साँस अभी थमी नहीं ,रात अभी ढली नहीं
पथभ्रष्ट हो रहे सभी ,माँ चल दूर कहीं।
नन्ही परी पुकारती ,घर संसार वो सँवारती
फिर क्यों हमीं से ,जीवन की भीख माँगती?
देवता से भी अधिक, देवियाँ पूजी जाती जहाँ,
क्यों बेटियाँ? जन्म से पहले ही,विदा होती वहाँ।
अपराधिन हूँ मैं नहीं, बेटी हूँ मैं माँ तुम्हारी ,
बताओ माँ! धरती पर,मेरा आना क्यों हुआ भारी?
पुत्र ही क्यों है हर सम्मान का अधिकारी?
पुत्री भी नाम रौशन कर सकती है तुम्हारी।
गर मैं नहीं तोे भूमि, रह जायेगी वंशों से खाली,
बेटी हूँ मैं ,मुझसे ही सजती है जीवन की क्यारी।
नया सूर्योदय का है इंतजार,जब बेटी का हो सम्मान
धरा भी माँ कहलाने का सर्वस्व कर सकेगी अभिमान।
आने वाली पीढ़ी में,रह न जाए वसुधा हमसे खाली
बेटी को बचाओ! वरना अभागिन रहेगी माँ हमारी।
-----अर्चना सिंह ‘जया’
राष्ट्रीय सहारा में 13 अक्टूबर 2013 को छपी , जो दिल्ली, वाराणसी, पटना...आदि से प्रकाशित होती है।
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