भावांजलि
सागर ऊर्मि की तरह मानव हृदय में भी कई भाव उभरते हैं जिसे शब्दों में पिरोने की छोटी -सी कोशिश है। मेरी ‘भावांजलि ’ मे एकत्रित रचनाएॅं दोनों हाथों से आप सभी को समर्पित है। आशा करती हूॅं कि मेरा ये प्रयास आप के अंतर्मन को छू पाने में सफल होगा।
Monday, August 26, 2024
Sunday, August 25, 2024
कैसी दरिंदगी
मानव होकर मानवता को करते शर्मसार,
हैवानियत दिखती तुम सब की आंखों में,
चेहरे पर मुखौटे पहने घूमते हैं दरिंदे सरेआम।
कब तक छुपकर बैठे बेटी-बहन घरों में,
क्या पढ़े-लिखे नहीं, डाक्टर-इंजीनियर बने नहीं ?
"बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ" स्लोगन है मात्र,
खौफ में रहती ज़िंदगी सदा उसकी।
समय-असमय सड़कों गली-मुहल्लों में,
बहु-बेटियों की आबुरू लूटते हो खुलेआम।
'ये कैसी तृष्णा है बेटे'-पूछती है जननी बार-बार।
अपनी किस मानसिकता का परिचय हो देते ?
क्यों माँ की कोख को कलंकित हो करते?
दुर्गा-सरस्वती समान बेटी-बहन को रौंध,
कैसा यह पुरूषार्थ तुम हो जताते।
कैसी दरिंदगी है चरित्र में तुम्हारे,
बेटों के परवरिश पर उठते हैं कई सवाल खड़े।
मैं अभागिन तेरी आँखों पर जाने कब चढ़ गई,
वो रात काली डराती,खुद की परछाई से भी अब डरती।
खौफ में है जिंदगी हमारी गुहार सुन, हे गिरधारी!
वरना हमें ही बनना होगा शत्रु नाशिनी, दुर्गा या काली।
Tuesday, August 20, 2024
अंधकार. में अंतर्मन
वेदनाओं के भँवर में घिरता जाता है मन,
गहन अंधकार में खोने लगता अंतर्मन।
क्या करूँगी जन्म लेकर इस समाज में,
कोई देखना ही नहीं चाहता मेरा मन दर्पण।
चीर हरण कर सहजता से घूमता है आरोपी,
क्या कहें मानवता की नज़रें भी हैं झुकी,
आक्रोश व्यक्त करो युवाजन चीर दो जंघा दुशासन का,
चौराहे पर तार-तार कर दो उसका जीवन।
मोमबत्ती लेकर सड़कों पर चलने से मात्र,
कुछ नहीं बदलेगा इस पुरुष प्रधान समाज में।
जहाँ बेटियों के लिए सारे आदर्श ज्ञान की बातें,
बेटों से क्यों नहीं पूछते कुछ प्रश्न कभी,
" कहाँ थे इतनी देर तक,
क्या कर रहे थे आधी रात सड़कों पर "।
"बेवजह यारों संग आवारागर्दी क्यों करते हो ?
और हर बात के पीछे मां-बहन की गाली क्यों देते हो ?
गर आधी रात तुम घर पर रहते जो शायद,
तो असमय नहीं होते गली-मोहल्ले में वारदात।
गर्भ में भी मारी जाती हैं बेटियाँ,
बहू चाहिए, वंश भी फिर बेटियों से इतनी नफ़रत क्यों?
कब तक न्याय की गुहार लगाती रहेगी,
कभी समय पर, कभी कपड़े पर प्रश्न कर
बेटियों को ही दोषी मानकर मुँह फेरते हो क्यों ?
बुरी नज़र, बुरी सोच वाली मानसिकता हो जिनकी
वो तो नहीं रहम करते, चाहे बिटिया हो तीन वर्ष की।
यानि कोई बेटी, बहन चौखट से बाहर सुरक्षित नहीं।
माँ की कोख शर्मसार हो रही,
कैसे कुपुत्र को जन्म दी वो, घोर वेदना भी सही वो।
खुद से वो करती सवाल बार-बार।
व्यथित मन मस्तिष्क में कौंध रहे अनगिनत सवाल।
बेटे में भी बोना होगा संस्कार के बीज,
ताकि मां की कोख को न सुनना पड़े कोई गाली कभी।
नारी की पूजा होती जिस देश में,
बेटी-बहन भी है धरोहर मातृभूमि की।
अब तो सौगंध खा मां, माटी, मानुष की, कि
ममता-प्रेम-स्नेह अपार धारण करेगा हिय में तू।
Friday, February 23, 2024
Poem on Valentines day
मोहब्बत की राह https://www.zorbabooks.com/spotlight/archanasingh601gmail-com/poem/%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%b9%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%ac%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b9/
Tuesday, January 23, 2024
दिल्ली की सर्दी
दिल्ली दिल वालों की है जनाब, चाहे कोहरे बिछे हों राह
सड़क किनारे टिक्की-चाट,कुल्फी आइसक्रीम लेकर हाथ।
शीतल पवन तन-मन को छूती, सर्दी का कराती है एहसास
बच्चे,जवान, बूढ़े को फिर भी दिल्ली की सर्दी आती रास।
रह-रहकर दिल्ली-सर्दी,शिमला-नैनीताल की याद दिलाती
युवाजन फैशन के वशीभूत जैसे, सर्दी उनको छू कहाँ पाती?
पर, गरीब बेचारे दो वक्त-रोटी के मारे सर्दी उन्हें नहीं सुहाती,
तन ढकने को वस्त्र नहीं, क्षुधा अग्नि भी ठंड से कहाँ बचाती?
दिल्ली की सर्दी में पशु-पक्षी-मानव शीत लहर की मार खाते
गरीब,बेघर,बेचारे दाल रोटी, चादर कंबल को तरसते हैं सारे।
सर्दी अब रहम कर जीव-जन्तु संग मानव भी होगी आभारी।
कोहरे-धुंध में रो रही मजबूर-असहाय-गरीब जनता बेचारी।
मंगल गीत गाओ
गाओ री मंगल गीत सखि, आया राम महोत्सव, ढ़ोल-मंजीरे लाओ री सखि। जय राम,श्री राम में रम जाओ री सखि।