Thursday, September 8, 2016

बेटी का जन्म ( कविता )

 
न जाने मुझे ये कैसा भ्रम हुआ ?
गॉंव घरों में बॅंटते देख लड्डू
मैंने पूछा,‘आज कैसा शगुन हुआ?’
हॉं,‘आज एक बेटी का जन्म हुआ।’
चलो देर से ही सही,नया पहल हुआ।
बेटी बचाने की जागरुकता तो आई,
मानवता की सोच, कुछ तो बदल पाई।
माता पिता के दिलों में, जश्न  दीप
चहुदिशा  करने लगे प्रदीप्त ।
ये जानकर मन को सुकून हुआ,
बेटियों के सपने भी अब सॅंवरने लगे।
रियो ओलंपिक का प्रभाव देखो हुआ.
सिंधु, साक्षी व दीपा की चाह दिलों में हुई।
बेटियों को मिला सम्मान अपने ही घरों में
और देश विदेश की देखो शोभा हुई।
पुत्री भी कर सकती, वंश का नाम रौशन
जो परिचय दे. वो महिला सशक्तिकरण।
अवनी, भावना व मोहना ने अंतरिक्ष तक
देश के ध्वज को दिया सम्मान,
पिता के दिलों में गर्व ने लिया स्थान,
‘टीना डावी’ जैसी पुत्री ने बढ़ाया मान ।
देश की बालाओं को देकर हाथ
आओ दिखाएॅं उन्हें पाठशाला का मार्ग ।
बेटी को बचाना ही मात्र नहीं है उद्देश्य,
शिक्षित कर उन्हें बनाना है और सशक्त।
पुत्री के जन्म पर भी होंगे नृत्य-संगीत
जनसंचार में लहरा देंगे यह नव संदेश।

                                      ............  अर्चना सिंह ‘जया’

Sunday, September 4, 2016

शिक्षक को प्रणाम ( कविता )

      

गुरुजन हैं मंदिर समान
शिक्षक को शत-शत प्रणाम,
ज्ञान की वे नित ज्योति जलाते
उज्ज्वल हमारा भविष्य बनाते।

सत्य, प्रेम का पाठ पढ़ाते
सदा सन्मार्ग की राह दिखाते,
नेहरु,गॉंधी, वीर सुभाष 
जैसा बनना हमें सिखाते।

कहते विद्या धन है सागर समान
बढ़ती ही जाए जो करो तुम दान
विद्या का करके तुम सम्मान
बढ़ाओ माता पिता व  ,
गुरुजन का मान 
                 
                          -------अर्चना सिंह
            
        03 सितम्बर 2005  राष्ट्रीय  सहारा,‘बाल उमंग’ पृष्ठ पर प्रकाशित हो चुकी है ।

Wednesday, August 31, 2016

अब तो कर ले अपने मन की ( कविता )

                 

चल सोच बदल जीवन की,
अब तो कर ले अपने मन की।
न तो नौकरी की चिंता सिर पर ,
न बच्चों की किलकारी सुनाई देती ।
अब न रही भाग-दौड़ जीवन की ,
अब तो कर ले अपने मन की।                      
सदा तू जीआ औरों की खातिर ,
रात की नींद दी बच्चों की खातिर ।
प्रातः सर्वप्रथम उठ तू जाती  ,
अब तो कर ले अपने मन की।                      
पिता ने जिम्मेदारी पूरी कर ली,
मॉं भी दायित्व भरपूर निभा ली।
इस पल भी औरों की सुनते,
चल,अब तो कर ले अपने मन की ।
घर-ऑगन है अब भी अपना,
प्रातः चिड़ियों की चूॅंचॅूं सुन चल।
शांत मन से सूर्य प्रणाम कर,
अब तो कर ले अपने मन की।
दोनों प्रातःसैर को चल लें,
भूले बिसरे किस्से याद कर लें।
नोंक-झोंक आज भी है होती
पर, अब तो कर ले अपने मन की।
बाग-बगीचे की सैर हम कर लें
खुलकर हॅंस लें ,खुलकर जी लें।
यार-दोस्त संग कुछ पल रह ले
क्यों न कर ले अपने मन की ?
सत्तर-अस्सी के पड़ाव पर  
इच्छा कहॉं थमने को आती ?     
चिंता हम क्यो करते कल की ?  
अब तो कर ले अपने मन की।
कल,आज और कल की छोड़,
रौशन कर हर पहर जीवन की ।        
सोच बदल, चल अब जीवन की             
अब तो कर ले अपने मन की।

                           ----- अर्चना सिंह‘जया’

Sunday, August 28, 2016

गुलाब ( कविता )



गुलाब को जब मुस्कुराते देखी,
पूछी, ‘कैसे रहता है तू
इतना खुश सदा ?’
समीर की बाहों में है झूलता,
कॉंटों संग रहकर मंद मुस्काता,
जीने का ढंग हमें है सिखाता।
इस पर बोल उठा गुलाब,
‘किस्मत को क्यों रोऊॅं
जो कॉंटें मिले हों दामन में ?’
जो मिला जैसा मिला,
बहुत है मिला मुकद्दर से।
रंग मिला, खुशबू मिली,
कोमलता भी है बनी हुई।
बालाओं के सिर पर सजता ,
देवों के चरण भी छुआ करता।
सुन गुलाब की बातें हुई चकित मैं।
दिन का रिश्ता रात से है जैसा,
सुख और दुःख का भी
रिश्ता है कुछ वैसा।
कॉटे ने सुनी जब बातें
बोला वो भी मौन त्याग कर,
‘मसल नहीं सकता तुझे कोई
लहू के रंग हाथ रंगेगा।’
‘रक्षक हूॅं मैं तुम्हारा प्रिये,
दिलाता हॅूं विश्वास ये।’
गुलाब और कॉंटें की सुनकर
उनका रिश्ता समझ में आया।
भावुक हो, की शीश नमन मैं,
गुलाब संग कॉंटे का होना,
जीवन को दिखता है आईना।
                   
                                   ----------------अर्चना सिंह जया

Wednesday, August 24, 2016

जय जय नन्दलाल

लड्डू  गोपाल कहो या नन्द लाल कहो,
मंगल गीत गा, जय जयकार करो ।
समस्त जगत को संदेश दिए प्रेम का
विष्णु अवतार लिए, बाल कृष्ण रूप  का।
दर्शन मात्र से जीवन हो जाए धन्य,
जो भज मन राधेकृष्ण राधेकृष्ण।
द्वापर में जन्में, देवकी के गर्भ से,
धन्य हुई भूमि, देवों के आशीष से।
कारागार से वासुदेव ले, टोकरी गोपाल की।
चले यमुना पार वे गोकुल धाम को,
नन्द को सौंप आए, अपने ही पूत को।
कंस से दूर किया, देवकी के लाल को,
यशोदा धन्य हुई, पाकर गोपाल को।
वात्सल्य प्रेम का अमृत पान करा,
पालने को झुलाती, मुख को चूम के।
लड्डू  गोपाल कहो या नन्द लाल कहो,
मंगल गीत गा, जय जयकार करो ।
नन्द -यशोदा के आँगन के पुष्प से,
महका गोकुल वृंदावन नवागन्तुक से।
ओखल पर पाँव रख माखन चुराए लिए,
'माखनचोर'नाम से गोपीजन पुकारते।
नटखट लाल की बालक्रीडा निहारती,
गोपियों की शिकायत, माँ बिसारती।
गोकुल में पूतना और बकासुर वध से
अचम्भित कर दिया, अपने ही कर्म से।
लाल को अबोध जान, विचलित मन हुआ
मुख में ब्रह्माण्ड देख, माँ को अचरज हुआ।
लड्डू  गोपाल कहो या नन्द लाल कहो,
मंगल गीत गा, जय जयकार करो ।
यमुना के तट, कदम के डार पर
मधुर तान छेड़, मुरलीधर मन मोहते।
कालिया फन पग धर, कंदुक ले हाथ में
प्रकट हुए श्याम मधुर मुस्कान ले।
सहज जान कर, गोवर्धन उठाए लिए
इंद्र के प्रकोप से, सबको प्राण दान दिए।
अर्जुन संग सुभद्रा को ब्याह कर
भ्राता का फर्ज भी, निभाए मुस्कुरा कर।
शंख, चक्र, गदा, पद्म ,पिताम्बर
व वनमाला से कन्हैया शोभित हो,
रूक्मिणी, सत्यभामा संग ब्याह किए।
लड्डू  गोपाल कहो या नन्द लाल कहो,
मंगल गीत गा, जय जयकार करो ।
कृष्ण की दिवानी भई, मीरा प्रेमरंग के
गोपियों संग स्वांग रचे, प्रेम के रंग से।
कर्म को धर्म मान सबका उपकार किए
द्रौपदी का चीर बढ़ा, रिण उतार दिए।
मुट्ठी भर चावल ले, मित्रता का मान किए
सर्वस्व दान दे, सुदामा को तार दिए ।
घर्म, करूणा, त्याग,ग्यान पाठ पढ़ा चले
प्रेम मार्ग समस्त जगत को दर्शा चले।
जीवन का सार वे अर्जुन को बता दिए,
कर्म से ही धर्म है जुडा,एेसा ही ग्यान दिए।
लड्डू  गोपाल कहो या नन्द लाल कहो,
मंगल गीत गा, जय जयकार करो ।।
जय जयकार करो।।

                      ...... अर्चना सिंह जया
जन्माष्टमी के सुअवसर पर आप लोगों को हार्दिक शुभ कामनाएँ।



Wednesday, August 17, 2016

मित्रता (कविता )

                 
पावन है यह रिश्ता मानो
 महत्वत्ता जो इसकी पहचानो।
लहू के रंग से बढ़कर जानो
मित्रता धन अनमोल है मानो।
बीज मित्रता का तुम बोकर,
भूल न जाना प्रिय सहचर।
प्रतिपल अपने स्नेह से सींचना
बेल वृद्धि हो इसकी निरंतर।
मित्रता का पौधा पनपकर
छाया देता यह प्रतिपल।
रेशम की डोर सी कच्ची
शाख है होती इस तरुवर की।
प्रेम, सहयोग,सहनशक्ति से
सींचना ये लता, जीवन उपवन की।
दर्पण सा होता मित्रता का आईना
मित्र हीे हरते पीर मन की।
अपना अक्स नज़र है आता
हमारी पहचान जब होती इनसे।
मित्र बिन जीवन लगता सूना
हरियाली तन-मन की इनसे।
मित्रता सदा उसका ही पनपता
हुकूमत करने की जो न सोचता।
प्रेम की डोर में सदा पिरोकर
रखता सहजता से गले लगाकर।
अच्छी सौबत में सदा ही रहना
ऊॅंच-नीच ना मन में रखना।
कुुसंगति से सदा ही बचना,
चयन मित्र की परख कर करना।
सुख-दुःख का भागीदार है बनना
राम -सुग्रीव ,जैसे कृष्ण संग थे सुदामा।
मित्रता का उचित संदेश देकर
बुद्धिविवेक का परिचय यूँ ही देना।
मित्रता हो सूर्य चॉंद सी पक्की
प्रकाश-शीतलता देकर अपनी।
मंद न होने दे, खुशियॉं जीवन की
वट-सा विशाल हो मित्रता अपनी।
           
                                       ...................अर्चना सिंह जया