Sunday, August 5, 2018

मित्रता ( कविता )

मित्रता (कविता )

                 
पावन है यह रिश्ता मानो
महत्वत्ता जो इसकी पहचानो।
लहू के रंग से बढ़कर जानो
मित्रता धन अनमोल है मानो।
बीज मित्रता का तुम बोकर,
भूल न जाना प्रिय सहचर।
प्रतिपल अपने स्नेह से सींचना
बेल वृद्धि हो इसकी निरंतर।
मित्रता का पौधा पनपकर
छाया देता यह प्रतिपल।
रेशम की डोर सी कच्ची
शाख है होती इस तरुवर की।
प्रेम, सहयोग,सहनशक्ति से
सींचना ये लता, जीवन उपवन की।
दर्पण सा होता मित्रता का आईना
मित्र हीे हरते पीर मन की।
अपना अक्स नज़र है आता
हमारी पहचान जब होती इनसे।
मित्र बिन जीवन लगता सूना
हरियाली तन-मन की इनसे।
मित्रता सदा उसका ही पनपता
हुकूमत करने की जो न सोचता।
प्रेम की डोर में सदा पिरोकर
रखता सहजता से गले लगाकर।
अच्छी सौबत में सदा ही रहना
ऊॅंच-नीच ना मन में रखना।
कुुसंगति से सदा ही बचना,
चयन मित्र की परख कर करना।
सुख-दुःख का भागीदार है बनना
राम -सुग्रीव ,जैसे कृष्ण संग थे सुदामा।
मित्रता का उचित संदेश देकर
बुद्धिविवेक का परिचय यूँ ही देना।
मित्रता हो सूर्य चॉंद सी पक्की
प्रकाश-शीतलता देकर अपनी।
मंद न होने दे, खुशियॉं जीवन की
वट-सा विशाल हो मित्रता अपनी।
           
                ...................अर्चना सिंह जया

Tuesday, July 10, 2018

कहर में जिंदगी ( कविता )


कहर में ज़िंंदगी

जल कहर में फंसी ज़िंंदगी ,
कुदरत के आगे बेबस हो रहे
बच्चे, बूढ़े व जवान सभी।
इंसान के मध्य तो शत्रुता देखी,
पर यह कैसी दुश्मनी ठनी?
मानव व कुदरत के बीच,
बिन हथियार के जंग है छिड़ी।
संयम का बांँध तोड़ नदी-जलधि,
सैलाब में हमें डुबोने निकली।
यह जलजला देख प्रकृति का,
नर-नारी,पशु-पक्षी भयभीत हैं सभी।
प्रतिवर्ष मौन हो बुद्धिजीवी,
देखा करते तबाही का मंज़र यूँ ही।
मगरमच्छ आँसू व सहानुभूति,
दिखा भ्रमित करती सरकार यूँ ही।
न जाने कब सचेत होंगे हम?
और उभर पाएँगे विनाश बवंडर से।
आपदा की स्थिति से वाकिफ़ सभी,
किंतु सजग व तत्पर होते हम नहीं।
कुदरत के संग जीना तो दूर,
उसे सहेजना भी गए हम भूल।
उसी की आँगन में खड़े,
उसके बर्चस्व को ललकारने लगे।
शिक्षा व ज्ञान किताबों में बंद रख,
मानवता से परे दफ़न हो रही जिंदगी।
                   -----  अर्चना सिंह जया

Wednesday, June 20, 2018

योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर..(.कविता)

योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर (कविता)

 योग को शामिल कर जीवन में
 स्वस्थ शरीर की कामना कर।
 जीने की कला छुपी है इसमें,
 चित प्रसन्न होता है योग कर। 
 घर ,पाठशाला या दफ्तर हो चाहे
 योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
      शिशु, युवा या वृद्ध हो चाहे
      योग ज्ञान दो, हर गॉंव-शहर।
      तन-मन को स्वस्थ रखकर
      बुद्धिविवेक है विस्तृत करना।
      इंद्रियों को बलिष्ठ बनाने को
      योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
विज्ञान के ही मार्ग पर चलकर
योग-साधना अब हमें है करना।
आन्तरिक शक्ति को विकसित करता,
योग की सीढ़ी जो संयम से चढ़ता।
ईश्वर का मार्ग आएगा नज़र,जो
योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।
     दर्शन, नियम, धर्म से श्रेष्ठ  
     योग रहा सदा हमारे देश।
     आठों अंग जो अपना लो इसके
     सदा रहो स्वस्थ योग के बल पे।
     जोड़ समाधि का समन्वय कर
     योग से प्रारम्भ कर प्रथम पहर।

                                                                                          21 june   अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर
                                                                                                    - अर्चना सिंह 'जया' 

Sunday, June 17, 2018

पिता से नाता ( कविता )

पिता का साया सदा है भाता,
हमारी फिक्र से है उनका नाता।
कभी फटकार तो कभी स्नेह,
उनकी अंगुली को थामकर
चलना सीखा, हँसना सीखा।
हमारे मार्गदर्शक रहे सदा ही,
उनकी बगिया की, हम फुलवारी।
महकना सीखा,चहकना सीखा
हमारी फिक्र से है उनका नाता।
दुःख के बादल से परे रख,
उज्ज्वल भविष्य की करें प्रार्थना
माँ अन्नपूर्णा तो पिता ब्रह्मा,
अच्छी  सेहत  उनको देना दाता।
बिना इनके राह नहीं सुहाता,
दोनों ही हैं हमारे विधाता।
हमारी फिक्र से है उनका नाता।
पिता का साथ सदा ही भाता।

                .......अर्चना सिंह जया


Tuesday, May 29, 2018

भूमि [ कविता ]

                     
धूप की तपन से
जलती रही मैं भूमि।
तन पर दरारें पड़ती रही,
तड़पती रही स्नेह बॅॅंूद को।
कैसे झूमेगा मयूर-मन ?
बादल आकर चले क्यों जाते?
मन के भाव मेरे,बैरी वो
समझ क्यों नहीं पाते?
मन व्याकुल है,तन है सूखा।
मेरे अंतर्मन को
वे छू क्यों नहीं पाते?
वसुधा को तो प्रिय मेघ
सदा ही थे भाते।
पर यह क्या ?
घन मुझे यूॅं तरसाकर
परदेश को चले हैं जाते।
प्यासा मन, राह तकते रहते
अधीर मन से देखा करते।
नेह कब बरसेगा झरझर ?
धरा पूछती रही प्रतिपल,
‘‘कहो ओ सजन
कब तृप्त होगी भूमि ?
औ’ नाचेगा मयूर मन।’’
भाव हिय में छुपाकर,
मेघ को पुकारती पल-पल।
घन जब छाता अंबर पर,
मन मयूर नृत्य कर उठता
भाव विभोर हो, उस पल।
मन पीहू झूमता रह रहकर,
मेघ देख मन होता आतुर
तन तो भींग गया,पर
मन सूखा ही रहा जर्जर।
मैं भूमि रही प्यासी चारों पहर।
         
              ................  अर्चना सिंह ‘जया‘


Friday, May 4, 2018

अग्नि परीक्षा [ कविता ]

       

बालपन से सिर्फ सुना किया

राधा ,मीरा, सीता, अहल्या की

नानी-दादी से किस्से- कहानियाँ ।

आनंदित हो जाती थी सुनकर

न सोचा, न तर्क किया कभी

बस मौन रहकर सुना किया।

सीता की हो अग्नि परीक्षा,

या हो अहल्या का शिला श्राप।

मीरा ने क्यों विष पिया ?

चाहे हो राधा का विलाप।

बुद्धि विवेक न थी मेरी

बाल्यावस्था में अकल थी थोड़ी।

प्रौढ़ावस्था में मैं जब आई,

चिंतन मनन को विवश हुई।

क्या अग्नि परीक्षा अब नहीं होती?

या अहल्या सी छली नहीं गई कोई,

यथार्थ में भी विष पी रही मीरा,

घर-घर में जी रही है वीरा।

अबला थी तब भी वो शक्ति,

आज सबला बनने की चाह में

कितनी अग्निपरीक्षा है वो देती।

बच्चों के लिए कभी  मौन रहकर,

तो कभी मानमर्यादा को ढ़ोती ।

मिशाल कायम करने की चाह में,

खुद संघर्ष कर सक्षम बन पाती।

चाहत की परवाह किसे,

स्वयं ही जीवन ताना-बाना बुनती।

कलयुग की यह व्यथा हमारी,

इंद्र सा छली, रावण सा कपटी।

मिल जाते हैं हर डगर-गली ,

कहॉं से लाएॅं राम-लखन, केशव ?

कलयुग की व्यथा हुई बड़ी /

सीता ,उर्मिला, मीरा, राधा,

मिलेंगी  हर घर - ऑंगन में यहीं ।

''सम्मान देकर, सम्मान है पाना''

ले शपत, पौरुष तब  आगे बढ़ना।

अग्नि परीक्षा है अब तुझे देनी ,

दुर्गा ,काली ,लक्ष्मी से पूर्व

समझ पुत्री ,वधु ,स्त्री ,जननी /

देवी पूज, शक्ति करता  प्राप्त

नारी शक्ति की पूजा ही नहीं मात्र /

कदम-कदम पर देकर साथ ,

इंसान समझने का संकल्प ले आज /



                                                          ---------   अर्चना सिंह जया