Monday, November 12, 2018

POEM --- चलो सूर्योपासना कर लें

चलो सूर्योपासना कर लें

         
चलो सूर्योपासना कर लें,
छठी मईया की आराधना कर लें।
अनुपम लोकपर्व फिर मना कर,
कार्तिक शुक्ल षष्ठी का व्रत कर,
लोक आस्था को जागृत कर लें।
चलो सूर्योपासना कर लें,
छठी मईया की आराधना कर लें।
     सूर्योदय व सूर्यास्त के पल हम,
     जल अर्पण कर शीश झुकाएॅं,
     सुख-समृद्धि,मनोवांछित फल पाएॅं,
     घर से लेकर घाट जब जाएॅं,
     भक्तिगीत समर्पित कर आएॅं।
     चलो सूर्योपासना कर लें,
     छठी मईया की आराधना कर लें।
निर्जला  व्रत कठिन है करना
खीर ग्रहण कर मनाएॅं ‘खरना’।
कद्दू-चावल प्रसाद ग्रहण कर,
व्रत आरंभ करते श्रद्धालु जन,
पावन पर्व का संकल्प ले कर।
चलो सूर्योपासना कर लें,
छठी मईया की आराधना कर लें।
      डाल दीप,फल,फूलों से सजाकर,
      संध्या अर्घ्य  व उषा अर्घ्य अर्पित कर,
      चार दिवसीय यह पर्व मनाकर ,
      निष्ठा-श्रद्धा से जो कर लो इसको
      घाट दीपावली-सा सज जाता फिर तो।
      चलो सूर्योपासना कर लें,
      छठी मईया की आराधना कर लें।

                            अर्चना सिंह जया

साधना का जादू - पुस्तक

www.matrubharti.com
मेरी नई पुस्तक ‘‘साधना का जादू’’ जिसे प्रतियोगिता में शामिल किया गया था /आज ही प्रकाशित हुई है जो आप के समक्ष है।
http://www.matrubharti.com

Archana singh


Wednesday, September 19, 2018

Friday, September 14, 2018

हिंदी दिवस.पर हार्दिक शुभकामनाएं।

हिन्दी हैं हम (कविता )

देवनागरी लिपि है हम सब का अभिमान,
हिन्दी भाषी का आगे बढ़कर करो सम्मान।
बंद दीवारों में ही न करना इस पर विचार,
घर द्वार से बाहर भी कायम करने दो अधिकार।

कोकिला-सी मधुर है, मिश्री-सी हिन्दी बोली,
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सबकी हमजोली।
भिन्नता में भी है, यह एकता दर्शाती,
लाखों करोंड़ों भारतीय दिलों में है,जगह बनाती।

दोहा, कविता, कहानी, उपन्यास, छंद,
हिन्दी भाषी कर लो अपनी आवाज बुलंद।
स्वर-व्यंजन की सुंदर यह वर्णशाला,
सुर संगम-सी मनोरम होती वर्णमाला।

निराला, दिनकर, गुप्त, पंत, सुमन,
जिनसे महका है, हिन्दी का शोभित चमन।
आओ तुम करो समर्पित अपना तन मन,
सींचो बगिया, चहक उठे हिन्दी से अपना वतन।

                                                                                            ----- अर्चना सिंह जया
                                                                     [ 12 सितम्बर 2009 राष्ट्रीय सहारा ‘जेन-एक्स’ में प्रकाशित ]

Monday, September 3, 2018

भावांजलि: जय जय नन्दलाल कविता

भावांजलि: जय जय नन्दलाल कविता: जय जय नन्दलाल लड्डू  गोपाल कहो या नन्द लाल कहो, मंगल गीत गा, जय जयकार करो । समस्त जगत को संदेश दिए प्रेम का विष्णु अवतार लिए,...

Saturday, September 1, 2018

Khushiyo ka Raz....



                     खुशियों का राज़  ------------------ 

                               ‘स्वास्थ्य ही धन है ‘

  सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ......मुझे पूर्णविश्वास है इस श्लोक के अर्थ से सभी सहमत होंगे। हम सभी सुखी व स्वस्थ रहना चाहते हैं, किंतु हम सुखी तभी रह सकते हैं जब हम स्वस्थ होंगे। यानि सुखी जीवन का मूल सार है ‘स्वास्थ्य‘। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिस्क रहता है इसलिए हमें स्वयं को स्वस्थ रखना चाहिए। साथ ही जब हम स्वस्थ होंगे तो ही एक स्वस्थ परिवार बना पाएंॅगे और एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर पाएॅंगे। स्वस्थ समाज यानि एक स्वस्थ राष्ट् स्थापित कर पाएॅगे। मानव वो है जो अपनी खुशी के साथ-साथ दूसरों के विषय में भी सोचे, स्वयं के स्वास्थ्य के साथ-साथ औरां के स्वस्थ जीवन की कल्पना भी करे। ईश्वर ने आनंद की जितनी भी सामग्री प्रदान की है,उसमें स्वास्थ्य सबसे बढ़कर है, जिसका स्वास्थ्य ठीक है वही जीवन का सच्चा सुख है।
            अब बात आती है कि स्वस्थ रहने का मूल मंत्र क्या हैं? जल्दी सोएं व प्रातः जल्दी जागें ----अंग्रेजी में  ये सूक्ति  जो सभी ने बचपन से ही सुनी होंगी, मुझे याद आती है पर आज वर्त्तमान में कितने व्यक्ति हैं जो वक्त पर सोते और वक्त पर जागते हैं ? जब हम ही प्रकृति के विरुध जा रहें हैं तो पूर्ण रुप से दोषी भी हम ही हैं। गॉंवों व छोटे शहरो में फिर भी मनुष्य थोड़ा बहुत जीवन जी रहा है पर महानगरों में तो स्थिति बिल्कुल विपरीत है। महानगरों में रहने वाले लोंगो का स्वास्थ्य सबसे ज्यादा प्रभावित है। यथार्थ में छोटे शहरो व महानगरों के निवासियों का स्वास्थ्य सबसे अधिक प्रभावित है। जीवन के आपाधापी में, चूहे की दौड़ में या यह कह लो कि धनोपार्जन की चाह में हम मशीन हो चुके हैं। इस मशीनी युग में मानव की दिनचर्या ही उसके अस्वस्थ रहने का सबसे बड़ा कारण है। मानव एक सामाजिक प्राणी है समाज से बाहर उसकी कल्पना नहीं की जा सकती किन्तु यथार्थ में वह अब एकल परिवार में भी रहकर प्रसन्न नहीं है। जीवन की छोटी-छोटी खुशियों से परे होता जा रहा है, जबकि हम खुश रह कर ही स्वस्थ रह सकते हैं।
हमारी हथेली की पॉंच अॅगुलियों को ही लें क्या ये बराबर हैं? नहीं फिर परिस्थितियॉं एक जैसी कैसे हो सकती हैं, मेरे विचार से खुश रहने के भी पॉंच मूल मंत्र हैं -
1.सकारात्मक सोच अपनाएॅं।
2 किसी भी.कार्य को उत्साह व चुनौति के साथ करें।
3. धैर्य को न छोड़ें, क्रोध  त्यागें।
4.प्रकृति के नियम व वर्त्तमान को महत्तव दें।
5.हर पल को जीएॅं, खुलकर हॅंसें-हॅंसाएॅं।
      हमे अपनी सोच में सकारात्मकता को शामिल करने की आवश्यकता हैं। नाकारात्मक सोच व परिस्थितियों से परे रहने का प्रयास करना चाहिए। खुले दिमाग से प्रसन्न रहकर जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए। योग को अपना कर भी हम स्वस्थ और प्रसन्न रह सकते हैं। प्रातः दिनचर्या का आरंभ सकारात्मक तरीके से पौधों या प्रकृति के बीच, व्यायाम आदि के साथ करें।व्यक्ति की जीवन शैली का चयन उसका स्वयं का चुना हुआ है ऐसे में वो किसी दूसरे को दोषी नहीं ठहरा सकता है। हमें अपना पैर उतना ही फैलाना चाहिए,जितनी की चादर हो.......वरना परिस्थितियॉं हमें सोचने को विवश कर देती हैं।
     अपने जिंदगी में प्रेम,उत्साह व उत्सव को शामिल करें। सर्वप्रथम आप ऐसे कार्य का चयन करें जिसमें कि काम को करने में उत्साह व आनंद महसूस करें। जीवन एक संघर्ष है इसलिए  हर चुनौतियों को स्वीकार करें। परिस्थितियॉं जैसी भी हों उनका सामना चुनौतिपूर्ण ढ़ग से करें। अपने देश के सैनिकों से हमें सीखना चाहिए कि कैसी-कैसी चुनौतियों से टकराते हैं,  वे अपने हौंसले को कभी कम नहीं होने देते हैं। पंछीवृंद अपना घोंसला स्वयं बनाते हैं वे किसी पर निर्भर नहीं होते। पूरे उत्साह के साथ अपने कार्य में जुटे होते हैं।
         किसी भी कार्य को करने का मूल मंत्र है संयम। गलतियों से सीखें, साथ ही क्रोध से परे रहें। जीवन में संगीत का बहुत ही महत्तव है जो हमारे कार्य करने की ऊर्जा को बढ़ाता है। जीवन में संगीत को या आप अपने किसी शौक को जरुर अपनाएॅं इससे आप के काम करने का उत्साह दूना हो जाता है। प्रातः भजन का भी आनंद ले सकते हैं। प्रातः दिनचर्या का आरंभ सकारात्मक तरीके से पौधों या प्रकृति के बीच, व्यायाम आदि के साथ करें।
समय परिवर्त्तनशील है इसलिए सुख या दुःख से विचलित ना हों। वर्त्तमान की स्थितियों   को स्वीकार करें। कुछ भी स्थिर नहीं है जीवन में असमानता को देख घबराएॅ नहीं। यथार्थ  में जीना सीखें, मुस्कुराते हुए जीवन का आनंद लें। हॅंसें और हॅंसाएॅं, दूसरों में खुशियॉं बॉंटने से अपना भी मन प्रसन्न हो उठता है। जिंदगी जिंदा दिली का नाम है,मुर्दा दिल क्या खाक जीया करते हैं ? ईश्वर की दी हुई सॉसों का शुक्रिया अदा करें तथा निःस्वार्थ भाव से परोपकार करके देखें कि कितना सुकून और आनंद का अनुभव करते हैं। किसी विशेषज्ञ - हेनरी डेवीड थॉरेयू -ने कहा है कि ‘‘खुशियॉं खूबसूरत तितली के समान है जितना इसके पीछे भागोगे,उतना ही तुम्हें दौड़ाएगी। अगर अपना ध्यान अन्य वस्तु पर लगाओगे तो वह चुपके से आकर प्यार से तुम्हारे कंधे पर बैठ जाएगी।‘‘ पर कई मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि आप खुशियों को जाने ना दें, उसे पकड़ने का प्रयास करें। तितली रुपी खुशी को विवश कर दें कंधे पर बैठने को। आप स्वयं खुशियों का चयन करें और खुश रहें।
         खुश रहना स्वभाविक प्रक्रिया है इसे जितना व्यवहार में लाएॅंगे उतना ही खुशियों का प्रसार होगा। जीवन में खुशियों के लिए अलग से कोई वक्त नहीं आता है और न ही खुशियॉं बाजा़र में मिलती हैं। ये खुद के हाथ में है कि ‘‘आप कब-कैसे खुश रहना चाहते हैं क्योंकि अगर आप खुश होंगे तभी आप के आसपास के लोग भी खुश होंगे और इस प्रकार आप स्वयं भी स्वस्थ होंगे।‘‘ जिस प्रकार अच्छे पकवान या मीठा देखकर मनुष्य के मुख में पानी का आना स्वभाविक हैं उसी प्रकार खुशियों को भी छलकने से हम क्यों रोक देते हैं? उसे भी व्यक्त करें और आनंद को अनुभव करें। हमारी आत्मा तब आनंनदित होगी जब दिल व दिमाग दोनों ही स्वस्थ होंगे, हमारे आनंद का स्त्रोत भी हम स्वयं ही हैं। अपने आप को जानना ,चिंतन-मनन करना, दरअसल हम स्वयं के लिए ही वक्त नहीं निकाल पाते हैं। जीवन की आपा-धापी में हम भ्रमित होकर रह जाते हैं।
        अपने इंद्रियों पर काबू पाना ,मन में शांति स्थापित करना और अपने अंदर एक संतुलन बनाए रखना ही अध्यात्म है। संतोष व खुशी अत्यंत ही महत्तवपूर्ण है, जो एक साधारण व्यक्ति अपने जीवन में कर नहीं पाता है। यही कारण है कि वह कभी अध्यात्म या कभी धर्म का सहारा लेता है। मानव अपने जीवन की सरसता को स्वयं ही नष्ट करता है। सुख व दुःख तो जीवन का हिस्सा है ये तो आनी जानी है। हमारे दुःख का कारण ही है उम्मीदें, इच्छाएॅं ,लालसाएॅं.....आदि, यदि धन-वैभव से सुख व स्वास्थ्य प्राप्त हो जाता तो आज अधिकांशतः लोग प्रसन्न और स्वस्थ होते। अगर हम धर्म की बात करें तो पूजा पाठ, व्रत, तीर्थ आदि करने के पश्चात् भी व्यक्ति सदैव खुश व स्वस्थ क्यों नहीं रहता है? वह अपने आंतरिक मन पर संयम नहीं पा सका, यही कारण है कि वह धर्म का चोला धारण करने के बावजूद भी भटकता रहता है। बल्कि वह जीते जागते किसी इंसान को हॅंसा सके ,किसी भूखे को भोजन करा सके या किसी की निःस्वार्थ भाव से मदद कर सके तो उसे स्वयं ही एक विशेष आनंद की अनुभूति होगी। ईश्वर सर्वव्यापी है उसे पाने के लिए केवल अपने इर्दगिर्द ही नज़र उठा कर देखने की आवश्यकता है मंदिर या मस्जिद भटकने की जरुरत नहीं पड़ती है।
        मानव प्रकृति के मध्य जन्मा व उसी के आसपास रहने वाला प्राणी है किन्तु वर्त्तमान में वह प्रकृति से दूर होता जा रहा है, उसका जीवन इससे भी प्रभावित है। उसकी खुशियॉं व स्वास्थ्य भी इन बातों पर निर्भर है। आज हम आयुर्वेदिक की ओर फिर से आकर्षित होते नज़र आ रहे हैं। अब शिक्षित वर्ग फिर से प्रकृति के महत्तव को समझने लगा है तथा उसे स्वीकार करने लगा है। प्रकृति की गोद, किसी मॉं की गोद से कम नहीं है अपने स्वास्थ्य का उपचार भी इसके पास है। यही कारण है कि कई शहरों में ‘नेचर केयर सेन्टर‘ भी खुल गए हैं। लोगों में जागरुकता भी आ रही है वे अपने आसपास को पेड़-पौधों से सुसज्जित कर रहे हैं। वातावरण को स्वच्छ रखने में प्रकृति का बहुत बड़ा योगदान है। आज के परिवेश में हम  सब शारीरिक व मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं कारण हमारी जीवन शैली है। प्रकृति के विरुध जाकर मानव कभी स्वस्थ और खुश नहीं रह सकता। जीवन और संसार का मूल आधार प्रकृति है जिसके सौंदर्य को देख हमारा हृदय आनंद से परिपूरित हो जाता है। ‘तंदुरुस्ती हज़ार नेहमत है‘ यानि वरदान है। अस्व्स्थ और दुर्बल व्यक्ति अपनी ही हीनताओं के कारण अपना जीवन व्यर्थ कर लिया करता है, संसार में जो भी महान,महत्तवपूर्ण और उपयोगी कार्य हुए हैं वह दुर्बल शरीर व मन-मस्तिस्क वाले लोगों के द्वारा नहीं हुए हैं। अर्थात् अच्छा स्वास्थ्य व खुशियों को अपना कर ही स्वस्थ जीवन की कल्पना कर सकते हैं।
हमें अपनी भावनाओं व उत्तेजनाओं पर काबू रखना चाहिए क्योंकि यह भी हमारे सुख-दुःख के कारण होते हैं। भावनाओं पर संयम पाना आवश्यक होता है, अपने इंद्रियों को वश में रखना भी हमारा ही दायित्व है। मानव की भावनाओं, विचारों व व्यवहारों का प्रभाव शरीर व मस्तिष्क पर अवश्य ही पड़ता है। इस प्रकार हमारा स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है अर्थात् हमें भावनात्मक तौर पर खुद को प्रसन्न चित रखने का प्रयास करना चाहिए। कई बार भावनाओं और बाहरी वातावरण का तालमेल उचित न होने के कारण परिस्थ्तियॉं विपरीत हो जाती हैं। 
प्रेम,क्रोध,भय,हॅंसना,रोना...आदि जैसी भावनाएॅं हमें उत्तेजित कर जाती हैं पर बुद्धि विवेक से हमें सही निर्णय लेना चाहिए। साथ ही बाहरी सकारात्मक व नाकारात्मक परिवेश हमारी आंतरिक भावनाओं को सक्रिय कर देती हैं।
आजकल की जीवनशैली के परिवेश,खानपान आदि में स्वच्छता व शुद्धता तो रही नहीं जिसका प्रभाव उसके मानसिक व शारीरिक विकास पर पड़ रहा है। यही कारण है कि वह कई बीमारियों से जूझता है जैसे-मोटापा, डाइविटिज, हार्टाटैक, कैंसर आदि,वह अपने अंदर व्याप्त शक्तियों से अनभिग्य होता चला जाता है। योग साधना से अपने मनोबल को कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहिए। इन सभी से बचने का एक मात्र उपाय है-शारीरिक व्यायाम व प्राकृतिक इलाज यानि स्वउपचार। योगा व उचित खानपान को अपना कर भी हम कई बीमारियों से परे रह सकते हैं। स्वउपचार उपवास, आहार, आराम आत्म-उपचार के कई तरीके हैं। हमने स्वयं ही अपने जीवन को सरल बनाने के लिए मशीन का सहारा लिया है, जिस कारण हम शरीर से अस्वस्थ होते जा रहे हैं। आधुनिक तकनीक के कारण मानव शरीरिक परिश्रम से ज्यादा मानसिक परिश्रम करने लगा है जिसका प्रभाव सर्वाधिक उसके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग रहता है- यह कथन सौ प्रतिशत सत्य है। यथार्थ में स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाला प्राणी सुशिक्षित क्यों आज दिग्भ्रमित है जीवन के मूल मंत्र से परे क्यों हो रहा है?-

                      हमारा आहार,व्यवहार, आचरण आदि ही स्वास्थ्य व सुख को निर्धारित करता है।

                                                                   ................................ अर्चना सिंह जया

                           June 2018 published in Samarth Bharat magazine page 18









Friday, August 31, 2018

जिंदगी मिलेगी न दोबारा ....Article


                                                                    
                 जिंदगी मिलेगी न दोबारा  
                 
जिं़दगी जो ईश्वर से हमें वरदान के रुप में मिली है,उसे सॅंवार कर स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए। जीवन को मुस्कुराने व खिलखिलाने दें,यह एक अनमोल भेंट है जिसे व्यर्थ में बर्बाद नहीं करना चाहिए। कुछ अच्छा कर औरों को अच्छा करने को प्रेरित करना चाहिए। जिंदगी में मक़सद का होना आवश्यक है, वरना जीवन जीते-जीते हम मार्ग से भ्रमित भी हो जाते हैं। जीवन को सॅंवारना यानि ऐसे रंग जीवन में घोलो जिसमें दूसरे भी रंग कर प्रसन्न हो जाएॅं। किसी बनावटी वस्तुओं से मत सॅंवारों कि दूसरे वैसे बनने की चाह में गलत राह पर चल पड़ें। नशा के अभिशाप से स्वयं को बचाओ, कहते हैं लत किसी भी चीज़ की बुरी होती है। वर्षों हो गए देश को आज़ाद हुए पर मनुष्य फिर भी खुद को नशा की बेड़ियों में जकड़े हुए है।
      आज की युवा पीढ़ी किस आधुनिकता को ओर भाग रही है ?ये तो वो ही जाने ,पर यथार्थ में हमें अपनी सोच में आधुनिकता लाने की आवश्यकता है। स्त्री व पुरुष एक दूसरे का आदर करें, आपसी सहयोग दें। पुरुष के साथ कदम मिला कर चलें न कि खानपान. धूम्रपान, ड्गस आदि का सेवन करने की बराबरी करें। शिक्षा व कार्य में समानता होनी ही चाहिए, जीवन को जीने व आनंद लेने में बराबरी होनी चाहिए। समाज में रहते हुए समाज के दायरों को लॉंघने की भूल युवापीढ़ी को नहीं करनी चाहिए। जुनून अच्छे कार्य करने. अच्छा भोजन करने. परोपकार करने. खुश रहने व खुशियॉं बॉंटने का होना चाहिए न कि उन हानिकारक वस्तुओं का सेवन करने का जिसके सेवन से आप अपनों से तथा खुद से भी दूर हों जाते हैं। जीवन अनमोल है उसे इस प्रकार व्यर्थ में खर्च ना करें। ‘‘जिं़दगी अपने आप में गुलज़ार है, कभी गम है तो कभी खुशियों की फुहार है‘‘यही सोच होनी चाहिए। वरना िंजंदगी बेरंग सी लगने लगेगी।
         जिं़दगी को कई रंगों से सॅंवारने का उत्तरदायित्व हमारा ही है। ये हमें ही तय करना है कि खुश रहने के लिए हमें पैसे खर्च करने हैं या बगैर पैसे खर्च किए भी हम हॅंस सकते,गुनगुना सकते हैं। सदा ही छोटी-छोटी बातों पर हॅसना, खुश रहना सीखें, किसी बड़े समय का इंतज़ार न करें। जब ऐसा होगा तब या जब वैसा होगा तब--- हम हर उस पल को ही वैसा बनाने की कोशिश करें जैसा हम चाहते हैं। जिं़दगी आपकी है फिर आप पर निर्भर है न कि समय पर, गिरते हैं घुड़सवार ही मैदाने जं़ग में। गिरने के डर को मन में अगर बैठा लें तो कोई भी बच्चा चलना नहीं सीख पाता, तो जीवन सफ़र में परिस्थितियों से घबड़ा कर हॅंसना या जीना छोड़ देने में कैसी समझदारी है? जीवन में व्यक्ति यदि किसी वस्तु का गुलाम बन जा रहा है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? उसका खुद का जीवन उसकी आत्मा की आवाज़ न सुनकर निर्जीव वस्तुओं का मुॅंहताज़ हो जाता है। नशा जैसे अभिशाप से स्वयं को बचाएॅं, वास्तविकता से भागने का प्रयास न करें।
        वर्त्तमान समय में सभी स्वयं को बुद्धिजीवी ही मानते हैं,शायद यही कारण है कि प्रसन्न रहने की परिभाषा ही बदलती जा रही है। धनोपार्जन जिं़दगी चलाने का एक जरिया ही नहीं बल्कि, खुश रहने का एक मार्ग बना लिया है। धन से अगर खुशी मिलती तो इस संसार में कोई दुखी नहीं होता। कोई धन को लेकर दुखी है, तो कोई तन व मन से। सभी अगर खुश हैं तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों आदि में भीड़ नज़र नहीं आती क्योंकि मनुष्य बिना स्वार्थ के ईश्वर को भी याद नहीं करता है। दुःख में ही ईश्वर की याद आती है चाहे वह दुःख मानसिक हो या शारीरिक। मेरा मानना है कि ईश्वर कण-कण में है, हर मनुष्य,पशु-पक्षी आदि में है फिर भी हम भटकते ही रहते हैं। दुःख तकलीफ़ में विचलित हो हम भ्रमित होते ही रहते हैं। मानव प्रवृति बहुत ही विचित्र है वह सुख व दुःख दोनों में ही नशा करने के बहाने ढॅूंढ ही लेता है, आज की युवा पीढ़ी इस ओर बहुत ही तीव्रता से आकर्षित हो रही है। युवक हो या युवती दोनों ही जीवन का आनंद धूॅंए में ही उड़ाना पसंद कर रहे हैं। मदिरा का पान करना जैसे उनकी शान को बढ़ाता है। पर क्या जो सिगरेट या मदिरा जैसी चीज़ का सेवन नहीं करते वो जिं़दगी के सुख चैन से परे हैं? नहीं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल वे जीवन का सही मायने में आनंद उठा रहे हैं,उनकी बुद्धि विवेक सही दिशा में सोच पाने में समर्थ होती है। अपने जीवन के आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं उसे खुशियों के रंग से सवॉंरना है या बेरंग कर नशे के दलदल में ढकेलना है, इसका निर्णय खुद ही लेना है। नशा मुक्त हर एक घर बनाएॅ ंतो राष्ट् अपने आप ही नशा मुक्त हो जाएगा। 
       हम अपने भावी पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं? हम बड़े ही तो नशा में खुशी ढॅूंढ कर अपने बच्चों को सोचने पर विवश कर रहे हैं कि जीवन का एक  रंग ये भी है। फिर नशा मुक्त बिहार,पंजाब या देश की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं? साथ ही कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो स्वयं इसी समाज का एक हिस्सा होने के बावजूद भी स्वयं को नशा से कोसों दूर रखें हुए हैं,तो क्या वे मर्द नहीं या आधुनिक नर व नारी नहीं? बस सारा खेल हमारी सोच का है, नई सोच व आधुनिकता पर विचार करने की आवश्यकता है। आधुनिकता या परिवर्त्तन से हमें अच्छी बातें सीखनी चाहिए,ये परिवर्त्तन ही है कि कल्पना चावला चॉंद पर जाने में सक्षम हो पाई, ये आधुनिकता ही है कि हमारे देश में ‘पैडमैन‘ जैसे व्यक्ति महिलाओं को परेशानियों से मुक्त करने में अपना योगदान दे पाए।
      ज़िंदगी में किसी भी प्रकार की न अपेक्षा रखें और न ही किसी की उपेक्षा करें तो देखेंगे कि ज़िंदगी अपने आप में रंगीन है। जीवन के कुछ पलों को उत्सव की तरह मनाएॅं, किसी पर्व विशेष का इंतज़ार न करें। जीवन के उतार-चढ़ाव या दफ़तर व बाहर के उतार चढ़ाव से जीवन को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। हमारी लड़ाई स्वयं से ही होती है अगर खुद को समझाने में सफल हो गए तो समझो कामयाब हो गए। जबकि हकीकत में कुछ और ही है हमें बाहर के लोग व बाहरी बनावटी दुनिया ज्यादा प्रभावित करती है। खुद को हम संभाल पाने में कमज़ोर साबित होते हैं। यथार्थ से परे रह कर वास्तविकता व वर्त्तमान से दूर हो जाते हैं। यही कारण है कि जिं़दगी बोझ सी लगने लगती है और उस हारिल पक्षी की भॉंति पंजे में लकड़ी  पकड़कर आकाश में उड़ने का प्रयास करतें हैं यानि स्वयं से ही छल कर बैठते हैं। वास्तविकता से भागने के लिए नशा जैसी वस्तुओं का सहारा लेते हैं। जीवन के सुख से परे होने लगते हैं। जीवन का आनंद धन से नहीं मन से जुड़ा है।
       व्यक्ति जब विषम परिस्थितियों में स्वयं को कमज़ोर पाता है तब कहीं वह मदिरा का सहारा लेता है। मगर मेरे विचार से ये एक बहाना मात्र है, अगर इसे सही माने तो शहीदों की पत्नियों को तो हर पल मदिरा में डूबे रहना चाहिए। उन पर जो विषम परिस्थितियों का पहाड़ टूट पड़ता है,वैसा किसी पुरुष पर तो शायद ही कभी। हम इंसान नए-नए बहानों का पिटारा तैयार रखते हैं, जबकि स्कूली बच्चे भी इससे कम बहाने बनाते हैं। गम का पहाड़ टूटा तो मदिरा का सेवन, खुशियों ने दस्तक दी तो भी, अरे भाईयों-बहनों बहाना बनाना भी है तो बच्चे बनने के बहाने खोजो। बचपन को फिर से जीने का प्रयास करो और जीवन का पूर्ण आनंद उठाओ। जीवन में कला, संगीत, खेल, योग आदि को स्थान देकर देखें, आप की आयु स्वस्थ व लंबी हो सकती है। ज़िंदगी खूबसूरत बनाने का प्रयास करें न कि अवास्तविक। गम को फुटबाल समझ कर ज़ोर से मारें, खुशियों को गगन में पतंग के समान उड़ने दें, दूसरों को भी लूटने का अवसर दें। आप एक बुद्धिजीवि प्राणी हो निर्जीव वस्तुओं के गुलाम ना हो जाओ। सिगरेट, गुटका, मदिरा जैसे न जाने कितनी चीजें हैं जिसका मानव गुलाम बनता जा रहा है। ये आधुनिकता नही स्वयं की विवशता है, अपनी कमज़ोरियों को ढ़कने का दूसरा तरीका है।                                                                    युवावर्ग से निवेदन है कि आधुनिकता को अपनाएॅं किन्तु अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल करते हुए। जवानी में ही ऐसी क्या विवशता है कि आप अपनी ऊर्जा शक्ति को सिगरेट, तम्बाकु ,गुटका जैसी वस्तुओं के नाम पर गिरवी रख दे रहे हो। युवा पीढ़ी दिगभ्रमित ना होवे, बड़े अगर भटक भी गए हैं तो आप उनकी जिंदगी से प्रेरणा लेकर स्वयं को बचाएॅं। ईश द्वारा प्राप्त जिंदगी को उचित अवसर व दिशा दें। आप पर ही घर,परिवार व देश का भविष्य निर्भर है। नशा करना ही है तो नन्हें बच्चों को मुस्कुराने , बड़े बूढ़ों का आशीष पाने, समाज के लिए कुछ कर जाने का नशा करें। जीवन में ऐसे काम करें कि आप के अपने तथा राष्ट् आप पर गर्व करे। किसी शर्मिंदगी के साथ न जीने को विवश हों बल्कि अपने घर,परिवार, सगे संबंधी व मित्रों के साथ स्वस्थ-उचित अवधि व्यतीत करें जिसका प्रभाव आपके स्वास्थ्य को स्वस्थ रखने पर पड़े। बहाने स्वस्थ व निरोग होकर जीने का खोजें, वस्तु के गुलाम बनने का नहीं। नशा से दूर हो, जीवन जीएॅं भरपूर। 
कभी उलझती रही तो ंकभी सुलझती रही । बस जिंदगी यूॅं ही गुज़रती रही।

                                                                                  .............. अर्चना सिंह जया


                                September 2018 published in  Samarth Bharat Magazine , page27






Wednesday, August 22, 2018

मानव की मानवता। (कविता)

         मानव की मानवता

  मानव ने है मानवता त्यागी,
  कुदरत ने भी जताई नाराज़गी।
  ना समझ स्वयं को बलशाली,
  तुझ पर भी पड़ेगा कोई भारी।
  प्रकृति का आदर ना करके,
  तू खुद को सोचता महाज्ञानी।
  गर होती बुद्धि विवेक जरा-सी,
  ना करता फिर ऐसी नादानी।
  मेरे तन-मन को तूने भेदा,
  उदारता को कमज़ोरी समझा।
  विवश किया क्रोधित होने को,
  धैर्य के बॉंध को पड़ा त्यागना।
  बहुत सोच विचार कर मैंने
  सबक सिखाने का निर्णय लिया।
  देख जल तांडव अब तू मेरा,
  आफ़त की बारिश का है घेरा।
  जल प्रलय का रुप धारण कर,
  ढाह रही हूॅं अब घर तेरा।
  हाहाकार मच जाएगा देख अब,
  त्राहि-त्राहि कर उठेगी धरा तब।
  तब भी सचेत न तुम हो पाओगे,     
  दूषित करने का तूने है ठाना,
  प्रदूषित किया मेरे मन का कोना।
  क्या वसुधा का जतन कर पाएगा ?
  उधड़ा स्वाभिमान लौटा पाएगा ।
  कैसे यकीन करुॅं हे मानव !
  वर्षों लग गए बस समझाने में।
  दानव से मानव का सफ़र तय कर,
  दानव हावी है आज भी मानव पर।
                 
                                   -------  अर्चना सिंह जया

Friday, August 17, 2018

विचारों के अटल। कविता

जो आदर्श में अटल रहें,
विचारों में प्रबल रहें।
धर्म जाति से परे वे ,
मानवता अविरल रहे।
विस्तृत विचार व उदार
भाव की धारा सरल रही।
आकर्षक व्यक्तित्व व
प्रभावशाली था शब्दकोष ।
आशा से अतीत वे
सत्यपथ पर अग्रसर रहे।
यशस्वी व अनुयायी रहें
अहिंसा के सदा ही।
कृतार्थ हुए अटल जी से,
तटस्थ रहे जीवन में सदा ही।
विचारों में बहुदर्शिता,
सहिष्णुता, निर्मलता,निस्पृह
वाजपेयी जी की छवि यहाँ।
कुशाग्र,धर्मनिष्ठ,नीतिज्ञ
दृढ़निश्चय सा महान।
समदर्शी,कुशल राजनीतिज्ञ
भारत रत्न वे अमर रहें।
अटल सा ना कोई हुआ,
अद्वितीय है व्यक्तित्व जिसका
चाँद-सूरज सा वे चमकें यूँ,
वतन को जिस पर अभिमान रहे।

.......अर्चना सिंह जया
अटल जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि💐

Monday, August 6, 2018


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Friendship Story - आत्मग्लानि 

If you like my story , pls like,comment and share it.
   Thank You.           
 Archana Singh Jaya

Sunday, August 5, 2018

मित्रता ( कविता )

मित्रता (कविता )

                 
पावन है यह रिश्ता मानो
महत्वत्ता जो इसकी पहचानो।
लहू के रंग से बढ़कर जानो
मित्रता धन अनमोल है मानो।
बीज मित्रता का तुम बोकर,
भूल न जाना प्रिय सहचर।
प्रतिपल अपने स्नेह से सींचना
बेल वृद्धि हो इसकी निरंतर।
मित्रता का पौधा पनपकर
छाया देता यह प्रतिपल।
रेशम की डोर सी कच्ची
शाख है होती इस तरुवर की।
प्रेम, सहयोग,सहनशक्ति से
सींचना ये लता, जीवन उपवन की।
दर्पण सा होता मित्रता का आईना
मित्र हीे हरते पीर मन की।
अपना अक्स नज़र है आता
हमारी पहचान जब होती इनसे।
मित्र बिन जीवन लगता सूना
हरियाली तन-मन की इनसे।
मित्रता सदा उसका ही पनपता
हुकूमत करने की जो न सोचता।
प्रेम की डोर में सदा पिरोकर
रखता सहजता से गले लगाकर।
अच्छी सौबत में सदा ही रहना
ऊॅंच-नीच ना मन में रखना।
कुुसंगति से सदा ही बचना,
चयन मित्र की परख कर करना।
सुख-दुःख का भागीदार है बनना
राम -सुग्रीव ,जैसे कृष्ण संग थे सुदामा।
मित्रता का उचित संदेश देकर
बुद्धिविवेक का परिचय यूँ ही देना।
मित्रता हो सूर्य चॉंद सी पक्की
प्रकाश-शीतलता देकर अपनी।
मंद न होने दे, खुशियॉं जीवन की
वट-सा विशाल हो मित्रता अपनी।
           
                ...................अर्चना सिंह जया

Tuesday, July 10, 2018

कहर में जिंदगी ( कविता )


कहर में ज़िंंदगी

जल कहर में फंसी ज़िंंदगी ,
कुदरत के आगे बेबस हो रहे
बच्चे, बूढ़े व जवान सभी।
इंसान के मध्य तो शत्रुता देखी,
पर यह कैसी दुश्मनी ठनी?
मानव व कुदरत के बीच,
बिन हथियार के जंग है छिड़ी।
संयम का बांँध तोड़ नदी-जलधि,
सैलाब में हमें डुबोने निकली।
यह जलजला देख प्रकृति का,
नर-नारी,पशु-पक्षी भयभीत हैं सभी।
प्रतिवर्ष मौन हो बुद्धिजीवी,
देखा करते तबाही का मंज़र यूँ ही।
मगरमच्छ आँसू व सहानुभूति,
दिखा भ्रमित करती सरकार यूँ ही।
न जाने कब सचेत होंगे हम?
और उभर पाएँगे विनाश बवंडर से।
आपदा की स्थिति से वाकिफ़ सभी,
किंतु सजग व तत्पर होते हम नहीं।
कुदरत के संग जीना तो दूर,
उसे सहेजना भी गए हम भूल।
उसी की आँगन में खड़े,
उसके बर्चस्व को ललकारने लगे।
शिक्षा व ज्ञान किताबों में बंद रख,
मानवता से परे दफ़न हो रही जिंदगी।
                   -----  अर्चना सिंह जया

Wednesday, June 20, 2018

योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर..(.कविता)

योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर (कविता)

 योग को शामिल कर जीवन में
 स्वस्थ शरीर की कामना कर।
 जीने की कला छुपी है इसमें,
 चित प्रसन्न होता है योग कर। 
 घर ,पाठशाला या दफ्तर हो चाहे
 योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
      शिशु, युवा या वृद्ध हो चाहे
      योग ज्ञान दो, हर गॉंव-शहर।
      तन-मन को स्वस्थ रखकर
      बुद्धिविवेक है विस्तृत करना।
      इंद्रियों को बलिष्ठ बनाने को
      योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
विज्ञान के ही मार्ग पर चलकर
योग-साधना अब हमें है करना।
आन्तरिक शक्ति को विकसित करता,
योग की सीढ़ी जो संयम से चढ़ता।
ईश्वर का मार्ग आएगा नज़र,जो
योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
     दर्शन, नियम, धर्म से श्रेष्ठ  
     योग रहा सदा हमारे देश।
     आठों अंग जो अपना लो इसके
     सदा रहो स्वस्थ योग के बल पे।
     जोड़ समाधि का समन्वय कर
     योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।

                                                                                          21 june   अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर
                                                                                                    - अर्चना सिंह 'जया' 

Sunday, June 17, 2018

पिता से नाता ( कविता )

पिता का साया सदा है भाता,
हमारी फिक्र से है उनका नाता।
कभी फटकार तो कभी स्नेह,
उनकी अंगुली को थामकर
चलना सीखा, हँसना सीखा।
हमारे मार्गदर्शक रहे सदा ही,
उनकी बगिया की, हम फुलवारी।
महकना सीखा,चहकना सीखा
हमारी फिक्र से है उनका नाता।
दुःख के बादल से परे रख,
उज्ज्वल भविष्य की करें प्रार्थना
माँ अन्नपूर्णा तो पिता ब्रह्मा,
अच्छी  सेहत  उनको देना दाता।
बिना इनके राह नहीं सुहाता,
दोनों ही हैं हमारे विधाता।
हमारी फिक्र से है उनका नाता।
पिता का साथ सदा ही भाता।

                .......अर्चना सिंह जया


Tuesday, May 29, 2018

भूमि [ कविता ]

                     
धूप की तपन से
जलती रही मैं भूमि।
तन पर दरारें पड़ती रही,
तड़पती रही स्नेह बॅॅंूद को।
कैसे झूमेगा मयूर-मन ?
बादल आकर चले क्यों जाते?
मन के भाव मेरे,बैरी वो
समझ क्यों नहीं पाते?
मन व्याकुल है,तन है सूखा।
मेरे अंतर्मन को
वे छू क्यों नहीं पाते?
वसुधा को तो प्रिय मेघ
सदा ही थे भाते।
पर यह क्या ?
घन मुझे यूॅं तरसाकर
परदेश को चले हैं जाते।
प्यासा मन, राह तकते रहते
अधीर मन से देखा करते।
नेह कब बरसेगा झरझर ?
धरा पूछती रही प्रतिपल,
‘‘कहो ओ सजन
कब तृप्त होगी भूमि ?
औ’ नाचेगा मयूर मन।’’
भाव हिय में छुपाकर,
मेघ को पुकारती पल-पल।
घन जब छाता अंबर पर,
मन मयूर नृत्य कर उठता
भाव विभोर हो, उस पल।
मन पीहू झूमता रह रहकर,
मेघ देख मन होता आतुर
तन तो भींग गया,पर
मन सूखा ही रहा जर्जर।
मैं भूमि रही प्यासी चारों पहर।
         
              ................  अर्चना सिंह ‘जया‘


Friday, May 18, 2018

My Article is in Samarth Bharat magazine.

Samarth Bharat magazine, First Issue of May2018.




      


Friday, May 4, 2018

अग्नि परीक्षा [ कविता ]

       

बालपन से सिर्फ सुना किया

राधा ,मीरा, सीता, अहल्या की

नानी-दादी से किस्से- कहानियाँ ।

आनंदित हो जाती थी सुनकर

न सोचा, न तर्क किया कभी

बस मौन रहकर सुना किया।

सीता की हो अग्नि परीक्षा,

या हो अहल्या का शिला श्राप।

मीरा ने क्यों विष पिया ?

चाहे हो राधा का विलाप।

बुद्धि विवेक न थी मेरी

बाल्यावस्था में अकल थी थोड़ी।

प्रौढ़ावस्था में मैं जब आई,

चिंतन मनन को विवश हुई।

क्या अग्नि परीक्षा अब नहीं होती?

या अहल्या सी छली नहीं गई कोई,

यथार्थ में भी विष पी रही मीरा,

घर-घर में जी रही है वीरा।

अबला थी तब भी वो शक्ति,

आज सबला बनने की चाह में

कितनी अग्निपरीक्षा है वो देती।

बच्चों के लिए कभी  मौन रहकर,

तो कभी मानमर्यादा को ढ़ोती ।

मिशाल कायम करने की चाह में,

खुद संघर्ष कर सक्षम बन पाती।

चाहत की परवाह किसे,

स्वयं ही जीवन ताना-बाना बुनती।

कलयुग की यह व्यथा हमारी,

इंद्र सा छली, रावण सा कपटी।

मिल जाते हैं हर डगर-गली ,

कहॉं से लाएॅं राम-लखन, केशव ?

कलयुग की व्यथा हुई बड़ी /

सीता ,उर्मिला, मीरा, राधा,

मिलेंगी  हर घर - ऑंगन में यहीं ।

''सम्मान देकर, सम्मान है पाना''

ले शपत, पौरुष तब  आगे बढ़ना।

अग्नि परीक्षा है अब तुझे देनी ,

दुर्गा ,काली ,लक्ष्मी से पूर्व

समझ पुत्री ,वधु ,स्त्री ,जननी /

देवी पूज, शक्ति करता  प्राप्त

नारी शक्ति की पूजा ही नहीं मात्र /

कदम-कदम पर देकर साथ ,

इंसान समझने का संकल्प ले आज /



                                                          ---------   अर्चना सिंह जया
                                               

Friday, April 27, 2018

Topic - Community Development

Awareness Programme by Kriti Foundation ............

                                                                               

My 2nd article is in this magazine......... Archana Singh jaya






Saturday, April 14, 2018

भावांजलि: उत्सव, उल्लास है लाया [ कविता ]

भावांजलि: उत्सव, उल्लास है लाया [ कविता ]:  पर्व ,उत्सव है सदा मन को भाता    ‘खेती पर्व’ संग उल्लास है लाता।  कृषकों का मन पुलकित हो गाया,  ‘‘खेतों में हरियाली आई,  पीली सरसों दे...

Friday, March 23, 2018

शहीदों को भाव पूर्ण श्रद्धांजलि

मातृभूमि ( कविता )

 

आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ वतन, तेरा सदा।
तेरी मिट्टी की खुशबू,
मॉं के ऑंचल में है छुपा।
कई लाल शहीद भी हुए,
फिर भी माताओं ने सपूत दिए।
निर्भय हो राष्ट् के लिए जिए
और शहीद हो वो अमर हुए।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा ।
धैर्य ,ईमानदारी,सत्यता, सहनशीलता
भू भाग से है हमें मिला।
खड़ा हिमालय उत्तर में धैर्यता से
धरा की थामें बाहें सदा।
अटल-अचल रहना समझाता
सहनशीलता वीरों को सिखलाता।
कठिनाई से न होना भयभीत
सत्य की हमेशा  होती है जीत।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा।
हिय विशाल है सागर का
दक्षिण में लहराता तन उसका।
नदियॉं दर्पण-सी बहती कल-कल
समतल भूभाग से वो प्रतिपल।
झरने पर्वत से गिरती चलती
जैसे बालाएॅं ,सखी संग हॅसती।
खेत,वन सुंदर है उपवन
भू के गर्भ में छुपा है कंचन।
प्रशंसा कितनी करु मैं तेरी?
भर आती अब ऑंखें मेरी।
विराट  ह्रदय  है मातृभूमि तेरा
सो गए वो यहॉं, जो प्रिय था मेरा।
आभार प्रकट करते हैं हम
ऐ मातृभूमि! हरदम हम तेरा ।      
 
                         ______  अर्चना सिंह‘जया’
___

Tuesday, March 13, 2018

Pahla Pyaar ....Story


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My next book ' Pahla Pyaar' ---- Mehandi ki raat .

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Archana Singh

Monday, March 5, 2018

नारी तू सशक्त है [ कविता ]

   नारी तू सशक्त है।


बताने की न तो आवश्यकता है
न विचार विमर्श की है गुंजाइश।
निर्बल तो वह स्वयं है,
जो तेरे सबल होने से है भयभीत।
नारी तू सशक्त है
धर्म-अधर्म की क्या कहें?
स्त्री धर्म की बातें ज्ञानी हैं बताते
पुरुष धर्म की चर्चा कहीं,
होती नहीं कभी अभिव्यक्त है।
नारी तू सशक्त है।
देवी को पूजते घरों में,
पर उपेक्षित होती रही फिर भी।
मान प्रतिष्ठा है धरोहर तेरी,
अस्तित्व को मिटाती औरों के लिए
नारी तू सशक्त है /
तू ही शारदा ,तू लक्ष्मी,तू ही काली
धरा पर तुझ-सी नहीं कामिनी।
तेरे से ही सृष्टि होती पूर्ण यहाॅं,
भू तो गर्व करता रहेगा सदा।
नारी तू सशक्त रही
और तू सशक्त है सदा।

                 -------------  अर्चना सिंह जया

' 8 मार्च अंतर्राष्टीय महिला दिवस ' पर सभी नारियों को समर्पित  /

Wednesday, February 28, 2018

Saturday, February 24, 2018

होली है....( कविता )

          होली है  

चलो फिर से
गुलाल संग बोलें-होली है,भाई होली है।
पिचकारी ले, निकली बच्चों की टोली है।
जीवन को आनंद के रंग में भिंगो ली,
अमिया पर बैठी कोयल है बोली,
‘चलो बंधुजन मिल खेले होली।’
चिप्स, नमकीन, गुझिया, दहीबड़े
दिल को भाते हैं पकवान बड़े।
ढोल, मजीरे मिलकर बजाते हैं
चलो फिर से
फगुआ मिलकर गाते हैं
पौराणिक कथाएॅं गुनगुनाते हैं।
अबीर संग सभी झूमते गाते हैं
‘फागुन का ऋतु सभी को भाता,
गाॅंव-गाॅंव है, देखो फगुआ गाता।’
अंग-अंग अबीर के रंग में डूबा,
तन-मन स्नेह रंग में भींगा।
लाल, नीली, हरी, पीली
सम्पूर्ण धरा रंग-बिरंगी हो - ली।
गिले-सिकवे भूले, सखा-सहेली
सकारात्मकता का प्रचार करती आई, होली।
गुलाल संग बोलो-होली है, होली।

                ............... अर्चना सिंह जया
होली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Friday, February 9, 2018

ANTARAA [ STORIES]


You can search my story books by name Archana Singh or Archana Singh 'jaya'
ANTARA [ Part 1,2,3,4.....]

https://www.matrubharti.com/ebook

Friday, January 26, 2018

मेरा अभिनंदन तुम्हें। (कविता)

 मेरा अभिनंदन तुम्हें।

स्नेह पुष्प है नमन तुम्हें,
हे मातृभूमि! मेरा अभिनंदन तुम्हें।
माटी कहती कहानी तेरी
कोख से जनमें सपूत कई,
शहीद वीरों को करुॅं भेंट सुमन।
जो अपनी साॅंसें देकर,
वादियों को गले लगाकर,
भूमि को सेज बनाकर,
पावन किए हमारा वतन।
स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,
माॅं के अश्रु से भिंगा गगन
पथराई आॅंखें राह निहारती
पत्नी ,बच्चों का जो पूछो मन।
आस न रही बाकी कोई,
कहाॅं गए जाने सजन ?
बिटिया का टूट गया है मन
पिता के साथ देखती थी स्वप्न।
बिखरा है उसका मन दर्पण
ये पीड़ा सहे कैसे आजीवन ? 
स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,
पर उस माॅं का हिय 
कितना है विशाल/
दूसरे पुत्र को फिर से 
वतन को सौंप हुई निहाल।
एक नहीं सौ पुत्र भी जो होते
सीमा पर हम उसे भेजते।
राष्ट् प्रेम की वो दीवानी 
किसी की बेटी, किसी की रानी।
ऐ माॅं ! स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,
                       ............... अर्चना सिंह जया

Monday, January 22, 2018

जय माॅं शारदा! [प्रार्थना]


जय माॅं शारदा।
हे माॅं! वागेश्वरी
विद्या-बुद्धि दायनी
चरणों में अर्पित पुष्प नमन।
कर जोड करते वंदना हम।
हे माॅं! वीणापाणी
जय माॅं शारदा।
मुख पर तेज ज्ञान का
सद्भावना की करे हम याचना।
अज्ञानता दूर की है प्रार्थना।
हे माॅं! महाश्वेता
जय माॅं शारदा।
पद्मासना विराजती
शत्-शत् करते उपासना।
प्रातः सदैव करते आराधना।
हे माॅं! हंसवाहिनी,
जय माॅं शारदा!
ज्ञान ज्योति के प्रसार से,
सुगम पथ हमारा करना।
आशीष की कृपा कर देना।
बसंत पंचमी के पावन पर्व पर,
हे माॅं! सरस्वती आशीष देकर,
दामन खुशियों से भर देना।
                   ............ अर्चना सिंह जया


Friday, January 12, 2018

उत्सव,उल्लास है लाया ( कविता )

उत्सव, उल्लास है लाया [ कविता ]

 पर्व ,उत्सव है सदा मन को भाता  
 ‘खेती पर्व’ संग उल्लास है लाता।
 कृषकों का मन पुलकित हो गाया,
 ‘‘खेतों में हरियाली आई,
 पीली सरसों देखो लहराई।
 खरीफ फसल पकने को आयी,
 सबके दिलों में है खुशियाॅं छाई ।’’
 नववर्ष का देख हो गया आगमन,
 पंजाब,हरियाणा,केरल,बंगाल,असम।
 पवित्र स्नान कर, देव को नमन
 अग्नि में कर समर्पित,नए अन्न।
 चहुॅंदिश पर्व की हुई हलचल,
 लोहड़ी मना गिद्दा-भांगड़ा कर।
 पैला, बीहू, सरहुल, ओणम, पोंगल
 एक दूसरे के रंग में रंगता चल।
 अभिन्न अंग हैं ये सब जीवन के,
 तिल के लड्ड़ू , चिवड़ा-गुड़ खाकर
 बैसाखी, संक्रांत का पर्व मनाकर।
 पतंगों की डोर ले थाम हाथ में
 बादलों को चल आएॅं छूकर ।
 रीति-रिवाज ,संस्कृति जोड़ कर
 प्रेम, एकता, सद्भावना जगा कर।
 दिलों को दिलों से जोड़ने आया,
 त्योहार अपने संग उल्लास है लाया।    
           
               ------------- अर्चना सिंह‘जया’