था , उसकी बंगाली भाषा मुझे ही समझ आती थी। वो कह रही थी कि उसके बूढ़े की तबीयत ठीक नहीं है। मैंने कहा कि चिंता मत कर सब ठीक हो जाएगा। चाय और रोटी  लेकर यहीं पंखे के नीचे आ जा।
      अम्मा की उम्र साठ वर्ष के आस-पास की थी ,बेटे बहु वाली थी। उसकी शादी दस वर्ष की थी तब हुई थी। तीन बच्चे भी हुए किन्तु जब उसका तीसरा बेटा हुआ तो पति ने दूसरी शादी कर ली और शराब पीने की लत भी उसी समय से तीव्र हो गई। कोई भी उसे रोक पाने में असमर्थ था । पुरुष  को तो गलती करने की जैसे पूर्ण स्वतंत्रता है,अगर स्त्री करे तो संस्कार हीन कहलाएगी। दूसरी शादी से भी उसके दो बच्चे हुए। समय गुजरता गया ,बच्चे सभी बड़े होते गए। बच्चों की भी शादी वगैरह हो गई। उम्र के साथ बूढ़ा कमज़ोर और बीमार रहने लगा। ऐसी स्थिति में अम्मा ने ही उसे संभाला उसकी देख रेख की, दवा-दारु का भी प्रबंध किया। न जाने अम्मा को ही इतनी चिंता क्यों रहती है और दूसरी पत्नी भी तो है। अम्मा तो जी जान से उसकी देखरेख करती। एक दिन अम्मा बीमार अवस्था में ही काम पर आ गई ।
मैंने गुस्से में कहा,‘ अम्मा तुम्हें आज आने की क्या जरुरत थी।’
दीदी पैसे जमा करने हैं पति का इलाज़ करवाना है।
मैंने कहा, ‘बूढ़ा के बेटा बहु भी तो हैं और उसकी दूसरी पत्नी भी। अम्मा तू ही इतनी चिंता क्यों करती है?’
‘मैं अपना धर्म निभा रही हूॅं दीदी ईश्वर को मुॅंह भी तो दिखाना है।’
मैंने कहा,‘अच्छा धर्म का ख्याल बूढ़े को उस वक्त क्यों नहीं आया जब तुम्हारे रहते उसने दूसरी शादी की?’
‘जाने दो दीदी मैं अपना धर्म निभा रही हूॅं। मेरा पत्नी धर्म ये ही है।’
‘मैं नहीं मानती रेणू तू बहुत ही भोली है। ये रेणू धर्म है,सभी पर लागू नहीं होता।’ मैंने जरा क्रोध में कहा। चल अब चपाती संग चाय पी कर फिर काम करना। ‘पुरुष प्रधान समाज में रहने का अर्थ ये नहीं होता रेणू ,ईश्वर की दृष्टि में सभी एक हैं वो है मानव धर्म ।’ मैं ऐसा कहते हुए उसके हाथ पर दवा रख दी। सारे दिन रेणू के विषय में  ही सोचती रही । आखिर क्यों पत्नी धर्म की दुहाई दी जाती है ,पति धर्म की नहीं ?
                                                                                                                                                                   -                                                                      ---------   अर्चना सिंह ‘जया’