Tuesday, July 14, 2020

अदृश्य नायक

मैं अदृश्य
मुझे देखा नहीं,
मुझे छुआ नहीं,
नायक बन बैठा मैं।
नायक नहीं खलनायक,
ऐसा कहने लगे हैं हमें।
नामकरण भी कर दिया,
'कोरोना' पुकारने लगे सभी।
खुद का गिरेबान झांका नहीं,
क्यों द्वेष,छल कपट, नफरत
हिय में छुपा रखा है तूने ?
इसे मिटाने और तुम्हें सिखाने,
का लिया संकल्प है मैंने।
बहरूपिया बन आता रहूंगा,
संहार करने को यहां।
बुद्धि हीन देख भावना,
हृदय काठ का है हुआ।
इंसानों व रिश्तों से परहेज़
करते देखा फिर जब,
अदृश्य बन अवतरित हुआ,
सिखाने को नया सबब।
मानव ईश की सुंदर रचना
पर कद्र न तुझ से हुआ।
नारी का तिरस्कार किया,
बहन बेटी का बालात्कार ।
कहां गई इंसानियत तेरी,
धरा बिलखने कराहने लगी ।
भाई-भाई में प्रेम नहीं,
मां का अनादर भी किया।
मैं अदृश्य नायक था तेरा
खलनायक बनने को देखो,
वर्षों बाद विवश मैं हुआ।
बुद्धि विवेक भ्रष्ट हुई तेरी,
विष कब से मैं हूं पी रहा।
अपराधबोध तुझे कराने,
विकराल रूप धारण है किया।
जीवन अनमोल है पर
कभी विचार तक नहीं किया।
आत्मावलोकन करने का
विचार मन में क्यों आया नहीं?
दूरियां बढ़ती ही जा रहीं,
घाव दिलों के यहां भरते नहीं।
जो मैंने एहसास ज़रा कराया,
अदृश्य शक्ति मैं हूं कहीं।
विवश हो बिलख रही दुनिया,
फिर भी अहम छोड़ा नहीं।
टूटने को हुआ तत्पर,
झुकने को अब भी तैयार नहीं।
नायक से खलनायक का,
सफ़र है मंजिल नहीं।



 ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं


Tuesday, June 16, 2020

खुद की खुशी


मायानगरी है ये दुनिया ही
नकाब पहना है सबने यहां।
उम्दा कलाकार हैं हमसभी
सच से चुराकर आंखें देखो,
कृत्रिम जीवनशैली को
समझ बैठे हैं वास्तविक जहां।
यथार्थ से होकर दूर हम,
भटक गई हैं राहें जहां।   
औरों की झूठी तसल्ली के लिए
खुद को गिरवी रखते हैं सभी।
मकान बहुत ही सुन्दर है,
ऐसा सभी कहते हैं यहां।
दीवारों पर लगी पेंटिंग,
रंग बिरंगी टंगी तस्वीरें
खूबसूरती को हैं बढ़ाते।
पर मन एक कोना फिर भी
रह गया खाली कहीं यहां।
इसे सजाएं कैसे, कहो अब
खुशियां, ठहाके,रिश्ते,प्यार
सहज मिलते नहीं बाजारों में।
हां, दर्द को छुपाया मुस्कानों से
तनहाई को सजाया गीतों से,
ऊंचाई को छूने की चाहत ने
साथ छुड़ाया अपनों से।
सौहरत,दौलत, मकान, गाड़ियां
पाकर भी मैं रहा अकेला जहां।
विचित्र है ये दुनिया यारों,
सब पाकर भी कभी कभी
खुश नहीं हो पाता मानव यहां।
तलाश खत्म होती नहीं उसकी
खुद को खो देता है वो यहां।
जिंदगी इक पहेली सी
जाने क्यों हरपल लगती यहां?
खुद की खुशी है जरूरी
न करना खुदकुशी कभी यहां।




Thursday, June 4, 2020

धिक्कार है तेरा

मैं गजानन पूजनीय
क्या गुनाह किया मैंने?
हां, शायद बुद्धिजीवी पर
कर बैठा विश्वास मैंने।
नहीं की थी कल्पना कभी
अमानवीय व्यवहार की।
मेरे जीवन के साथ ही
कर बैठा निर्मम हत्या
मेरे गर्भ में पल रहे,
मासूम नन्हें सुमन की।
क्यों कर्म हीन,भाव हीन
हो गया है मानव?
जानवर हैं हम
पशुता का व्यवहार
दर्शाता है तू क्यों?
कब अपराधबोध हो
समझ सकेगा तू ?
उसके ही दुष्कर्म का
परिणाम है आज
प्राकृतिक, जैविक आपदा।
मानव के संग
पेड़-पौधे ही नहीं
पशु-पक्षी,जीव जंतु भी
धरोहर हैं इस धरा की।
बेजुबान हैं हम पर
हिय में है स्नेह अपार।
क्रूरता कितनी भरी है
तेरे हृदय में बता।
धिक्कार है तेरे
मानवता होने का,
शर्मसार कर दिया
आज फिर इंसानियत का।
वैहशी हो चला है मानव
क्यों अधर्मी है हो रहा?
सोच हो चली कुंठित,
व्यवहार में विष घोल लिया।




Monday, May 18, 2020

क्यूँ मजदूर मजबूर हुए

क्यूँ जीवन सफर में मजदूर,
इतने मजबूर आज हुए।
जिस शहर को आए थे कभी,
वहीं से वे भूखे- बेघर हुए।
मशीनें जहाँ उनकी राह देखती थीं,
चूल्हे से धुआँ उठा करती थींं।
पेट की तृष्णा कम हो जाया करती,
परिवार को दो वक्त की रोटी,
कभी यहाँ मिल जाया करती थी।
फिर कैसी हुई लाचारी,
कोरोना की छाई महामारी।
जिस राज्य ने थामे थे हाथ कभी,
आज मझधार में अकेला छोड़ दिए।
क्यूँ जीवन सफर में मजदूर मजबूर हुए।
पटरी, सड़क चल दिए नंगे पग,
गाँव की ओर आज रुख हैं किए।
तप्ती धूप, रिक्त हाथ, छाले पैरों तले
उम्मीद की गठरी कांधों पर ,
जिंदगी तलाशते अपनों  के लिए।
वही शहर, गली, मुहल्ला आज
अजनबी बन गया है जाने कैसे ?
स्वदेश में रहकर भी असहाय,
प्रवासी का जिन्हें नाम दिया।
पल में पराया किया वहाँ,
जहाँ खून को पानी उसने किया ।
जिस राज्य को सर्वस्व सौंपा,
पलभर में वहींं क्यों बेगाना हुआ?
माँ है कि पेट दबाए बैठी,
बच्चों की नम आँखें जैसे हों कहतींं।
'बाबा चार दिन बीत गए हैं सोचो,
भूख से बहना बिलखती है देखो।'
चलो गाँव की ओर चले हम,
पुरखों की जम़ीन से नाता पक्का।
अपनी माटी का घर वह कच्चा,
खेत खलिहान को लौट चलें अब।
पहचान नहीं रही अब अपनी देखो
राशन समाप्त हो चुका है अब तो,
साइकिल,रिक्शा, ठेले पर या पैदल ही चल।
दिल भर आता है दर्द सुनकर यारा,
मजदूर से है गाँव ,शहर,देश हमारा
फिर क्यों मजबूर हुआ है मजदूर बेचारा?





Wednesday, May 6, 2020

अजीब विडंबना

अजीब विडंबना है देश की
जिंदगी या कोरोना में से
किसका चयन करें इंसान?
इतनी सी बात नहीं समझ रहा,
उल्लंघन कर्तव्यों का कर रहा।
दूध के लिए बच्चे हैं कतार में,
राशन के लिए माता बहनें हैं खड़ी।
विपदा की इस घड़ी में देखो,
पुरुष की आत्मपूर्ति के समक्ष
संवेदनाएँ जैसे धूमिल हुई पड़ी।
अमृत रस है न जाने ये कैसा ?
मद की चाहत हुई है सर्वोपरि।
पलभर का धैर्य नहीं देखो इनको,
स्वहित हो गया परिवार से श्रेष्ठ।
शराब से दूर ये रह नहीं सकते
खो रहा आत्मसंयम वह कैसे ?
चावल,दाल,रोटी की जरुरत
से क्या है यह अधिक जरुरी?
मदिरा पान कर सेहत से खेलना ,
मदहोश हो परिवार की शांति हर लेना।
धन की कमी कहाँ है देखो ?
मन पर संयम खो बैठा है वह तो।
सुख दुःख में मदिरा पान कर
मानवता की सीमा लांघ रहा वो।
एक बूँद की तलब ऐसी भी क्या?
मानसिक संतुलन जैसे खो बैठा।
वीरों की वीरता को देखो,
देशहित कर्म करना कुछ सीखो।
तुम परिवार व समाज हित के
दायित्वों को ही निभा लो।
इंसान हो गर प्रथम तुम
इंसानियत को ही संभालो।
जीवन अपनों के लिए देकर
सद्कर्म का राह अपना लो।
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Thursday, April 30, 2020

A Story

निःशब्द

🙏
जाने -अनजाने में गुनाह कर बैठे हैं शायद,
वरना सज़ा का हकदार यूँ हर कोई न होता।
  💐🙏                   
कल निःशब्द था मैं,आज भी निःशब्द है इंसान
दुःख की इस घड़ी में स्तब्ध खड़ा है हिन्दुस्तान।
🙏☺️