सागर ऊर्मि की तरह मानव हृदय में भी कई भाव उभरते हैं जिसे शब्दों में पिरोने की छोटी -सी कोशिश है। मेरी ‘भावांजलि ’ मे एकत्रित रचनाएॅं दोनों हाथों से आप सभी को समर्पित है। आशा करती हूॅं कि मेरा ये प्रयास आप के अंतर्मन को छू पाने में सफल होगा।
Friday, October 14, 2016
Saturday, October 8, 2016
अधिकार ( कहानी )
स्त्री व पुरुष ईश्वर की संरचना है फिर उनके अधिकारों में भी समानता होनी चाहिए। स्त्री के अधिकारों को पुरुष वर्ग क्यों निर्धारित करता है ? क्या स्त्री स्वयं के अधिकारों के दायित्वों को समझ पाने में असमर्थ है ऐसा नहीं है। उसे समाज ने कमजोर समझने की भूल की है। वह संस्कारों की चुन्नी ओढ़े पुरुष की तथा दो परिवारों की मान-मर्यादा को बनाए रखने की पूर्ण कोशिश करती है। सहनशील है कमजोर नहीं।
आज मैं स्त्री के अस्तित्व को समझने की कोशिश कर रही थी हमारी बुआ जी सुलझी हुई,समझदार, पढ़ी लिखी व कर्मठ महिला थी। उन्होंने अपने मायके में बहुत ही खुशहाल जीवन व्यतीत किया था । मायके में संयुक्त परिवार में रहने के कारण उनके व्यवहार में कई लोगों के अच्छे गुणों का समावेश था। सभी लोग उनसे अपना काम करवा ही लिया करते थे। गुजरते वक्त के साथ समय का पता ही नहीं चला बुआ कब विवाह योग्य भी हो गईं ?वो मेरी अच्छी दोस्त भी थीं। उनका विवाह एक अच्छे परिवार में हो गया। फुफा जी एक प्राइवेट कम्पनी में कार्यरत थे। जैसा कि सभी लड़कियों को मायके में ही सिखा दिया जाता है कि तुम्हारे कुशल व्यवहार से सास-ससुर ,जेठ-जेठानी ,देवर सभी तुम्हारे अपने हो सकते हैं।
मेरे मन में कई प्रश्न हिचकोले खा रहे थे, क्यों लड़कियों को ही ज्ञान से भरी बातें सिखाई जाती हैं ? क्या लड़के को सिर्फ स्वयं के परिवार का ही दायित्व समझना चाहिए ? किन्तु जवाब नहीं मिल रहा था। अगर लड़की के कोई भाई न हो तो ऐसे में मायके की जिम्मेदारी किसकी होगी ? यहॉं क्या लड़की अपने अधिकारों को याद दिलाती है ?पति जिन अधिकारों के साथ पत्नी से उसके फर्ज को याद कराता ही रहता है।
बुआ जी अपने नये जीवन में प्रवेश कर चुकी थीं। उन्हे लगा कि अगर वह ससुराल को जितनी जल्दी अपना समझकर खुशहाल बनाएॅंगी उनके लिए अच्छा रहेगा और फुफा जी के दिल में भी जगह बना लेंगी । किन्तु फुफाजी के दिल में कोई और ही बसी थी। ये अलग बात है कि फुफा जी की शादी उससे नहीं हो पाई, क्योंकि उस वक्त फुफा जी सक्षम नहीं थे और लड़की के पिता दो वर्ष तक रुकने को तैयार नहीं थे। बुआ जी का स्वभाव परिवार के सभी सदस्यों को प्रभावित कर गई सिवाय फुफा जी के। फुफा जी को लगा कि अगर उन्होंने भी प्यार,सम्मान देना आरंभ कर दिया तो लड़की सिर चढ़ जायेगी। एक इत्तफ़ाक ये भी हो गया कि फुफा जी के कुछ मित्रों के साथ चाचा जी का व्यवहार शादी के रश्मों के दौरान उचित नहीं था। ये सुनकर बुआ जी भी अपने तरीके से बात की तह तक जाने का प्रयास की तो ज्ञात हुआ कि मित्रों में से एक मित्र ने शराब पी रखी थी। बुआ जी का ये मानना था कि शादी जैसे बड़े कार्यक्रमों में अगर कुछ ऊॅच नीच हो भी जाती है तो उसे नज़र अंदाज़ कर देना चाहिए। पर कई बार ऐसा नहीं होता, यहॉं फुफा जी ने भी बात की गॉंठ बॉंध ली थी।
किसी भी रिश्ते की शुरुआत प्यार से होनी चाहिए किन्तु बुआ फुफा जी के रिश्ते की शुरुआत हल्की नोंक-झोंक से हुई। दोनों ने ही रिश्तों की डोर को थामें रखा, इस तरह समय गुजरता गया। बुआ जी के दो बच्चे हुए,पहले लड़की फिर लड़का। बुआ जी की बेटी अब ससुराल जा चुकी है बेटा इंजीनियरिंग कर नौकरी कर रहा है। बुआ की बेटी के जन्म पर फुफा जी का चेहरा जरा उतर गया था। बुआ बताती थीं कि गर्भ की जॉच करवाई गई थी जो कि अपराध है डॉक्टर ने उसी समय ‘लड़की है’ बता दिया था। मुझे ये सब उचित नहीं लग रहा था, मगर मैं चुप रहने में ही भलाई समझी। अधिकार समझ वो कभी अपनी बात नहीं कह पाई। अगर तबियत जरा खराब भी हो जाए तो फुफा जी मॉं से कह कर डॉक्टर को दिखवा देते । बिटिया राशि का जन्म हुआ ,फुफा जी ने झूठी खुशी जा़हिर करते हुए मिठाई वितरण का कार्यक्रम कर दिया। समय गुजरता गया, तीन वर्ष पश्चात् बुआ ने बेटे को जन्म दिया। फुफा जी के खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा, बुआ तो इस बार भी उतनी ही खुश थी। खुश क्यों न हो, दोबारा मॉं बनने का सौभाग्य जो प्राप्त हुआ था। मॉं के लिए बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं होता, उसे दर्द व परेशानियों का सामना तो उतना ही करना पड़ता है।
बुआ को लगा शायद अब उन्हें प्यार व सम्मान अवश्य मिलेगा। बुआ परिवार की लाडली तो बन गई पर जिसके लिए इस घर में आई थी उसी के प्यार के स्पर्श की लालसा आज भी बनी हुई थी। फुफा के क्रोध की भागीदार बनी, अगर बुआ कभी पूछ देती कि आप को सिर्फ गुस्सा करना ही आता है क्या ? तो बात घुमाकर कह देते थे कि जिससे प्यार होता है उसी पर गुस्सा भी किया जाता है और वह बेवकूफ चुप हो जाती।
बुआ जी की बातें सुन कर मैं सोच में पड़ जाती थी कि आखिर पुरुष चाहता क्या है ? उसकी पत्नी सबकुछ भूलकर उसी के परिवार को सवॉंरने में अपने अस्तित्व को न्योछावर कर देती, फिर भी वह सम्मान की अधिकारी नहीं होती क्यों ? आरम्भ के कुछ महीनों में उसे मायके की याद सताती भी है। पर जैसे-जैसे वक्त गुजरता जाता है उसे पति का ऑंगन ही भाने लगता है। पति के प्यार पर उसका पूर्ण अधिकार है वो समझे या नहीं। पति शायद अपने प्यार की तलाश बाहर भी कर सकता है किन्तु पत्नी प्यार की पूर्ति कहीं बाहर से नहीं कर सकती।
बुआ जी घर परिवार के किसी भी सदस्य के जन्मदिन पर पकवान व उपहार का इंतज़ाम अवश्य कर लेती। मायके से मिले हुए पैसे बचा-बचा कर, उपहार देते हुए प्यार को व्यक्त करती। उसके जन्मदिन पर फुफा जी से बीस रुपए की चीज भी नहीं दी जाती,उनका कहना है कि भावनाओं से पेट नहीं भरता । मैं भी ये मानती हूॅं कि उपहार का अपना मोल है उसे कीमत से नहीं तौला जा सकता। फुफा जी का कहना था कि कमाकर घर चलाने में अगर मेरा सहयोग देती तो अच्छा होता। इन बातों से दिल दुखता था, मगर बुआ परिस्थितियों के साथ समझौता कर चुकी थी।
बुआ बताया करती थीं कि एक बार रविवार का दिन था बुआ ने मजा़क में बिस्तर पर पड़े हुए चादर को समेटने को कह दिया तभी फुफा जी ने चादर हाथ से उठाया फिर छोड़ दिया और कहा कि मैं कर दूॅंगा तो तुम क्या करोगी ? एक बार इसी प्रकार दूसरी बार चाय पीने का मन होने लगा तो बुआ जी से बोले और बुआ जी ने मज़ाक में कह दिया कि कभी खुद भी बना लिया करो व मुझे भी दे दिया करो। बस फिर क्या था ,फुफाजी का मन उखड़ गया और गुस्से में रसोईघर में घुसे और चाय बनाने लगे । बुआ जी से कहा कि मेरे हाथ पैर सही हैं मैं बना लूॅगा। बुआ जी ने कहा, ‘क्या मुझे मज़ाक करने का भी हक़ नहीं है?’ ‘किस वक्त मज़ाक करना चाहिए ये भी देखा करो।’फुफा जी ने आवाज़ ऊॅंची करते हुए कहा।
दूघ में भी उफ़ान आता है, सरिता का भी बॉध टूट जाता है फिर एक जीती जागती स्त्री से कैसे उसके सब्र का इम्तिहान लिया जाता है। आखिर उसके भी सब्र का बॉंध टूटने को विवश होता होगा। सच, पुरुष प्रधान समाज में स्त्री स्वयं की इच्छा के अनुसार काम कर ले तो जिद्दी समझी जाती है। बुआ जी की सहनशीलता अब जवाब देने लगी थी किन्तु तब भी स्वभाव में विनम्रता बरकरार थी।
बुआ उम्र के साथ-साथ अस्वस्थ भी रहने लगी ‘हाई बी पी’ ‘शुगर ’तथा ‘हार्ट ’की समस्या भी हो गई । बेटे से कभी-कभी मन की बात कर लेती थीं, वह भी सॉफ्ट वेयर कम्पनी में काम करता था। अब उसके विवाह की बातें भी घर पर होने लगी। मॉं ने बेटे से पूछा, ‘तुम्हें कैसी लड़की चाहिए?’ बेटा हॅंस पड़ता, ‘और कहता जो तुम सब का ध्यान रखे।’ लेकिन बेटा मुझे एक बात बताओ ,‘उसका ध्यान कौन रखेगा ? वो सभी को प्यार देगी किन्तु उसके प्यार की पूर्ति कौन करेगा ? बेटे ने तपाक् से जवाब दिया ‘मैं’ और कौन ? शायद बेटे के ज़हम में पिता की छवि स्पष्ट थी। बुआ की ऑंखें भर आईं। बेटे ने फिर से मॉं की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा,‘ मॉ!ं उसकी चिंता करने के लिए मैं काफी हूॅं।’
बुआ का मन का कोना आज भी खाली था। मन में उठती कसक रह रहकर कर कचोटती थी। वहॉं आज भी काले मेघ का इंतजार था, जो अपने साथ प्यार की बारिश ला सके। अगले ही दिन अचानक बुआ जी की तबीयत खराब हाने लगी , अस्पताल में भरती करवाया गया। फूफा जी भी घबरा गए किन्तु अपनी परेशानी प्रकट नहीं होने दिए। पच्चपन वर्ष की उम्र में अब उसी का सहारा था, मॉं-पिता जी तो पहले ही गुज़र गए थे। हार्ट अटैक एक बार पहले भी आ चुका था। डॉक्टर ने सभी को बुलवा लेने को कह दिया। स्थिति कुछ-कुछ सुधरने लगी , तो डॉक्टर ने आई सी यू से केबिन में सिफ्ट कर दिया। शाम के वक्त सभी बुआ से मिलने आएॅं, बेटा बाएॅं हाथ व फुफा दाईं ओर बैठ गए। तभी फिर से तबीयत बिगड़ी बुआ ने बेटे के हाथ को छोड़ा नहीं और कहा,ः‘‘ मेरे शरीर का दान अस्पताल में दे देना, जाते-जाते कुछ तो अच्छा काम कर दूॅ। साथ ही मुखाग्नि का अघिकार मैं पति को नहीं देना चाहती । बेटा, तुम मुझे गलत मत समझना।’’ फुफा जी के तो पैरों तले जैसे जमींन ही निकल गई ,अवाक् से बस देखते ही रह गए, और बुआ जी के प्राण पखेरु कब बिना इजा़जत के ही उड़ गए। आज मन का क्रोध चूर-चूर हो गया। अपने अधिकार से वंचित होते हुए उन्हें जिस तकलीफ से गुजरना पड़ रहा था उसे व्यक्त कर पाने में असमर्थ थे। बेटे से गले लग फूट-फूटकर रोने लगे। पुरुष सब गवॉं कर ही क्यों सचेत होता है? बुआ के मन की दबी हुई कसक शायद आज शब्द बनकर निकले थे।
--------------- अर्चना सिंह‘जया’
सर्वप्रथम ये कहानी www.ekalpana.net पर प्रकाशितहो चुकी है।
Thursday, October 6, 2016
धरती हिली आसमान फटा ( कविता )
धरती हिली,आसमान फटा
अजीब सा एहसास हुआ।
प्राकृतिक विपदाओं को देख,
मानव हृदय यूॅं कॉंप उठा।
नभ का हिय छलनी हुआ,
धरा का तन तार-तार किया।
शिशु, युवा से वृद्ध हुए, तब भी
स्वयं की भूल का आभास कहाँ ?
न सोचा था कल का हमने,
जब वृक्षों का नाश किया।
पय को तुच्छ समझ कर हमने,
भविष्य के लिए कहॉं विचार किया?
भू के गर्भ का न मान रखा,
मॉं -बहनों का अपमान किया।
सहन का बॉंध अब टूट पड़ा,
शैलाब ने सारा नाश किया।
तन-मन का दर्द भेद गया,
अश्रु की धार नभ से फूटा।
धरती हिली आसमान फटा
तब भी भूल का न आभास हुआ।
.......अर्चना सिंह‘जया’
Tuesday, October 4, 2016
Sunday, October 2, 2016
हाड़ मॉंस का इंसान ( कविता )
हाड़ मॉंस का था वो इंसान,
रौशन जिसके कर्म से है जहान।
प्रतिभा-निष्ठा कर देश के नाम
सुदृढ़ राष्ट् बनाने का था अभिमान।
’भारत रत्न‘ का मिला जिसे सम्मान
गूंजे जिसके स्वर कानों में
घर, मुहल्ले व गली तमाम।
नारों से जागृत होता इंसान
‘जय जवान, जय किसान।’
हाड़ मॉंस का था वो इंसान,
घड़ी, धोती, लाठी थी जिसकी पहचान
समय के पाबंद रहे सदा ही
लिया किए सदैव प्रभु का नाम।
प्रातः से सायं तक तत्पर रहे
न लेते थे कोई विश्राम।
आजादी दिलवाई हमको
सत्य-अहिंसा की बाहें थाम।
हाड़ मॉंस का था वो इंसान।
मॉ के लाल थे दोनों सपूत
उन महापुरुषों का कर सम्मान।
‘सादा जीवन, उच्च विचार ’
स्वपन उनके चलो करें साकार।
हलधर बन धरती को गले लगाएॅ,
स्वदेशी बन खादी अपनाएॅ।
‘राष्ट्पिता’ को दो यूॅ सम्मान,
दो अक्टूबर को ही नहीं मा़त्र
आजीवन तक करो यह मंत्र जाप।
चलो मन में लाएॅ एक विचार
‘सत्यमेव जयते’ से गूजे संसार।
बापू-शास्त्री ने देकर योगदान,
मॉं के सपूतों ने रखा, देश का मान।
हाड़ मॉंस के थे वे दोनों इंसान
रौशन कर गए ,देश का नाम।
--- अर्चना सिंह ‘जया’
लाल बहादुर शास्त्री जी व गाँधी जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि ।
Saturday, October 1, 2016
वे वीर (कविता )
कर्मभूमि को धर्म मानकर
जीवन देश के नाम किए।
हिन्दू नहीं, मुस्लिम नहीं
भारतीय होने का अभिमान किए।
ऋतु हो चाहे जो कोई भी
चाहे हो कोई पर्व-त्योहार ।
राष्ट् ध्वज थाम हाथों में
लहू देश के नाम किए।
रिश्तों की चौखट लॉंघ चले
प्रेयसी का दिल तोड़ चले।
घर-ऑंगन का स्नेह मन में
यादों की झोली लिए चले।
मॉं के पकवान की खुशबू को
भू की मिट्टी में खोज लिए।
धूप-छॉंव का आभास कहॉं ?
व्योम के शामियाने तले ।
पुत्र, पति,पिता वे किसी के
स्नेह,प्रेम,प्यार के सदके ।
शीश नमन वतन के लिए
सॉंसें मातृभूमि के नाम किए।
राष्ट् सेवा का संकल्प वे,
ऑंखों में साकार किए ।
वे वीर कैसे थे ? जिन्होंने
उम्र देश के नाम किए ।
भारतीय होने का अभिमान किए।
------- अर्चना सिंह‘जया’
उन शहीदों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि ,जो बिना स्वार्थ के ही अपनी साँसे देश के नाम किए /
Tuesday, September 27, 2016
एक परिंदा ( कविता )
एक परिंदा छज्जे पर
न जाने कब आ बैठा ?
उसे देख मैं प्रफुल्लित होती
और सोचती
पर होते उसके जैसा।
कभी नील गगन उड़ जाती,
कभी फुनगी पर जा बैठती।
पर नहीं मिले हैं मुझको
पर मन तो सदा उड़ान है भरती।
उस परिंदे के पर सजीले
और स्वर है मिश्री बरसाती।
डाल-डाल पर फुदक बाग में,
मेरे मन को सदा लुभाती।
ईश्वर की अदभुत रचना देख,
बिटिया की चाहत है जगती।
थाम कर बाहों में उसको
कोमल स्पर्श से उसे लुभाती।
पर वो परिंदा, भयभीत हो मानव से
भाव मन के समझ उड जाती।
पिंजरे का वो नहीं है प्राणी,
क्षितिज की चाहत है उसकी भी।
पर न काट, हे मानव
पर ही तो होती है
पहचान 'एक परिंदे' की ।
-----------------अर्चना सिंह 'जया'
[ 'पर' शब्द का १० बार प्रयोग ]
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