Saturday, November 9, 2019

मंथन

अयोध्या की भूमि का
होने को है मंथन आज।
उच्च विचारों से प्राप्त
होने को है प्रेम बंधन साज़।
राम रहीम सब एक हैं
ईश खुदा का करो अभिनंदन।
वाद विवाद में क्या रखा है?
मानवता का दो परिचय आज।
लहू दोनों का लाल ही है
फिर कैसा है वाद विवाद?
आसमाँ भूमि के बीच
बिखेरो हवा में प्रेम संवाद।
सभी ने माना हिंदुस्तान के
दोनों ही हैं सरताज।
विश्व को संदेश है देना
धर्म जाति से भी है ऊपर
मानवता का श्रेष्ठ भाव।
कायम रहे दोनों के मध्य
सदा स्नेह प्रेम का साथ।







गांधीगिरी पर कहानी


 Gandhigiri 😊💐
Stories Only in100 words

 एक शाम मेरी नज़र झुग्गी के बेबस महिला पर पड़ी जिसका पति उसे मार रहा था। मैं बचाव करने पहुँची, और लोग भी एकत्रित हो गए । मैंने उसके पति से पूछा कि किस कारण इसे मार रहे हो । महिला ने कहा, मैडम ये मेरे बच्ची को पढ़ने जाने नहीं देना चाहता है, फीस के पैसे से जुआ खेलता है। फिर मैंने डाँट लगाते हुए कहा कि थाने में मैं तुम्हारी शिकायत दर्ज करा दूँगी। मैंने मोबाइल में उसकी तस्वीर ली, ताकि पति के मन में डर घर कर जाए। उसने पैर पकड़ लिए और माफी माँगी। वहीं खड़ी सहेली ने हँसते हुए कहा, वाह! तुम्हारी गाँधीगिरी तो चल पड़ी।
..................😊.................

बस में बैठे युवक ने केले के छिलके को बस से बाहर फेंका। वहीं बारह वर्ष के एक बालक ने उस छिलके को उठा लिया। बस वाले युवक ने बाहर निकल कर फिर एक छिलके को नीचे गिरा दिया। उस बालक ने फिर से उठाया। नवयुवक ने स्टाप पर मेरे बगल में स्थान ग्रहण करने से पूर्व उस बालक को एक केला खाने को दिया, बालक ने केले को छीलकर उस युवक के करीब फेंक दिया और खाने लगा। युवक ने क्रोध में कहा कि यहाँ क्यों फेंक रहे हो, कूड़ेदान में क्यों नहीं डालते? तभी मैं तपाक् से बोल पड़ी कि फिर आपने नीचे क्यों फेंका? सर्वप्रथम खुद को बदलिए, महाशय।


Monday, October 28, 2019

पर्व है दीपों का




      पर्व है दीपों का

दिवाली की अगली भोर ,
देख मैं रह गया भौंचक्का।
बालकनी के कोने में,
सहमा कपोत मैंने देखा।
रात्रि के अंधियारे में ,
न जाने कब आ बैठा ?
देख मेरी ओर मानो 
व्यथा कुछ यूँ था कहता।
''पटाखों की धुंध में, 
अपना शिशु मैं खो बैठा ।
ध्वनि, वायु प्रदूषण का 
देखो प्रभाव है कैसा ?
घर तो मेरा छीन लिया 
ये बुद्धिजीवि है कैसा?''
कंकड़ पत्थर के मकानों ने 
सुकून हमारा है छीना ।
हिय पत्थर का हो गया जिसका 
सिर्फ़ सोचता है वह खुद का ।
पलकें गीली हो गई मेरी
पीड़ा महसूस कर जब देखा।
दीपावली पर्व है दीपों का
ध्वनि प्रदूषण फिर कैसा?
राम युग रहा नहीं अब
कलयुग है यह कैसा ?
आने वाली पीढ़ी व
बुजुर्गों के विषय में भी,
नहीं कभी है यह सोचता।
सिर झुका वह निवेदन करता
''दीप जला जीवन रौशन कर ,
खुशियों से घर का कोना /''







Thursday, October 17, 2019

मैंने क्या किया ?



मैंने किया क्या ?
सच तो है
आज उम्र के इस पड़ाव पर
पूछा गया है प्रश्न
तुमने किया क्या?
एक घर को छोड़ आई
नए मकान को घर बनाई।
और मैंने किया क्या ?
जो अपने नहीं थे,
उन्हें अपना बना ली।
मान सम्मान दिया,
प्यार, स्नेह भी किया।
पर मैंने किया क्या?
नव बीज भी रोपा स्नेह से
पौधे बनने तक ख्याल रखा।
साँझ सवेरे नित जतन कर
फल पाने का इंतजार किया।
आँधी में भी धैर्य न खोया,
उम्मीद का दीप जलाए रखा।
मुस्कुराकर हर पीर सही,
स्वाभिमान को गठरी में रखा।
और मैंने किया क्या?
बिखरे पल को सहेजती रही,
औरों को सर्वप्रथम है रखा।
कुछ प्रयास तुमने किया,
तो कुछ प्रयास हमने भी किया।
गर तुम आगे सदा रहे तो
हम भी साथ में थे खड़े।
अप्रत्यक्ष रूप में ही सही,
तिनका बन कर ही डटे रहे।
पर मैंने क्या किया ?
सच ही तो है कभी
आगे आकर जताया ही नहीं।
अपने कर्मों को अहमियत,
हमने खुद ही दिया नहीं।
सच ही तो है कि
हमने क्या ही किया?
चादर, पर्दों, दीवारों की धूल
साफ़ तो हमने कर दिया।
पर कभी औरों के मन के
धूल को साफ ना हमने किया ।
सच ही तो है, हे ईश्वर
मैंने कुछ तो नहीं किया।
उम्र जाने किधर गई?
चेहरे पर झुर्रिया आ गई।
आईना जब भी हूँ देखती
अक्स मेरा है पूछता कि
आज तक मैंने क्या किया ?




Saturday, October 12, 2019

मेरा बचपन ( बाल कविता )

कहाँ गया वह?
भोला बचपन।
कागज़ की कश्ती से ही
खुश हो जाया करते थे हम।
मिट्टी के गुड्डे गुड़ियों संग,
सदा खेला करते थे हम।
कहाँ गया वह?
भोला बचपन
कागज़ की जहाज़ बना
हवाओं में उड़ाया करते थे।
बच्चों की ही रेल बना,
झूमा गाया करते थे हम।
लूडो, कैरम घर में खेल
कोलाहल करते थे हम।
रंग बिरंगी तितलियों
संग बगिया में भागा करते थे।
कहाँ गया वह?
भोला बचपन
रंगीन पतंगों को उड़ा,
अंबर को छूआ करते थे हम।
छोटी छोटी बातों में ही
बेहद खुश हो जाया करते थे।
सपने कुछ पूरे होते
और कुछ अधूरे ही रहते
फिर भी मुस्कुराया करते थे हम।
कोई लौटा दे वो
मेरा बचपन।
जिसमें सदा ही हर पल
हर हाल में खुश रहते थे हम।

Wednesday, October 2, 2019

भावपूर्ण श्रद्धांजलि

हाड़ मॉंस का इंसान ( कविता )



 हाड़ मॉंस का था वो इंसान,
रौशन जिसके कर्म से है जहान।
प्रतिभा-निष्ठा कर देश के नाम
सुदृढ़ राष्ट् बनाने का था अभिमान।
भारत रत्न‘ का मिला जिसे सम्मान
गूंजे जिसके स्वर कानों में
घरमुहल्ले  गली तमाम।
नारों से जागृत होता इंसान
जय जवानजय किसान।
हाड़ मॉंस का था वो इंसान,
घड़ीधोतीलाठी थी जिसकी पहचान
समय के पाबंद रहे सदा ही
लिया किए सदैव प्रभु का नाम।
प्रातः से सायं तक तत्पर रहे
 लेते थे कोई विश्राम।
आजादी दिलवाई हमको
सत्य-अहिंसा की बाहें थाम।
हाड़ मॉंस का था वो इंसान।
मॉ के लाल थे दोनों सपूत
उन महापुरुषों का कर सम्मान।
सादा जीवनउच्च विचार ’
स्वपन उनके चलो करें साकार।
हलधर बन धरती को गले लगाएॅ,
स्वदेशी बन खादी अपनाएॅ।
राष्ट्पिता’ को दो यूॅ सम्मान,
दो अक्टूबर को ही नहीं मा़त्र
आजीवन तक करो यह मंत्र जाप।
चलो मन में लाएॅ एक विचार
सत्यमेव जयते’ से गूजे संसार।
बापू-शास्त्री ने देकर योगदान,
मॉं के सपूतों ने रखादेश का मान। 
हाड़ मॉंस के थे वे दोनों इंसान
रौशन कर गए ,देश का नाम।
       
                                ---  अर्चना सिंह ‘जया

 लाल बहादुर शास्त्री जी व गाँधी जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि 

Sunday, September 22, 2019

हे मानव

अंधियारे से सीख, हे मानव
जीवन इतना भी सरल नहीं
जो अब भी न सीख सका तो
खो कर पाने का अर्थ नहीं।
धन, मकान,अहम् धरा रहेगा
जाएगा कुछ तेरे साथ नहीं।
समय का चक्र ही है सिखाता
धर्म ,सदाचार के बाद है कहीं।
अपना पराया जल्द समझ ले
वक्त का साया गुम हो न कहीं।
पछता कर क्या कर पाएगा?
न होगा जब तेरे पास कोई।
क्षमा,दया,सुविचार ही धर्म है
मानवता का है श्रृंंगार यही।
हर बात में सीख हँसना हँसाना
रोने के लिए तो है उम्र पड़ी।
जीवन का कर रसपान हर दिन
व्यर्थ ही न गुजर जाए यह कहीं।
जीवन खुद में ही है मधुशाला
खोज इसी में नित चाह नई।