Monday, September 3, 2018

भावांजलि: जय जय नन्दलाल कविता

भावांजलि: जय जय नन्दलाल कविता: जय जय नन्दलाल लड्डू  गोपाल कहो या नन्द लाल कहो, मंगल गीत गा, जय जयकार करो । समस्त जगत को संदेश दिए प्रेम का विष्णु अवतार लिए,...

Saturday, September 1, 2018

Khushiyo ka Raz....



                     खुशियों का राज़  ------------------ 

                               ‘स्वास्थ्य ही धन है ‘

  सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ......मुझे पूर्णविश्वास है इस श्लोक के अर्थ से सभी सहमत होंगे। हम सभी सुखी व स्वस्थ रहना चाहते हैं, किंतु हम सुखी तभी रह सकते हैं जब हम स्वस्थ होंगे। यानि सुखी जीवन का मूल सार है ‘स्वास्थ्य‘। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिस्क रहता है इसलिए हमें स्वयं को स्वस्थ रखना चाहिए। साथ ही जब हम स्वस्थ होंगे तो ही एक स्वस्थ परिवार बना पाएंॅगे और एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर पाएॅंगे। स्वस्थ समाज यानि एक स्वस्थ राष्ट् स्थापित कर पाएॅगे। मानव वो है जो अपनी खुशी के साथ-साथ दूसरों के विषय में भी सोचे, स्वयं के स्वास्थ्य के साथ-साथ औरां के स्वस्थ जीवन की कल्पना भी करे। ईश्वर ने आनंद की जितनी भी सामग्री प्रदान की है,उसमें स्वास्थ्य सबसे बढ़कर है, जिसका स्वास्थ्य ठीक है वही जीवन का सच्चा सुख है।
            अब बात आती है कि स्वस्थ रहने का मूल मंत्र क्या हैं? जल्दी सोएं व प्रातः जल्दी जागें ----अंग्रेजी में  ये सूक्ति  जो सभी ने बचपन से ही सुनी होंगी, मुझे याद आती है पर आज वर्त्तमान में कितने व्यक्ति हैं जो वक्त पर सोते और वक्त पर जागते हैं ? जब हम ही प्रकृति के विरुध जा रहें हैं तो पूर्ण रुप से दोषी भी हम ही हैं। गॉंवों व छोटे शहरो में फिर भी मनुष्य थोड़ा बहुत जीवन जी रहा है पर महानगरों में तो स्थिति बिल्कुल विपरीत है। महानगरों में रहने वाले लोंगो का स्वास्थ्य सबसे ज्यादा प्रभावित है। यथार्थ में छोटे शहरो व महानगरों के निवासियों का स्वास्थ्य सबसे अधिक प्रभावित है। जीवन के आपाधापी में, चूहे की दौड़ में या यह कह लो कि धनोपार्जन की चाह में हम मशीन हो चुके हैं। इस मशीनी युग में मानव की दिनचर्या ही उसके अस्वस्थ रहने का सबसे बड़ा कारण है। मानव एक सामाजिक प्राणी है समाज से बाहर उसकी कल्पना नहीं की जा सकती किन्तु यथार्थ में वह अब एकल परिवार में भी रहकर प्रसन्न नहीं है। जीवन की छोटी-छोटी खुशियों से परे होता जा रहा है, जबकि हम खुश रह कर ही स्वस्थ रह सकते हैं।
हमारी हथेली की पॉंच अॅगुलियों को ही लें क्या ये बराबर हैं? नहीं फिर परिस्थितियॉं एक जैसी कैसे हो सकती हैं, मेरे विचार से खुश रहने के भी पॉंच मूल मंत्र हैं -
1.सकारात्मक सोच अपनाएॅं।
2 किसी भी.कार्य को उत्साह व चुनौति के साथ करें।
3. धैर्य को न छोड़ें, क्रोध  त्यागें।
4.प्रकृति के नियम व वर्त्तमान को महत्तव दें।
5.हर पल को जीएॅं, खुलकर हॅंसें-हॅंसाएॅं।
      हमे अपनी सोच में सकारात्मकता को शामिल करने की आवश्यकता हैं। नाकारात्मक सोच व परिस्थितियों से परे रहने का प्रयास करना चाहिए। खुले दिमाग से प्रसन्न रहकर जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए। योग को अपना कर भी हम स्वस्थ और प्रसन्न रह सकते हैं। प्रातः दिनचर्या का आरंभ सकारात्मक तरीके से पौधों या प्रकृति के बीच, व्यायाम आदि के साथ करें।व्यक्ति की जीवन शैली का चयन उसका स्वयं का चुना हुआ है ऐसे में वो किसी दूसरे को दोषी नहीं ठहरा सकता है। हमें अपना पैर उतना ही फैलाना चाहिए,जितनी की चादर हो.......वरना परिस्थितियॉं हमें सोचने को विवश कर देती हैं।
     अपने जिंदगी में प्रेम,उत्साह व उत्सव को शामिल करें। सर्वप्रथम आप ऐसे कार्य का चयन करें जिसमें कि काम को करने में उत्साह व आनंद महसूस करें। जीवन एक संघर्ष है इसलिए  हर चुनौतियों को स्वीकार करें। परिस्थितियॉं जैसी भी हों उनका सामना चुनौतिपूर्ण ढ़ग से करें। अपने देश के सैनिकों से हमें सीखना चाहिए कि कैसी-कैसी चुनौतियों से टकराते हैं,  वे अपने हौंसले को कभी कम नहीं होने देते हैं। पंछीवृंद अपना घोंसला स्वयं बनाते हैं वे किसी पर निर्भर नहीं होते। पूरे उत्साह के साथ अपने कार्य में जुटे होते हैं।
         किसी भी कार्य को करने का मूल मंत्र है संयम। गलतियों से सीखें, साथ ही क्रोध से परे रहें। जीवन में संगीत का बहुत ही महत्तव है जो हमारे कार्य करने की ऊर्जा को बढ़ाता है। जीवन में संगीत को या आप अपने किसी शौक को जरुर अपनाएॅं इससे आप के काम करने का उत्साह दूना हो जाता है। प्रातः भजन का भी आनंद ले सकते हैं। प्रातः दिनचर्या का आरंभ सकारात्मक तरीके से पौधों या प्रकृति के बीच, व्यायाम आदि के साथ करें।
समय परिवर्त्तनशील है इसलिए सुख या दुःख से विचलित ना हों। वर्त्तमान की स्थितियों   को स्वीकार करें। कुछ भी स्थिर नहीं है जीवन में असमानता को देख घबराएॅ नहीं। यथार्थ  में जीना सीखें, मुस्कुराते हुए जीवन का आनंद लें। हॅंसें और हॅंसाएॅं, दूसरों में खुशियॉं बॉंटने से अपना भी मन प्रसन्न हो उठता है। जिंदगी जिंदा दिली का नाम है,मुर्दा दिल क्या खाक जीया करते हैं ? ईश्वर की दी हुई सॉसों का शुक्रिया अदा करें तथा निःस्वार्थ भाव से परोपकार करके देखें कि कितना सुकून और आनंद का अनुभव करते हैं। किसी विशेषज्ञ - हेनरी डेवीड थॉरेयू -ने कहा है कि ‘‘खुशियॉं खूबसूरत तितली के समान है जितना इसके पीछे भागोगे,उतना ही तुम्हें दौड़ाएगी। अगर अपना ध्यान अन्य वस्तु पर लगाओगे तो वह चुपके से आकर प्यार से तुम्हारे कंधे पर बैठ जाएगी।‘‘ पर कई मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि आप खुशियों को जाने ना दें, उसे पकड़ने का प्रयास करें। तितली रुपी खुशी को विवश कर दें कंधे पर बैठने को। आप स्वयं खुशियों का चयन करें और खुश रहें।
         खुश रहना स्वभाविक प्रक्रिया है इसे जितना व्यवहार में लाएॅंगे उतना ही खुशियों का प्रसार होगा। जीवन में खुशियों के लिए अलग से कोई वक्त नहीं आता है और न ही खुशियॉं बाजा़र में मिलती हैं। ये खुद के हाथ में है कि ‘‘आप कब-कैसे खुश रहना चाहते हैं क्योंकि अगर आप खुश होंगे तभी आप के आसपास के लोग भी खुश होंगे और इस प्रकार आप स्वयं भी स्वस्थ होंगे।‘‘ जिस प्रकार अच्छे पकवान या मीठा देखकर मनुष्य के मुख में पानी का आना स्वभाविक हैं उसी प्रकार खुशियों को भी छलकने से हम क्यों रोक देते हैं? उसे भी व्यक्त करें और आनंद को अनुभव करें। हमारी आत्मा तब आनंनदित होगी जब दिल व दिमाग दोनों ही स्वस्थ होंगे, हमारे आनंद का स्त्रोत भी हम स्वयं ही हैं। अपने आप को जानना ,चिंतन-मनन करना, दरअसल हम स्वयं के लिए ही वक्त नहीं निकाल पाते हैं। जीवन की आपा-धापी में हम भ्रमित होकर रह जाते हैं।
        अपने इंद्रियों पर काबू पाना ,मन में शांति स्थापित करना और अपने अंदर एक संतुलन बनाए रखना ही अध्यात्म है। संतोष व खुशी अत्यंत ही महत्तवपूर्ण है, जो एक साधारण व्यक्ति अपने जीवन में कर नहीं पाता है। यही कारण है कि वह कभी अध्यात्म या कभी धर्म का सहारा लेता है। मानव अपने जीवन की सरसता को स्वयं ही नष्ट करता है। सुख व दुःख तो जीवन का हिस्सा है ये तो आनी जानी है। हमारे दुःख का कारण ही है उम्मीदें, इच्छाएॅं ,लालसाएॅं.....आदि, यदि धन-वैभव से सुख व स्वास्थ्य प्राप्त हो जाता तो आज अधिकांशतः लोग प्रसन्न और स्वस्थ होते। अगर हम धर्म की बात करें तो पूजा पाठ, व्रत, तीर्थ आदि करने के पश्चात् भी व्यक्ति सदैव खुश व स्वस्थ क्यों नहीं रहता है? वह अपने आंतरिक मन पर संयम नहीं पा सका, यही कारण है कि वह धर्म का चोला धारण करने के बावजूद भी भटकता रहता है। बल्कि वह जीते जागते किसी इंसान को हॅंसा सके ,किसी भूखे को भोजन करा सके या किसी की निःस्वार्थ भाव से मदद कर सके तो उसे स्वयं ही एक विशेष आनंद की अनुभूति होगी। ईश्वर सर्वव्यापी है उसे पाने के लिए केवल अपने इर्दगिर्द ही नज़र उठा कर देखने की आवश्यकता है मंदिर या मस्जिद भटकने की जरुरत नहीं पड़ती है।
        मानव प्रकृति के मध्य जन्मा व उसी के आसपास रहने वाला प्राणी है किन्तु वर्त्तमान में वह प्रकृति से दूर होता जा रहा है, उसका जीवन इससे भी प्रभावित है। उसकी खुशियॉं व स्वास्थ्य भी इन बातों पर निर्भर है। आज हम आयुर्वेदिक की ओर फिर से आकर्षित होते नज़र आ रहे हैं। अब शिक्षित वर्ग फिर से प्रकृति के महत्तव को समझने लगा है तथा उसे स्वीकार करने लगा है। प्रकृति की गोद, किसी मॉं की गोद से कम नहीं है अपने स्वास्थ्य का उपचार भी इसके पास है। यही कारण है कि कई शहरों में ‘नेचर केयर सेन्टर‘ भी खुल गए हैं। लोगों में जागरुकता भी आ रही है वे अपने आसपास को पेड़-पौधों से सुसज्जित कर रहे हैं। वातावरण को स्वच्छ रखने में प्रकृति का बहुत बड़ा योगदान है। आज के परिवेश में हम  सब शारीरिक व मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं कारण हमारी जीवन शैली है। प्रकृति के विरुध जाकर मानव कभी स्वस्थ और खुश नहीं रह सकता। जीवन और संसार का मूल आधार प्रकृति है जिसके सौंदर्य को देख हमारा हृदय आनंद से परिपूरित हो जाता है। ‘तंदुरुस्ती हज़ार नेहमत है‘ यानि वरदान है। अस्व्स्थ और दुर्बल व्यक्ति अपनी ही हीनताओं के कारण अपना जीवन व्यर्थ कर लिया करता है, संसार में जो भी महान,महत्तवपूर्ण और उपयोगी कार्य हुए हैं वह दुर्बल शरीर व मन-मस्तिस्क वाले लोगों के द्वारा नहीं हुए हैं। अर्थात् अच्छा स्वास्थ्य व खुशियों को अपना कर ही स्वस्थ जीवन की कल्पना कर सकते हैं।
हमें अपनी भावनाओं व उत्तेजनाओं पर काबू रखना चाहिए क्योंकि यह भी हमारे सुख-दुःख के कारण होते हैं। भावनाओं पर संयम पाना आवश्यक होता है, अपने इंद्रियों को वश में रखना भी हमारा ही दायित्व है। मानव की भावनाओं, विचारों व व्यवहारों का प्रभाव शरीर व मस्तिष्क पर अवश्य ही पड़ता है। इस प्रकार हमारा स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है अर्थात् हमें भावनात्मक तौर पर खुद को प्रसन्न चित रखने का प्रयास करना चाहिए। कई बार भावनाओं और बाहरी वातावरण का तालमेल उचित न होने के कारण परिस्थ्तियॉं विपरीत हो जाती हैं। 
प्रेम,क्रोध,भय,हॅंसना,रोना...आदि जैसी भावनाएॅं हमें उत्तेजित कर जाती हैं पर बुद्धि विवेक से हमें सही निर्णय लेना चाहिए। साथ ही बाहरी सकारात्मक व नाकारात्मक परिवेश हमारी आंतरिक भावनाओं को सक्रिय कर देती हैं।
आजकल की जीवनशैली के परिवेश,खानपान आदि में स्वच्छता व शुद्धता तो रही नहीं जिसका प्रभाव उसके मानसिक व शारीरिक विकास पर पड़ रहा है। यही कारण है कि वह कई बीमारियों से जूझता है जैसे-मोटापा, डाइविटिज, हार्टाटैक, कैंसर आदि,वह अपने अंदर व्याप्त शक्तियों से अनभिग्य होता चला जाता है। योग साधना से अपने मनोबल को कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहिए। इन सभी से बचने का एक मात्र उपाय है-शारीरिक व्यायाम व प्राकृतिक इलाज यानि स्वउपचार। योगा व उचित खानपान को अपना कर भी हम कई बीमारियों से परे रह सकते हैं। स्वउपचार उपवास, आहार, आराम आत्म-उपचार के कई तरीके हैं। हमने स्वयं ही अपने जीवन को सरल बनाने के लिए मशीन का सहारा लिया है, जिस कारण हम शरीर से अस्वस्थ होते जा रहे हैं। आधुनिक तकनीक के कारण मानव शरीरिक परिश्रम से ज्यादा मानसिक परिश्रम करने लगा है जिसका प्रभाव सर्वाधिक उसके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग रहता है- यह कथन सौ प्रतिशत सत्य है। यथार्थ में स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाला प्राणी सुशिक्षित क्यों आज दिग्भ्रमित है जीवन के मूल मंत्र से परे क्यों हो रहा है?-

                      हमारा आहार,व्यवहार, आचरण आदि ही स्वास्थ्य व सुख को निर्धारित करता है।

                                                                   ................................ अर्चना सिंह जया

                           June 2018 published in Samarth Bharat magazine page 18









Friday, August 31, 2018

जिंदगी मिलेगी न दोबारा ....Article


                                                                    
                 जिंदगी मिलेगी न दोबारा  
                 
जिं़दगी जो ईश्वर से हमें वरदान के रुप में मिली है,उसे सॅंवार कर स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए। जीवन को मुस्कुराने व खिलखिलाने दें,यह एक अनमोल भेंट है जिसे व्यर्थ में बर्बाद नहीं करना चाहिए। कुछ अच्छा कर औरों को अच्छा करने को प्रेरित करना चाहिए। जिंदगी में मक़सद का होना आवश्यक है, वरना जीवन जीते-जीते हम मार्ग से भ्रमित भी हो जाते हैं। जीवन को सॅंवारना यानि ऐसे रंग जीवन में घोलो जिसमें दूसरे भी रंग कर प्रसन्न हो जाएॅं। किसी बनावटी वस्तुओं से मत सॅंवारों कि दूसरे वैसे बनने की चाह में गलत राह पर चल पड़ें। नशा के अभिशाप से स्वयं को बचाओ, कहते हैं लत किसी भी चीज़ की बुरी होती है। वर्षों हो गए देश को आज़ाद हुए पर मनुष्य फिर भी खुद को नशा की बेड़ियों में जकड़े हुए है।
      आज की युवा पीढ़ी किस आधुनिकता को ओर भाग रही है ?ये तो वो ही जाने ,पर यथार्थ में हमें अपनी सोच में आधुनिकता लाने की आवश्यकता है। स्त्री व पुरुष एक दूसरे का आदर करें, आपसी सहयोग दें। पुरुष के साथ कदम मिला कर चलें न कि खानपान. धूम्रपान, ड्गस आदि का सेवन करने की बराबरी करें। शिक्षा व कार्य में समानता होनी ही चाहिए, जीवन को जीने व आनंद लेने में बराबरी होनी चाहिए। समाज में रहते हुए समाज के दायरों को लॉंघने की भूल युवापीढ़ी को नहीं करनी चाहिए। जुनून अच्छे कार्य करने. अच्छा भोजन करने. परोपकार करने. खुश रहने व खुशियॉं बॉंटने का होना चाहिए न कि उन हानिकारक वस्तुओं का सेवन करने का जिसके सेवन से आप अपनों से तथा खुद से भी दूर हों जाते हैं। जीवन अनमोल है उसे इस प्रकार व्यर्थ में खर्च ना करें। ‘‘जिं़दगी अपने आप में गुलज़ार है, कभी गम है तो कभी खुशियों की फुहार है‘‘यही सोच होनी चाहिए। वरना िंजंदगी बेरंग सी लगने लगेगी।
         जिं़दगी को कई रंगों से सॅंवारने का उत्तरदायित्व हमारा ही है। ये हमें ही तय करना है कि खुश रहने के लिए हमें पैसे खर्च करने हैं या बगैर पैसे खर्च किए भी हम हॅंस सकते,गुनगुना सकते हैं। सदा ही छोटी-छोटी बातों पर हॅसना, खुश रहना सीखें, किसी बड़े समय का इंतज़ार न करें। जब ऐसा होगा तब या जब वैसा होगा तब--- हम हर उस पल को ही वैसा बनाने की कोशिश करें जैसा हम चाहते हैं। जिं़दगी आपकी है फिर आप पर निर्भर है न कि समय पर, गिरते हैं घुड़सवार ही मैदाने जं़ग में। गिरने के डर को मन में अगर बैठा लें तो कोई भी बच्चा चलना नहीं सीख पाता, तो जीवन सफ़र में परिस्थितियों से घबड़ा कर हॅंसना या जीना छोड़ देने में कैसी समझदारी है? जीवन में व्यक्ति यदि किसी वस्तु का गुलाम बन जा रहा है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? उसका खुद का जीवन उसकी आत्मा की आवाज़ न सुनकर निर्जीव वस्तुओं का मुॅंहताज़ हो जाता है। नशा जैसे अभिशाप से स्वयं को बचाएॅं, वास्तविकता से भागने का प्रयास न करें।
        वर्त्तमान समय में सभी स्वयं को बुद्धिजीवी ही मानते हैं,शायद यही कारण है कि प्रसन्न रहने की परिभाषा ही बदलती जा रही है। धनोपार्जन जिं़दगी चलाने का एक जरिया ही नहीं बल्कि, खुश रहने का एक मार्ग बना लिया है। धन से अगर खुशी मिलती तो इस संसार में कोई दुखी नहीं होता। कोई धन को लेकर दुखी है, तो कोई तन व मन से। सभी अगर खुश हैं तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों आदि में भीड़ नज़र नहीं आती क्योंकि मनुष्य बिना स्वार्थ के ईश्वर को भी याद नहीं करता है। दुःख में ही ईश्वर की याद आती है चाहे वह दुःख मानसिक हो या शारीरिक। मेरा मानना है कि ईश्वर कण-कण में है, हर मनुष्य,पशु-पक्षी आदि में है फिर भी हम भटकते ही रहते हैं। दुःख तकलीफ़ में विचलित हो हम भ्रमित होते ही रहते हैं। मानव प्रवृति बहुत ही विचित्र है वह सुख व दुःख दोनों में ही नशा करने के बहाने ढॅूंढ ही लेता है, आज की युवा पीढ़ी इस ओर बहुत ही तीव्रता से आकर्षित हो रही है। युवक हो या युवती दोनों ही जीवन का आनंद धूॅंए में ही उड़ाना पसंद कर रहे हैं। मदिरा का पान करना जैसे उनकी शान को बढ़ाता है। पर क्या जो सिगरेट या मदिरा जैसी चीज़ का सेवन नहीं करते वो जिं़दगी के सुख चैन से परे हैं? नहीं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल वे जीवन का सही मायने में आनंद उठा रहे हैं,उनकी बुद्धि विवेक सही दिशा में सोच पाने में समर्थ होती है। अपने जीवन के आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं उसे खुशियों के रंग से सवॉंरना है या बेरंग कर नशे के दलदल में ढकेलना है, इसका निर्णय खुद ही लेना है। नशा मुक्त हर एक घर बनाएॅ ंतो राष्ट् अपने आप ही नशा मुक्त हो जाएगा। 
       हम अपने भावी पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं? हम बड़े ही तो नशा में खुशी ढॅूंढ कर अपने बच्चों को सोचने पर विवश कर रहे हैं कि जीवन का एक  रंग ये भी है। फिर नशा मुक्त बिहार,पंजाब या देश की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं? साथ ही कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो स्वयं इसी समाज का एक हिस्सा होने के बावजूद भी स्वयं को नशा से कोसों दूर रखें हुए हैं,तो क्या वे मर्द नहीं या आधुनिक नर व नारी नहीं? बस सारा खेल हमारी सोच का है, नई सोच व आधुनिकता पर विचार करने की आवश्यकता है। आधुनिकता या परिवर्त्तन से हमें अच्छी बातें सीखनी चाहिए,ये परिवर्त्तन ही है कि कल्पना चावला चॉंद पर जाने में सक्षम हो पाई, ये आधुनिकता ही है कि हमारे देश में ‘पैडमैन‘ जैसे व्यक्ति महिलाओं को परेशानियों से मुक्त करने में अपना योगदान दे पाए।
      ज़िंदगी में किसी भी प्रकार की न अपेक्षा रखें और न ही किसी की उपेक्षा करें तो देखेंगे कि ज़िंदगी अपने आप में रंगीन है। जीवन के कुछ पलों को उत्सव की तरह मनाएॅं, किसी पर्व विशेष का इंतज़ार न करें। जीवन के उतार-चढ़ाव या दफ़तर व बाहर के उतार चढ़ाव से जीवन को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। हमारी लड़ाई स्वयं से ही होती है अगर खुद को समझाने में सफल हो गए तो समझो कामयाब हो गए। जबकि हकीकत में कुछ और ही है हमें बाहर के लोग व बाहरी बनावटी दुनिया ज्यादा प्रभावित करती है। खुद को हम संभाल पाने में कमज़ोर साबित होते हैं। यथार्थ से परे रह कर वास्तविकता व वर्त्तमान से दूर हो जाते हैं। यही कारण है कि जिं़दगी बोझ सी लगने लगती है और उस हारिल पक्षी की भॉंति पंजे में लकड़ी  पकड़कर आकाश में उड़ने का प्रयास करतें हैं यानि स्वयं से ही छल कर बैठते हैं। वास्तविकता से भागने के लिए नशा जैसी वस्तुओं का सहारा लेते हैं। जीवन के सुख से परे होने लगते हैं। जीवन का आनंद धन से नहीं मन से जुड़ा है।
       व्यक्ति जब विषम परिस्थितियों में स्वयं को कमज़ोर पाता है तब कहीं वह मदिरा का सहारा लेता है। मगर मेरे विचार से ये एक बहाना मात्र है, अगर इसे सही माने तो शहीदों की पत्नियों को तो हर पल मदिरा में डूबे रहना चाहिए। उन पर जो विषम परिस्थितियों का पहाड़ टूट पड़ता है,वैसा किसी पुरुष पर तो शायद ही कभी। हम इंसान नए-नए बहानों का पिटारा तैयार रखते हैं, जबकि स्कूली बच्चे भी इससे कम बहाने बनाते हैं। गम का पहाड़ टूटा तो मदिरा का सेवन, खुशियों ने दस्तक दी तो भी, अरे भाईयों-बहनों बहाना बनाना भी है तो बच्चे बनने के बहाने खोजो। बचपन को फिर से जीने का प्रयास करो और जीवन का पूर्ण आनंद उठाओ। जीवन में कला, संगीत, खेल, योग आदि को स्थान देकर देखें, आप की आयु स्वस्थ व लंबी हो सकती है। ज़िंदगी खूबसूरत बनाने का प्रयास करें न कि अवास्तविक। गम को फुटबाल समझ कर ज़ोर से मारें, खुशियों को गगन में पतंग के समान उड़ने दें, दूसरों को भी लूटने का अवसर दें। आप एक बुद्धिजीवि प्राणी हो निर्जीव वस्तुओं के गुलाम ना हो जाओ। सिगरेट, गुटका, मदिरा जैसे न जाने कितनी चीजें हैं जिसका मानव गुलाम बनता जा रहा है। ये आधुनिकता नही स्वयं की विवशता है, अपनी कमज़ोरियों को ढ़कने का दूसरा तरीका है।                                                                    युवावर्ग से निवेदन है कि आधुनिकता को अपनाएॅं किन्तु अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल करते हुए। जवानी में ही ऐसी क्या विवशता है कि आप अपनी ऊर्जा शक्ति को सिगरेट, तम्बाकु ,गुटका जैसी वस्तुओं के नाम पर गिरवी रख दे रहे हो। युवा पीढ़ी दिगभ्रमित ना होवे, बड़े अगर भटक भी गए हैं तो आप उनकी जिंदगी से प्रेरणा लेकर स्वयं को बचाएॅं। ईश द्वारा प्राप्त जिंदगी को उचित अवसर व दिशा दें। आप पर ही घर,परिवार व देश का भविष्य निर्भर है। नशा करना ही है तो नन्हें बच्चों को मुस्कुराने , बड़े बूढ़ों का आशीष पाने, समाज के लिए कुछ कर जाने का नशा करें। जीवन में ऐसे काम करें कि आप के अपने तथा राष्ट् आप पर गर्व करे। किसी शर्मिंदगी के साथ न जीने को विवश हों बल्कि अपने घर,परिवार, सगे संबंधी व मित्रों के साथ स्वस्थ-उचित अवधि व्यतीत करें जिसका प्रभाव आपके स्वास्थ्य को स्वस्थ रखने पर पड़े। बहाने स्वस्थ व निरोग होकर जीने का खोजें, वस्तु के गुलाम बनने का नहीं। नशा से दूर हो, जीवन जीएॅं भरपूर। 
कभी उलझती रही तो ंकभी सुलझती रही । बस जिंदगी यूॅं ही गुज़रती रही।

                                                                                  .............. अर्चना सिंह जया


                                September 2018 published in  Samarth Bharat Magazine , page27






Wednesday, August 22, 2018

मानव की मानवता। (कविता)

         मानव की मानवता

  मानव ने है मानवता त्यागी,
  कुदरत ने भी जताई नाराज़गी।
  ना समझ स्वयं को बलशाली,
  तुझ पर भी पड़ेगा कोई भारी।
  प्रकृति का आदर ना करके,
  तू खुद को सोचता महाज्ञानी।
  गर होती बुद्धि विवेक जरा-सी,
  ना करता फिर ऐसी नादानी।
  मेरे तन-मन को तूने भेदा,
  उदारता को कमज़ोरी समझा।
  विवश किया क्रोधित होने को,
  धैर्य के बॉंध को पड़ा त्यागना।
  बहुत सोच विचार कर मैंने
  सबक सिखाने का निर्णय लिया।
  देख जल तांडव अब तू मेरा,
  आफ़त की बारिश का है घेरा।
  जल प्रलय का रुप धारण कर,
  ढाह रही हूॅं अब घर तेरा।
  हाहाकार मच जाएगा देख अब,
  त्राहि-त्राहि कर उठेगी धरा तब।
  तब भी सचेत न तुम हो पाओगे,     
  दूषित करने का तूने है ठाना,
  प्रदूषित किया मेरे मन का कोना।
  क्या वसुधा का जतन कर पाएगा ?
  उधड़ा स्वाभिमान लौटा पाएगा ।
  कैसे यकीन करुॅं हे मानव !
  वर्षों लग गए बस समझाने में।
  दानव से मानव का सफ़र तय कर,
  दानव हावी है आज भी मानव पर।
                 
                                   -------  अर्चना सिंह जया

Friday, August 17, 2018

विचारों के अटल। कविता

जो आदर्श में अटल रहें,
विचारों में प्रबल रहें।
धर्म जाति से परे वे ,
मानवता अविरल रहे।
विस्तृत विचार व उदार
भाव की धारा सरल रही।
आकर्षक व्यक्तित्व व
प्रभावशाली था शब्दकोष ।
आशा से अतीत वे
सत्यपथ पर अग्रसर रहे।
यशस्वी व अनुयायी रहें
अहिंसा के सदा ही।
कृतार्थ हुए अटल जी से,
तटस्थ रहे जीवन में सदा ही।
विचारों में बहुदर्शिता,
सहिष्णुता, निर्मलता,निस्पृह
वाजपेयी जी की छवि यहाँ।
कुशाग्र,धर्मनिष्ठ,नीतिज्ञ
दृढ़निश्चय सा महान।
समदर्शी,कुशल राजनीतिज्ञ
भारत रत्न वे अमर रहें।
अटल सा ना कोई हुआ,
अद्वितीय है व्यक्तित्व जिसका
चाँद-सूरज सा वे चमकें यूँ,
वतन को जिस पर अभिमान रहे।

.......अर्चना सिंह जया
अटल जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि💐

Monday, August 6, 2018


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Friendship Story - आत्मग्लानि 

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   Thank You.           
 Archana Singh Jaya