वक्त के साथ साथ ही,
लम्हों की गिनती कम होने लगी।
मंजिल से पहले ही यहाँ
राह लम्बी, धुंधली सी लगने लगी।
क्या जाने कब धूल,
दिल दर्पण पर गहरे होते गए।
अपने ही चेहरे आइने में
क्यों अपरिचित से लगने लगे?
मन को आशा थी चाहत की,
आँधियों में भी चिराग जलाए रखे।
बहते आँसुओं की दाँसता,
मन के कोने में ही दफ़नाए रखे।
साँसों की डोर से पहले
रिश्तों की डोर कमजोर होने लगी।
जिंदगी से पहले यहां,
सांसों की गिनती कम होने लगी।
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